पहली बार क्षमा ने व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए कहा था, "सिवा तुम्हारे न… रवि, यहीं तुम भूल कर रहे हो. नारी को इतना कमज़ोर मत समझो. नारी लता तो नहीं जिसे ऊंचा उठने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता होती है. रहा सवाल घर का, सो ईंट-पत्थर से बनी इमारत और उसमें सजे सामान को ही अगर तुम घर की संज्ञा देते हो, तो ऐसे घर तो कहीं भी मिल सकते हैं. मैं इसे घर नहीं, एक ख़ूबसूरत क़ैदखाना समझती हूं, और मैं क़ैद में रह कर रोज़-रोज़ की मौत से मुक्ति चाहती हूं. तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक हो."
मिस्टर दास ने अपनी कार शान्ति कुंज के सम्मुख रोक दी. वह कार का दरवाज़ा खोल कर उतर पड़ी. थैंक्स के लिए उसके होंठ हिलना ही चाहते थे कि मिस्टर दास ने एक वज़नदार वाक्य दोहराया, "देखो बेटी नादान न बनो. उस कमीने को इतनी सरलता से छोड़ देना सरासर मूर्खता होगी. उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए, व्ही मस्ट टीच ए लेसन टू दिस फ्लर्ट मैन."
उसने एकबारगी मिस्टर दास की ओर देखा और नज़रें झुकाए हुए आगे बढ़ गई.
मिस्टर दास की कार ने गति पकड़ ली.
क्षमा बोझिल कदमों से सीढ़ियां चढ़ने लगी.
आज उसे एक-एक सीढ़ी चढ़ना मुश्किल लग रहा था. मगर मन का बोझ काफ़ी हल्का हो गया था. तमाम बन्धनों से मुक्ति जो मिल गई थी. उसे लगा एक अनुबंध था रवि और उसके परिवार के मध्य, जिसके अधीन वह क़ैद थी अब तक. आज उस अनुबंध को रद्द करके वह हमेशा के लिए मुक्त हो गई है. मगर मिस्टर दास की बातों ने उसे बड़े धर्मसंकट में डाल दिया था.
मिस्टर दास मां के मौसेरे भाई हैं. वे पिछले कई वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे हैं. क्षमा का केस मिस्टर दास द्वारा लड़ा जा रहा है.
वह सीधी अपने कमरे की ओर चल दी. सामने गैलरी में अंगीठी जलाती मां को देख कर भी अनदेखा कर गई.
पिंकी मां के समीप बैठी गुड़ियों का घर बना रही थी. उसे यूं ख़ामोशी से जाता देख झट से आंखें मटका कर बोली, "देखा नानी, मम्मी कितनी चालाक हैं. लगता है आज भी मेरी गुड़िया के लिए गुड्डा लाना भूल गई है, तभी तो चुपके से चली गई अपने कमरे में. अभी ख़बर लेती हूं, नहीं लाई होंगी तो कट्टी कर दूंगी."
सुबह उठते ही पिंकी ने क्षमा से अपनी गुड़िया के लिए एक अच्छा सा गुड्डा लाने को कहा था और भाग कर पूजाघर में बैठी अपनी नानी को सूचित करने चली गई थी.
"अहा नानीजी, आज मम्मी गुड्डा लाएंगी अच्छा-सुन्दर सा. फिर गुड़िया का ब्याह करेंगे. नानी तुम मिठाई बनाना, बाजे बजेंगे. बड़ा मज़ा आएगा देखना."
पिंकी की बात सुनकर एक फीकी सी हंसी तैर गई थी क्षमा के लबों पर.
गुड़िया का ब्याह करेगी मेरी लाड़ली, घर बसाएगी गुड़िया का, मगर उस बेचारी को क्या पता ख़ुद उसकी ही मम्मी का बसा-बसाया घर किस कदर तिनका-तिनका होकर बिखर गया है. ओह, बड़ी होकर पिंकी क्या सोचेगी? वह भीतर तक सिहर गई थी.
बेडरूम में दीवान पर लेटी क्षमा न मालूम क्या-क्या सोच रही थी कि मां ने साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछते हुए सवाल किया.
"क्या फ़ैसला हुआ बेटी? पिंकी का क्या हुआ?" एक क्षण को वह मां के चेहरे को अपलक निहारती रही. फिर उठ कर बैठ गई. मगर बोली कुछ भी नहीं.
"क्या हुआ तुझे? अरी, बोलती क्यों नहीं?"
"कुछ नहीं मां, हम जीत गए समझो. पिंकी की बात उठी तो विपक्षी वकील ने काफ़ी ज़ोर दिया था कि बच्ची अपने पिता के पास रहनी चाहिए, मगर दास अंकल की वजह से फ़ैसला अपने पक्ष में हो गया. मैं जीत कर भी हार गई मां."
आख़िरी वाक्य बोलते-बोलते क्षमा की आवाज़ भीग गई. पता नहीं उसका अन्तिम वाक्य मां सुन पाई अथवा नहीं. मां की आंखों में नमी तैर गई और गला भर गया. कहीं क्षमा देख न ले, यह सोचकर मां जल्दी से किचन की ओर मुड़ गई. मगर क्षमा से कुछ भी छुपा न रह सका.
वह मां से कुछ पूछना ही चाह रही थी कि पिंकी भागती हुई आई और उससे लिपट गई.
"मम्मी, बताओ आप आज भी मेरे लिए गुड्डा क्यों नहीं लाईं? आप झूठ बोलती हैं ना रोज़-रोज़?"
"ओह सॉरी पिंकी, मैं भूल गई थी, कल ज़रूर लाऊंगी."
"चलो हटो, हम नहीं बोलते, कट्टी. अब हम आप से भी नहीं बोलेंगे."
"गुड्डा लाएंगे तब भी?"
"गुड्डा लाएंगी तब थोड़े ही, तब तो दोनों गालों पर प्यार करेंगे."
"वह कैसे, करके दिखाओ भला."
पिंकी मम्मी की गोद में चढ़ गई और दोनों गालों पर अपने गुलाबी होंठ छुआ दिए. क्षमा निहाल हो गई. उसने पिंकी को प्यार से अपनी बांहों में भर कर चूम लिया.
क्षमा का मन काफ़ी हल्का हो गया. मां चाय बनाकर लाई तो तीनों मां-बेटियों ने साथ-साथ नाश्ता किया. इस दौरान क्षमा ने अपनी मां की सूजी हुई आंखों को देख कर भांप लिया था कि वे किचन में ख़ूब जी भर कर रोई हैं. एक सवालिया निगाह डाली उसने मां के चेहरे पर, मां ने सकपका कर पलकें झुका लीं और बर्तन ले उठने लगीं.
"लाओ मां मुझे दो, मैं धोकर रख दूंगी. अब तुम आराम कर लो थोड़ी देर. लगता है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं."
"अरी नहीं बिटिया, मैं बिल्कुल ठीक हूं. तू बाहर से थकी -मांदी आई है आराम कर ले, और हां पिंकी मम्मी को तंग मत कर जा बाहर जाकर बॉबी के साथ खेल."
नानी का आदेश पाते ही पिंकी बाहर भाग गई. मां ट्रे उठाकर किचन की ओर चल दी.
ठीक सात बजे मिस्टर दास आ धमके. मां को प्रणाम करने के बाद एक आराम कुर्सी पर पसर गए. मां ने एक प्रश्नवाचक निगाह मिस्टर दास के चेहरे पर डाली.
कुछ देर की ख़ामोशी के पश्चात दास बोले, "औरत को इतना कमज़ोर मत समझो. औरत लता तो नहीं, जिसे ऊपर उठने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता हो. रहा सवाल घर का सो ईंट-पत्थर से बनी इमारत और उसमें सजे सामान को ही अगर तुम घर की संज्ञा देते हो, तो ऐसे घर तो कहीं भी मिल सकते हैं. मैं इसे घर नहीं, एक ख़ूबसूरत क़ैदखाना समझता हूं.
देखा दीदी इस नादान लड़की को. उस कमीने को यूं ही छोड़ देने पर उतारू हो रही है. जब बहस के पश्चात इससे बोलने को कहा गया तो गूंगी सिर्फ़ इतना ही बोली, "मुझे कोई एतराज़ नहीं."
"अरे एतराज़ क्यों नहीं..."
"अपनी ब्याहता पत्नी से तलाक़ ले रहा है और फिर एक बच्ची भी तो है, इन दोनों के लिए मुआवजा देना ही होगा. तब बच्चू को पता चलेगा जब हर माह नोट हाथ से निकलेंगे और वही नोट उसे अपने किए का पछतावा दिलाते रहेंगे मगर..."
"मगर क्या भाई, तुम रुक क्यों गए?" मां ने झट सवाल किया.
"दीदी, वह पैसा तब ही मिलेगा, जब क्षमा डिमाण्ड करेगी."
"क्यों री क्षमा, तुझे इसमें एतराज़ काहे को है?"
"अरी बोलती क्यों नहीं, हम तुझी से पूछ रहे है?"
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद क्षमा ने अपनी झुकी हुई पलकें ऊपर उठाई और अपनी मां से सवाल किया, "मां, क्या मैं अभी से भारी पड़ने लगी? तुम चिन्ता न करो, मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूं. आख़िर दो-दो डिग्रियां किस दिन के लिए हैं. मैं किसी की दी हुई खैरात पर जीवनयापन करना अपना अपमान समझती हूं. अपना व अपनी बच्ची का गुज़ारा चलाने में समर्थ हूं."
"तुम हमें ग़लत समझ रही हो बेटी." मिस्टर दास के स्वर में गम्भीरता आ गई थी.
"माना तुम सब प्रकार से सक्षम हो. पढ़ी-लिखी हो. दीदी के पास भी ईश्वर की कृपा से सभी कुछ है और तुम्हारे सिवा अन्य कोई औलाद नहीं दीदी की. तुम ही एकमात्र वारिस हो. मगर तुम अपने से परे उन लोगों की तो सोचो जो अशिक्षित एवं असर्मथ हैं. जो औरतें दो जून इज़्ज़त की रोटी भी नहीं खा सकीं और तलाक़ की शिकार हो जाती हैं. वे भी अगर तुम्हारी तरह सोचें तो खाएं क्या?"
"महिलाओं के हित के लिए क़ानून में ख़र्चा देने का प्रावधान है. तुम्हारी जैसी लड़कियां नादानी करके पुरुष को इस सज़ा से मुक्त कर देती हैं, तो भला पुरुष को क्या नुक़सान हुआ? तुम भली प्रकार सोच लो. मुझे जो कहना था कह चुका. मैं कल फिर आऊंगा." मिस्टर दास उठ कर चले गए.
पूरे घर में मरघट सी ख़ामोशी छा गई. क्षमा प्रस्तर प्रतिमा सी मौन बैठी रही. कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई उस पर. मानो कुछ सुना ही न हो. उसके कानों में रवि के वे अन्तिम शब्द बार-बार गूंज रहे थे, "तुम चाहो तो यहीं बनी रहो. मुझे कोई आपत्ति नहीं. मगर मैं सीमा को नहीं छोड़ सकता. मेरी मानो तो यहीं रह कर पिंकी की देखरेख करो और आराम से रहो. कहां मारी-मारी फिरोगी? कौन उठाएगा तुम्हारा ख़र्च? क्या अपनी अकेली मां पर बोझ बनोगी? डोन्ट बी सिली क्षमा. मुझे तुम पर रहम आता है. क्यों तुम्हारी बुद्धि... मैं वादा करता हूं क्षमा, इस घर में तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी, बस तुम सीमा को इग्नोर कर दो. इस घर में सब तुम्हारा है सिवा..."
पहली बार क्षमा ने व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए कहा था, "सिवा तुम्हारे न... रवि, यहीं तुम भूल कर रहे हो. नारी को इतना कमज़ोर मत समझो. नारी लता तो नहीं जिसे ऊंचा उठने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता होती है. रहा सवाल घर का, सो ईंट-पत्थर से बनी इमारत और उसमें सजे सामान को ही अगर तुम घर की संज्ञा देते हो, तो ऐसे घर तो कहीं भी मिल सकते हैं. मैं इसे घर नहीं, एक ख़ूबसूरत क़ैदखाना समझती हूं, और मैं क़ैद में रह कर रोज़-रोज़ की मौत से मुक्ति चाहती हूं. तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक हो."
"ठीक है अगर ये कदम घर से बाहर निकले है, तो याद रखना, फिर कभी इस घर में आने की हिम्मत न करना."
"क्षमा ने थूक कर चाटना नहीं सीखा रवि. मैं तुम्हारे जैसे फरेबी और चरित्रहीन व्यक्ति के साथ रहना तो क्या तुम्हारी छाया तक से दूर रहूंगी और अपनी बच्ची को भी रखूंगी..."
वह तत्क्षण वहां से चली आई थी.
लाख कोशिश के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी. मिस्टर दास की बातों ने उसे पशोपेश में डाल दिया था. वह क्या करें क्या न करें? उसे लगा वह किसी अनदेखे चक्रव्यूह में फंस गई है और छुटकारे के लिए छटपटा रही है. उसका दम घुटने लगा. उसे अंधकार में डूबा अपना बेडरूम भयावह लगने लगा. क्षमा ने तुरन्त उठकर बत्ती जला दी. कमरा रोशनी से भर उठा.
अनायास ही उसका ध्यान पास लेटी पिंकी की ओर गया. उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. पिंकी अभी तक जाग रही थी. पिंकी उसके नज़दीक आ गई और गले में बांहें डाल कर बोली, "मम्मा, आज जब हम खेल रहे थे न, तब पता है एक पागल आ गया था. सब डर कर भाग गए थे. मीनू कहती है, वह दीपू का भाई है. पागल हो गया है. मम्मा, लोग पागल क्यों हो जाते हैं?"
"बेटी, पागल होते नहीं, कर दिए जाते हैं." क्षमा खोई खोई सी बोली.
"कौन करता है पागल, मम्मा?"
"परिस्थितियां."
"यह क्या चीज़ होती है मम्मा?"
"तुम अभी नहीं समझोगी बेटी, बढ़ी हो जाओगी तब सब समझ जाओगी."
"तुम्हारे जितनी?"
"हां, अब तुम सो जाओ पिंकी."
"बस एक बात और...."
"कहा न सो जाओ, बड़ी बातूनी हो गई हो."
"मैं तो बता रही थी मम्मी, मन्नू के दादाजी मर गए. आज शाम को चुन्नु बता रहा था."
"अच्छा..." क्षमा ने एक दीर्घ निश्वास ली.
"आदमी मरता क्यों है मम्मा?" पिंकी ने अपने विस्फारित नेत्र करते हुए कहा.
"कभी-कभी आदमी मरता नहीं मार दिया जाता है बेटी. कुछ लोग रोज़ मरते हैं, रोज़ जीते हैं, उनकी यही नियति है."
"क्या मन्नू के दादाजी फिर से जी जाएंगे?"
"नहीं री, वे तो सचमुच मर गए. लकी थे वे जो तमाम झंझटों से मुक्ति पा गए."
क्षमा की इस तरह की बातें पिंकी के ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ीं. उलझन भरे मन को नींद ने आ घेरा और नन्हीं सी पिंकी नींद की आगोश में सिमट गई.
उस रात क्षमा सो न पाई. तमाम रात उल्टे-सीधे विचारों में खोई रही. एकाएक उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और उसके शुष्क होंठों पर एक विचित्र प्रकार की मुस्कान तैर गई.
सुबह जब मिस्टर दास आए तो घर में घुसते ही क्षमा से मुलाक़ात हो गई. उन्होंने क्षमा को अपने अधिकारों के प्रति सजग पाया.
"हैलो क्षमा, कैसी हो?"
"जी, अच्छी हूं."
"क्या सोचा तुमने?"
"जैसा आप चाहेंगे वहीं होगा मगर..."
"भई, यह फिर मगर-वगर का क्या चक्कर."
"मेरी एक शर्त है."
"वह क्या है? मैं भी तो सुनूं."
"मुझे ख़र्चा कोर्ट के अधिकारी वर्ग के समक्ष स्वयं रवि के हाथों मिलना चाहिए."
"ठीक है हम अपील कर देंगे और कुछ?"
"जी बस, केवल यही."
अपील मंजूर कर ली गई. कोर्ट में हर माह आने की बात रवि को अखरी, मगर अदालत का फ़ैसला यही था सो इंकार का तो प्रश्न ही नहीं उठता था.
पहली किश्त की अदायगी उसी दिन, उसी समय देने का रवि ने अपना विचार प्रकट किया. कोर्ट को भला क्या एतराज़ हो सकता था. रवि की इन्कम को देखते हुए कोर्ट के नियम के अनुसार क्षमा के हिस्से एक तय रकम बना.
मुआवजे की रकम के बारे में जानकर रवि का चेहरा उतर गया, मगर अब क्या हो सकता था.
रवि ने मुआवजे की राशि वकील के हाथों में थमा दी. कठघरे में खड़ी क्षमा ने जैसे ही नोट हाथ में लिए सबके देखते ही देखते उन नोटों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए.
"अरे-अरे, यह क्या कर रही हैं क्षमा जी?' वकील ने घबरा कर कहा.
"वकील साहब, यह मेरा निजी मामला है. क्षमा कीजिए, आपका रोल ख़त्म हो गया. धन्यवाद."
रवि की समझ में कुछ नहीं आया, मगर उसने अपने आपको अपमानित महसूस किया. उसके पौरुष को कहीं गहरा आघात पहुंचा था.
क्षमा की मां भी काफ़ी हैरान थी. मगर क्षमा का यही जवाब था, "यह मेरा निजी मामला है अपना पैसा है, चाहे जैसे इस्तेमाल करूं."
हर माह एक निश्चित तारीख़ को क्षमा कोर्ट जाती. सब के सामने नोटों के टुकड़े-टुकड़े कर देती. हर बार रवि से पैसा वसूल करती और वहीं करती.
रवि को क्षमा की हर चोट ने अन्दर तक तोड़ कर रख दिया. उसने अदालत से निवेदन किया कि वह मुआवजे की राशि मनीऑर्डर द्वारा भेजना चाहता है. उसकी दरख्वास मंज़ूर कर ली गई.
जब जज साहब द्वारा क्षमा से मनीऑर्डर भेजने के लिए पता पूछा गया तो सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. क्षमा ने शहर के एक अनाथालय का पता बताया.
क्षमा ने अनुरोध किया कि मिस्टर रवि प्रतिमाह निश्चित की गई राशि अनाथ बच्चों को नियमित रूप से भेजते रहें, ताकि उस पैसे का सही उपयोग हो सके और मिस्टर रवि के मन में सदा यह एहसास बना रहे कि इनमें से अधिकांश बच्चे उन्हीं की जमात के लोगों की करनी का फल है.
क्षमा अविलंब कोर्ट से बाहर निकल गई और तेज रफ़्तार से चलती हुई भीड़ के रेले में खो गई.
- श्रीमती सुदर्शन

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