यक़ीनन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें विधाता अपनी पूरी लगन से गढ़ता है और पूर्ण संस्कारित करके ही धरा पर भेजता है. जो न मिला, उसके लिए कभी भगवान को दोष नहीं देते. कभी मुंह खोलकर अपने जीवन की त्रासदियों की शिकायत नहीं करते और मिसाल बन जाते हैं, जीती जागती... जिनका ‘होना’ बरगद की छांव-सा लगता है.
उसके देहावसान की सूचना मिले चार महीने से ऊपर हो गए. तब से एक दिन भी वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हुई. खाना बनाते व़क़्त तवे पर सिंकते फुलके से उठनेवाली सौंधी सुगंध के साथ उसकी याद की टीस का क्या मेल हो सकता है, यह मैं समझ नहीं पा रही हूं. कदाचित यह कि बचपन में लकड़ी-उपले के चूल्हे में रोटी सेंकती वो... और उसके सामने बैठी हाथ तापती या खाना खाती मैं... अनजाने में रोटियों की वह सुगंध मेरे नथुनों में भरती चली गयी होगी. अर्थात् उसकी याद के साथ उस विशेष महक का मेल तो था. पहले यह बात समझ में नहीं आई मुझे. मगर, अब जबकि वह नहीं रही तो मैं... ह़ज़ारों कोस दूर बैठी तवे पर सिंकती रोटी से उठती महक के साथ कलेजे से उठती हूक को समझने की कोशिश में लगी हूं.
कितनी यादें... कितनी स्मृतियां- देखी हुई सुनी हुई... आज उनको पृष्ठों पर उतार देने का मन हो रहा है. शायद उस अनूठी हस्ती के प्रति मेरी अशेष श्रद्धा के सुमन अर्पित हो जाएं. मन में उठते भावों को शब्दों में बांधने का कितना भी प्रयास किया जाए... हूबहू करना सम्भव कहां हो पाता है? यदि होता, तो मैं आपको रोटी से उठनेवाली उस महक का स्वाद क्या न बता पाती कि किस तरह इधर कपड़े से फुलायी रोटी की भाप बाहर निकली और उधर उसकी तस्वीर मेरी आंखों के सामने आयी.
लगभग साठ या उससे भी पांच-सात वर्ष पहले की एक तपती दोपहरी में राजस्थान के बीकानेर शहर में ‘देशनोक’ गांव की वह सुतारी (लकड़ी का काम करनेवाले को सुतार कहते हैं) अपने साथ दस वर्षीया बालिका का हाथ थामे शहर के प्रतिष्ठित सेठ की ऊंची लाल पत्थरों की हवेली के विशाल आंगन में खड़ी कह रही थी.
“सेठाणीजी आपरा बाईसा ने रमावण ने कोई छोटी-छापरी चहिज ही सी. ई ने लाई हूं. करम फूटोड़ा हो, जिको पेला ईरा मां-बाप काल में मर गया अबे धणी. म्हें अभागण दिन-रात खेतां में रेंऊ ईरी रखवाली कोनी कर सकूं... आपरे दरबार में पल जायी माईता.” और रोने लगी वह.
विधवा के लिए निर्धारित क्रीम रंग के मोटे कपड़ों में गठरी बनी वह बच्ची, जिसका नख-शिख तक नहीं दिख रहा था, उसकी पुत्रवधू थी. इस कच्ची उम्र में विधवा...
सेठजी के यहां पांच-छ: महीने पहले ही प्रथम पुत्री का जन्म हुआ था. इतनी बड़ी हवेली में बच्ची को रखनेवालों का अभाव नहीं था, किन्तु एक तो सेठ स्वयं ‘देशनोक’ गांव के थे, उस पर ‘सुतार घराने’ के पुराने सेवाभाव के कारण उसे रख लिया गया.
सांवली-सलोनी कृशकाय बालिका का नाम था ‘चांद’. चांद की ही भांति उसके छोटे-से जीवनकाल में ‘विधवा’ का दाग़ लगा था. चुपचाप माथा झुकाए सुबह पांच से रात दस बजे तक सेठानी के पीछे-पीछे उनके बताए छोटे-मोटे काम वह नि:शब्द करती रहती. सेठजी की बेटी कमला को तो वह गोद से नीचे ही नहीं उतारती थी. इशारों में समझने और अद्भुत आज्ञाकारिता के दुर्लभ गुण के कारण उसे उपालम्भ देने का अवसर कभी किसी को नहीं मिला. संपन्न घर में खाने-पहनने की कमी तो थी नहीं. सेठानी ने भी अन्य सेवक-सेविकाओं की संगत में उसे कभी नहीं रखा. इसकी वजह उनका दयावान धर्मभीरू स्वभाव तो था ही, चांद का शांत, कर्मठ, समर्पित व्यवहार भी था. मेवा-मिष्ठान, फल-फूल, कपड़े-गहने, खेल-खिलौनों के अंबार देख कर भी उस अबोध बच्ची की आंखों में लोभ-लालच तो दूर, किसी प्रकार के कौतुहल का भाव तक नहीं आता था.
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लगता था जैसे भौतिक वस्तुओं से अघायी कोई देवबाला शापग्रस्त जीवन काटने आ पहुंची थी.
समय का रथ गतिमान था. सेठ का मोतीपुरा आंगन समृद्धि के साथ-साथ एक-एक करके पांच बेटियों की चहचहाहट से गुलज़ार हो गया. बालिका चांद कब ‘धायजी’ के संबोधन की हक़दार बन गयी, पता तक न चला. निःस्वार्थ कर्त्तव्यपरायणता अपना हक़ ख़ुद दिला देती है. जैन धर्मावलम्बी परिवार में अब सेठ-सेठानी बेटियों को घर पर धायजी की देख-रेख में छोड़ साधु-संतों के सेवा-दर्शन पर जाते रहते. घर की पूरी ज़िम्मेदारी धायजी के कंधों पर रहती. चार-पांच नौकर-नौकरानियों की बागडोर भी उसके हाथ में रहती, मगर धाय की कार्यकुशलता ने कभी मात खाना नहीं जाना. बड़ी बेटी कमला दस वर्ष की हुई तो बड़ी धूमधाम से अति संपन्न घर में उसका विवाह हुआ.
उन दिनों की प्रथा व अतिरिक्त प्रेम के कारण बालिका वधू के साथ धाय भी उसके ससुराल साथ जाती. दस वर्ष की कमला और बीस वर्ष की उसकी धाय. ससुराल में होनेवाली बहू की मनुहारें, लाड, प्रेम व अपेक्षाकृत युवा दूल्हे की प्यार भरी छेड़खानी, पत्नी का सामीप्य पाने की चेष्टाएं, धाय की आंखों के सामने घटते रहते... यक़ीनन उसका मन वैरागी ही रहा होगा... कि व़क़्त और वयस की किसी मौसमी हवा ने उसे हिलाया तक नहीं. उसने अपने मन के घोड़े को संयम के किस अदृश्य चाबुक से साधा था, जो कभी भटका नहीं.
इस दौरान सेठ के बेटा हुआ और कालांतर में एक-एक करके सभी बेटियां ससुराल चली गयीं. इतने बड़े घर की पाकशाला का दायित्व धाय के पटु हाथों में था. सेठानी ख़ुद उसके सहयोग को तत्पर रहती. बेटियां जैसे-जैसे बड़ी होती जातीं, वे उन्हें धाय का हाथ बंटाने व काम सीखने उसके पास भेजती रहती. अनजाने में सभी बेटियों ने गृहकार्य की दीक्षा धाय से ली और उसके साथ उन सबका नेह का नाता प्रगाढ़ होता गया.
धाय और सेठानी में एक बात को लेकर अक्सर तकरार होती. धाय जब खाने बैठती तो न जाने किस आले-अलमारी के ओने-कोने से निकालकर ठण्डी-बासी रोटी और बची सब्ज़ी अपनी थाली में रख लेती. सेठानी इस पर बरस पड़ती.
इस लम्बे अंतराल में यह ज़रूर हुआ कि धाय का सेवाभाव तो वही रहा, मगर अब अधिकार भाव भी आ गया. लड़कियां ससुराल से आतीं तो उनके वेश-व्यवहार या फिर बच्चों के रख-रखाव को लेकर सगी मां से पहले ही धाय डपट दिया करती.
लड़कियों के ससुराल उसी शहर में थे. आना-जाना लगा रहता. मारवाड़ी घरों में गहने पहनने का चलन कुछ ज़्यादा है. ससुराल से आतीं, तो वे अपने गहने उतार कर धाय को सौंप देतीं. ऊपर जाकर ताले-चाबी का झंझट कौन करे. शाम को ससुराल जाते व़क़्त वापस पहनना ही होता. धाय के रहते निश्चिंतता थी.
सभी लड़कियों की शादियां हो गयीं.. बेटा कलकत्ता पढ़ने चला गया. घर सूना हो गया था. सेठानी ने इस सूनेपन को कम करने के लिए अपनी एक नातिन मंजू को अपने पास रख लिया. मंजू की मां अब कलकत्ता रहने लगी थी. अब नानीमां और धाय की तमाम वर्जनाओं व दुलार का केन्द्र मंजू थी. बेटियों के सभी बच्चों की वह नानी थी और एक-एक की पसंद उसे कंठस्थ रहती थी. बच्चे आते, तो उन सबकी फरमाइशें पूरी करती रहती. अपने लिए रखती वही बासी रोटी और बची सब्ज़ी. कई बार नानीमां के इशारे से मंजू खाने की कोई वस्तु, फल या मिठाई फ्राक में छुपा कर लाती और खाना खाती धाय की थाली में चुपके से रख देती, तो वह बिगड़ उठती. थाली धो कर पीने का सनातन नियम पालने वाली धर्मभीरू धाय को फिर वह वस्तु खानी ही पड़ती. मंजू पर उसकी डांट का कोई असर नहीं होता था. उसे बहुत बुरा लगता कि नानी कोई अच्छी चीज़ क्यों नहीं खाती... और वह ताक में रहती इसी तरह उसकी जूठी थाली में कुछ रख देने के.
छुट्टियों में नानीमां उसे भी अपनी बेटियों की तरह नानी के पास रसोईघर में भेजती काम सीखने के लिए, “जा नानी खने घर का काम सीख, नहीं तो सासरे में गाल्या खासी.” रात के व़क़्त गलियों में कुत्तों का समवेत कर्णकटु आलाप मंजू को डराता. वह जब तक नानी का हाथ कस कर पकड़ कर नहीं सोती, उसे नींद नहीं आती.
सेठजी के बेटे की शादी की बात चलने लगी. लड़कियां देखी जातीं... धाय का पूरा दख़ल रहता. छांट कर रूपसी बहू लाए. बहू पर सगी सास-सा शासन करने व दुलार लुटाने वाली धाय बेटे के बच्चों पर तो जैसे जान छिड़कती थी. बहू ने भी उसका मान सास जैसा ही रखा. न कभी पलट कर जवाब दिया, न मनमानी की. अब धाय को बुढ़ापा आ रहा था. सेठजी का देहावसान हो गया था और यह परिवार कलकत्ता रहने लगा था.
साल में एक बार परिवार बीकानेर आता तो वह अपने गांव ‘देशनोक’ आठ-दस दिन जा आती थी. वहां उसके तीन देवर व उनके परिवार रहते थे. लकड़ी के काम में अच्छी आय थी उनकी और धाय का मान भी बहुत रखते थे. एक बार जब वह देशनोक गयी तो किसी ने उसके दिमाग़ में एक बात जमा दी, “पूरो जमारों तो सेठां रे घर में गाल दियों. पण आगलों जमारो क्या गमावों, अबे थारी ऊमर आयेगी. कदेई सांस निकल जाएगी तो बढ़े बिना पूरों बाल्यां नदी में फेंक देवे, जिके सु गति कोनी हूवें.”
और गांव से वापस आकर धाय ने ऐलान कर दिया वह अब कलकत्ता नहीं जाएगी. सभी को ताज्जुब हुआ. बहुत समझाया, मगर वह नहीं मानी. उसे वहां छोड़ते सभी को दुख हो रहा था, पर वह तो अड़ी गयी, रो रही थी. व्याकुल भी थी. जानती थी जहां कभी रही नहीं, वहां रहना कठिन तो होगा. लेकिन सद्गति व परलोक के भय ने उसे जकड़ रखा था. कलकत्ता में मंजू ने सुना, तो उसे बहुत ठेस लगी. सगी मां जैसे कहीं अकेली रह जाए, तो जैसा मन आकुल-व्याकुल हो उठे, ठीक वैसा ही लगा था उसे.
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जब सभी बीकानेर जाते तो वह गांव से आ जाती थी. इस बीच एक बार मंजू का राजस्थान जाना हुआ, तो वह नानी से मिलने देशनोक गयी. उसे देख कर मंजू की आंखों से ढल-ढल आंसू टपकने लगे.
ख़ुद पर उसका वश नहीं रहा. वह धाय के देवरों से कह बैठी, “थे केवता हा इने खने राखर पूरी सेवा चाकरी करसा. इसी सेवा करो हो कई आ हालत हुगी. इसी तो आ कदेई कोनी ही.”
मंजू की बात सुन कर कोई कुछ नहीं बोला, सब कमरे से बाहर निकल गये तो धाय ने उसे हाथ दबा कर चुप रहने का इशारा किया और बोली, “गेली हुयी है... क्यां रोवे है. ए सगला बापड़ा तो मारे आगे-भारे फिरे हैं. अबे बुढ़ापो है, पीला पान हां... कदेई झर जासा... रो मती तू तो म्हारी साणी बाई है.”
मंजू भी उसके संकोची स्वभाव को जानती थी. संभव है, हमेशा जिनके साथ रही. उनसे दूर रहने के कारण उसकी यह हालत हो गयी है. सब पर पूरे अधिकार से गरजने वाली नानी की सूखी देह और गठरी-सी बनी पांवों में माथा डाले, दीन-हीन-सा बैठा रहना मंजू को कचोट गया और वह आपा खो बैठी थी. उसने फिर नानी को समझाने का पूरा प्रयास किया. पर वह कहां मानने वाली थी.
सोचती हूं, उस जैसे इन्सान को भी अपने अगले जनम के लिए चाह कर पुण्यों को अर्जित करने की आवश्यकता थी क्या? काम, मोह, लोभ, लालच को इसने जितना साधा था, उतना तो कोई संसार त्यागी साधु भी नहीं साध पाता. उसे अपना अगला जनम सुधारने के लिए अन्तिम प्रहर के तप के मूलधन से कहीं ज़्यादा आजीवन नि:स्वार्थ सेवाभाव, अलौकिक ईमानदारी तथा उम्र के कच्चे पड़ावों पर भी अडिग रहने की दृढ़ता का पुण्य क्या कम था?
ऐसे किसी इंसान की गढ़न में मां-बाप के उच्च संस्कार, सुशिक्षा तथा वैसा ही परिवेश का बड़ा हाथ होता है. कब पाये उसने मां-बाप से संस्कार...? कब मिली शिक्षा...? और कहां मिला परिवेश...? यक़ीनन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें विधाता अपनी पूरी लगन से गढ़ता है और पूर्ण संस्कारित करके ही धरा पर भेजता है. जो न मिला, उसके लिए कभी भगवान को दोष नहीं देते. कभी मुंह खोलकर अपने जीवन की त्रासदियों की शिकायत नहीं करते और मिसाल बन जाते हैं, जीती जागती... जिनका ‘होना’ बरगद की छांव-सा लगता है. अदृश्य, मगर सुकून भरा, शीतल-शांत, घनघोर, लेकिन जब चले जाते हैं तो छोड़ जाते हैं एक एहसास... एक सुगंध.
- निर्मला डोसी
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