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कहानी- एक कप चाय (Story- Ek Cup Chai)

Short Story in Hindi ख़ुशी से सुधीरजी की आंखें नम हो आई थीं. काश! उन्होंने चाय का निमंत्रण पहले स्वीकार कर लिया होता. सही कहा गया है कि बांटने से सुख बढ़ता है और दुख घटता है. इसलिए जब कोई आपको एक कप चाय के लिए आमंत्रित करता है, तो इसका तात्पर्य है कि वह आपके साथ ज़िंदगी के वो पल बांटना चाहता है, जो अभी तक अनकहे, अनसुने हैं. वह कुछ आपकी सुनना, तो कुछ अपनी सुनाना चाहता है. हमेशा की तरह पत्नी के संग शहर की सबसे पॉश कॉलोनी में वॉक करते सुधीरजी स्वयं को किसी शहंशाह से कम नहीं समझ रहे थे. सवेरे और शाम की नियमित सैर उनका बरसों से चला आ रहा नियम था. तबीयत ठीक हो या न हो, इच्छा हो या न हो, शाम की सैर में तो साधनाजी को भी उनका साथ देना ही पड़ता था. “समय रहते इस कॉलोनी में फ्लैट बुक करवाकर हमने कितनी समझदारी का काम किया न! देखो अब एक भी मकान खाली नहीं बचा है यहां. और सारे के सारे कितने प्रतिष्ठित लोग रहते हैं! मुझे तो लगता है कि शहर के सारे बड़े अफसर, बिज़नेसमैन यहीं आकर बस गए हैं. जिस इलाके में लोग किराए पर रहना अफोर्ड नहीं कर सकते, हमने अपना फ्लैट लिया है.” “तो आप किसी से कम हैं क्या? रिटायर्ड चीफ इंजीनियर हैं.” साधनाजी ने पति की प्रशंसा की, तो सुधीरजी और भी फूलकर कुप्पा हो गए. सामने से आते किसी शख़्स ने उन्हें झुककर नमस्कार किया, तो सुधीरजी ठिठके. चेहरा काफ़ी परिचित-सा था. “नमस्ते सर, नमस्ते मैडम! मैं प्रकाश! आप ही के ऑफिस में सुपरवाइज़र था.” “ओह हां, अब पहचान लिया. कैसे हो? इधर केैसे आना हुआ?” “जी मैं यहींं रहता हूं. इधर सी विंग में. मकान नंबर 212. रिटायर होने के बाद पिछले महीने यहां शिफ्ट हो गया था.” “ओह, अच्छा! कौन हैं आपके मकान मालिक?” “जी, अपना ही है.” प्रकाशजी ने नम्रता से कहा. सुधीरजी के अहम् को हल्की ठेस लगी. “टू बीएचके होगा?” “नहीं सर, थ्री बीएचके है. अब इतना तो बड़ा चाहिए ही. कल को बेटे की भी शादी होगी. उसके बच्चे होंगे. गांव से मां को भी लाने की सोच रहा हूं. चलिए न सर, यहीं दूसरे माले पर ही है. एक कप चाय हो जाए. मिसेज़ को भी मैडम से मिलकर अच्छा लगेगा.” “फिर कभी आएंगे. अभी तो आपकी मैडम को कुछ शॉपिंग करनी है.” “ठीक है सर! समय निकालकर आइएगा ज़रूर चाय पीने.” प्रकाशजी विनम्रता से फिर झुक गए थे. उनका अधीनस्थ उन्हीं के जितने बड़े मकान में इतनी पॉश कॉलोनी में रहता है. यह बात उन्हें हज़म नहीं हो रही थी. “आपके दोस्त के यहां चल लेते न चाय पीने. कितने आग्रह से बुला रहे थे.” साधनाजी ने सरल हृदय से मन की बात रख दी. वैसे भी यहां आए इतना व़क्त हो गया. अभी तक किसी से ज़्यादा जान-पहचान नहीं हुई है.” “वो दोस्त नहीं है मेरा. सुना नहीं क्या कहा उसने? मेरे ऑफिस में मेरा अधीनस्थ था वह! मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि इतनी महंगी कॉलोनी में उसने इतना महंगा फ्लैट ख़रीदा कैसे?” सुधीरजी मन ही मन उधेड़बुन में लगे हुए थे.  “इतनी सैलरी तो नहीं थी इसकी. था भी ईमानदार! तो ऊपर की कमाई भी क्या रही होगी? लोन भी आख़िर कितना लिया होगा? किश्तें चुकाना कोई आसान काम थोड़े ही है?” इस घटना के लगभग 10-12 दिन बाद सुधीरजी फिर प्रकाशजी से टकरा गए थे. बैंक से घर लौटने के लिए उन्होंने शेयरिंग कैब बुक करवाई थी. आधे रास्ते में जब प्रकाशजी उसमें सवार होने लगे, तो वे चौंके. दोनों का गंतव्य एक होने से साथ तो बैठे रहना ही था और साथ बैठे थे, तो वार्तालाप भी होनी ही थी. “उस दिन ज़्यादा कुछ बात हो नहीं पाई.आपको तो एक-दो साल हो गए होंगे इधर शिफ्ट हुए?” “हां, रिटायरमेंट के बाद से ही यहां हूं. बेटी का कॉलेज भी यहां से पास है.” “अच्छा क्या कर रही है बिटिया?” “इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में है.” यह भी पढ़े: रिश्तेदारों से कभी न पूछें ये 9 बातें (9 Personal Questions You Shouldn’t Ask To Your Relatives) “बहुत बढ़िया. मेरे बेटे ने भी इंजीनियरिंग की है. मुंबई में एक एमएनसी में नौकरी कर रहा है. उसी ने ज़िद करके यह फ्लैट दिलाया है. कहता है, घर कोई बार-बार थोड़े ही न ख़रीदा जाता है. मैं भरूंगा लोन की किश्तें! सर, मुझे लगता है मैंने और निर्मला ने पिछले जन्म में ज़रूर कोई पुण्य कर्म किए होंगे, जो ऐसा लायक बेटा मिला. अब तो बस कोई उसके योग्य लड़की मिल जाए, तो बहू बनाकर घर ले आएं.” “एक बार बेटे से पूछ तो लो, शायद कोई पसंद कर रखी हो. हो सकता है उसके साथ लिव इन में भी रह रहा हो. मुंबई में तो यह सब आम है. तुम गए हो उसके पास कभी मुंबई?” “नहीं सर, वही आ जाता है सप्ताह, दस दिन में संभालने. पुणे से मुंबई दूर ही कितना है? जब भी आता है, कुछ न कुछ सुख-सुविधा के सामान से घर भर जाता है. हम कहते हैं, हमें यह सब नहीं चाहिए. तू तो बस बहू ले आ. तो कहता है यह मेरा काम नहीं है. यह तो आपकी ज़िम्मेदारी है.” ख़ुशी और भावनाओं से आह्लादित प्रकाशजी और भी बहुत कुछ बताना चाह रहे थे, पर उनका गंतव्य आ गया था. कैब ड्राइवर उतरने का इशारा कर रहा था. “घर चलिए न सर, चाय पीकर चले जाइएगा. पास ही तो है. कहेंगे, तो मैं छोड़ दूंगा.” प्रकाशजी ने प्रेम से आग्रह किया. “अरे नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं है. फिर कभी फुर्सत से आऊंगा. अभी तो घर पर साधना भी इंतज़ार कर रही होगी.” “भाभीजी को लेकर आइए सर कभी चाय पर. हमें बहुत प्रसन्नता होगी. मैं तो कहता हूं आज शाम को ही आ जाइए.” “नहीं नहीं, मैं बता दूंगा. चलो भैया.” सुधीरजी ने ड्राइवर को चलने को कहा, तो प्रकाशजी ने हाथ जोड़ दिए. घर पहुंचकर पत्नी को यह बताते हुए कि प्रकाशजी ने मकान अपने बेटे के बलबूते पर ख़रीदा है. सुधीरजी काफ़ी तसल्ली महसूस कर रहे थे. “अरे मैं आपको बताना ही भूल गई थी. अपनी वाणी की एक सहेली उनके बिल्कुल बगलवाले फ्लैट में ही रहती है. वहीं आते-जाते उसकी दो-तीन बार प्रकाशजी और उनकी पत्नी से मुलाक़ात हुई है. कह रही थी अंकल-आंटी उस पर बेटी-सा प्यार रखते हैं. न हो तो आप ही उन्हें सपत्नी चाय पर बुला लीजिए. हर बार वे ही आपको निमंत्रण देते हैं.” “तो मैं कौन-सा चला गया? ख़ैर देखते हैं.” साधनाजी खाना लगाने में व्यस्त हो गईं, तो सुधीरजी एक बार फिर प्रकाशजी के बारे में सोचने लगे. ‘आदमी भला लगता है. ऑफिस में तो बस काम से काम रखते थे. कभी किसी के घर-परिवार के बारे में जानने का तो मौक़ा ही नहीं मिला. आज भी बेटे के बारे में बताते-बताते कैसे भावनाओं में बह गया था. काफ़ी कुछ कहना चाह रहा था कि घर आ गया. चलो अगली बार उसका चाय का निमंत्रण स्वीकार कर लूंगा.’ सुधीरजी शांत मन से खाना खाने बैठ गए थे. इसके बाद कुछ ऐसा व्यस्त घटनाक्रम चला कि सुधीरजी के पास प्रकाशजी तो क्या किसी से मिलने-बतियाने का समय शेष न रहा. यहां तक कि उनकी सुबह-शाम की सैर भी छूट गई. पत्नी की थकावट और बेचैनी जिसे वे उम्र का तकाज़ा समझ रहे थे जांच के एक लंबे सिलसिले के बाद कैंसर निकली. बीमारी अभी आरंभिक अवस्था में ही थी और उपचार से ठीक हो जाने की उम्मीद थी. किंतु साधनाजी ने तो जीने की आस ही छोड़ दी थी. हर व़क्त नकारात्मक और निराशावादी विचार उन्हें घेरे रहते. बाप-बेटी ने उन्हें बहुत मुश्किल से सर्जरी और फिर कीमो थेरेपी के लिए तैयार किया था. इलाज के लंबे बोझिल पलों के बीच एक ही सकारात्मक और ख़ुशी की ख़बर आई थी कि वाणी का कैंपस प्लेसमेंट में चयन हो गया था. मुंबई की एक प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी में उसे अच्छे पैकेज पर नौकरी मिल गई थी. हालांकि वाणी का अभी नौकरी करने का कोई इरादा नहीं था. वह तो आगे एमबीए करना चाहती थी, पर इधर मम्मी के इलाज के दौरान हो रहे अतिशय ख़र्च ने उसे अपना निर्णय बदलने पर मजबूर कर दिया. वह नौकरी जॉइन कर पापा का सहारा बनना चाहती थी. “पर बेटी, तेरी आगे की पढ़ाई का सपना?” सुधीरजी का स्वर भर्रा गया था. हमेशा पत्नी और बेटी का संबल बने रहने वाले सुधीरजी ख़ुद को बेहद असहाय महसूस कर रहे थे. “मैं नौकरी के साथ-साथ तैयारी भी करती रहूंगी.” वाणी अपने निश्‍चय पर दृढ़ थी. “पढ़ाई, नौकरी सब छोड़िए. मेरे जीते जी आप इसकी शादी कर दीजिए.” साधनाजी बीच में ही बोल पड़ी थीं. वातावरण बहुत भारी हो गया था. अंततः यह तय किया गया कि वाणी फ़िलहाल नौकरी जॉइन करने चली जाएगी. वह परीक्षा की तैयारी भी करती रहेगी, पर इस दरमियान कोई सुयोग्य वर मिल गया, तो उसके हाथ पीले कर दिए जाएंगे. सुधीरजी के कंधों पर यकायक ही ज़िम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया था. साधनाजी शनै: शनै: ठीक हो रही थीं. तबीयत पूछने आनेवालों और नाते-रिश्तेदारों से वे बेटी के लिए सुयोग्य वर बताने का आग्रह करतीं. सुधीरजी ने भी अपने स्तर पर वैवाहिक विज्ञापन आदि देखने आरंभ कर दिए थे. वाणी को अगले सप्ताह मुंबई जॉइन करने जाना था. तय हुआ कि उसकी अनुपस्थिति में आभा मौसी कुछ दिन मां के पास रहने आ जाएंगी. सब कुछ ठीक हो रहा था, पर इस कुछ महीनों के घटनाक्रम ने सुधीरजी को हिलाकर रख दिया था. ज़िंदगी कभी इस तरह करवट ले बैठेगी, उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था. साधनाजी के स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार हो रहा था, पर शारीरिक कमज़ोरी इतनी ज़्यादा थी कि डॉक्टर ने उन्हें किसी भी तरह के तनाव और श्रम से दूर रहने की सख़्त हिदायत दे दी थी. वाणी तय कार्यक्रमानुसार मुंबई चली गई, तो आभा बहन के पास रहने आ गई. बहन के साथ-साथ घर की व्यवस्था भी बाई के सहयोग से उन्होंने संभाल ली. अब तो अस्पताल भी कभी-कभी ही चेकअप के लिए जाना होता था. बाज़ार से ज़रूरी सामान भी फोन करने पर आ जाता था. बाहर से देखने पर सब कुछ सामान्य और व्यवस्थित चल रहा था, पर ऊपर से सामान्य दिखनेवाले सुधीरजी अंदर से इतना टूट चुके थे कि एक कंधे का सहारा भी यदि मिल जाता, तो उसके सहारे भरभराकर ढह जाते. पहले सब कुछ पत्नी को कहकर हल्के हो जानेवाले सुधीरजी अंदर ही अंदर भरते जा रहे थे. ज़िंदगी के इस मोड़ पर अकेले रह जाने का ख़तरा हर व़क्त सिर पर मंडराता प्रतीत होता. कहां तो वे सोचते थे कि उनके ऊंचे ओहदे और बेटी की उच्च शिक्षा के कारण लड़कों की लाइन लग जाएगी और कहां वे उसके लिए एक अदद सुयोग्य वर नहीं जुटा पा रहे थे. उस पर हर व़क्त बीमार पत्नी के सामने ख़ुश, मज़बूत बने रहने का नाटक. “सब ठीक हो जाएगा. तुम बस चिंता करना छोड़ दो. डॉक्टर ने कहा है अगले सप्ताह से तुम्हारी फिज़ियोथेरेपी आरंभ कर देंगे. उससे तुम बहुत जल्द पहले की तरह घूमने-फिरने लगोगी. बस, तुम अच्छे से खाया-पीया करो और ख़ुश रहा करो.” “हां दीदी, जीजाजी ठीक कहते हैं. देखो, इतने दिनों में कैसी सूरत हो गई है, वरना कितनी अच्छी लगती थीं! लोग वाणी की बड़ी बहन कहते थे.” आभा उठकर पुराने एलबम उठा लाई. दोनों बहनें एलबम देखने में खो गईं. सुधीरजी को अकेले गुमसुम बैठे देखा, तो साधनाजी बोल उठीं, आप नीचे वॉक कर आइए न! मेरे पास आभा है. कितना व़क्त हो गया आपको सैर पर गए हुए?” “हं हां! आदत ही छूट गई. ठीक है, मैं घूमकर आता हूं. लौटते में तुम्हारी दवा भी लेता आऊंगा.” सुधीरजी जूते पहनकर सैर पर निकल पड़े थे. सी विंग के सामने से गुज़रे, तो अचानक प्रकाशजी का ख़्याल आ गया. मन में उनसे बतियाने, उनके सम्मुख अपना सुख-दुख उड़ेलने की हूक-सी उठी, पर अपने विगत के व्यवहार का ख़्याल आया, तो क़दम स्वतः ही आगे बढ़ गए. तभी पीछे से ‘भाईसाहब’ की पुकार सुन उनके बढ़ते क़दम ठिठक गए. एक महिला हाथ में थैला उठाए उन्हीं की ओर आ रही थी. पीछे-पीछे घिसटते से प्रकाशजी भी थे. वे काफ़ी कमज़ोर और थके-थके से लग रहे थे. “अरे क्या हो गया आपको? तबीयत तो ठीक है न?” यह भी पढ़े: कहीं आपको भी तनाव का संक्रमण तो नहीं हुआ है? (Health Alert: Stress Is Contagious) “कहां भाईसाहब! मांजी के जाने के बाद ये तो संभल ही नहीं पा रहे हैं. मैं तो समझा समझाकर थक गई. मांजी से बहुत जुड़ाव था इनका!” “ओह, कब हुआ यह सब?” “पूरे 20 दिन होने को आए हैं. न तो वापस काम पर जाना आरंभ किया है, न और कहीं. आज बड़ी मुश्किल से साथ ले जाकर घर का ज़रूरी सामान लेकर आई हूं. आप ही समझाइए इन्हें ऐसे कैसे चलेगा? जाना तो एक दिन सभी को है.” निर्मलाजी ने बिना रुके एक ही बार में मन की व्यथा बयां कर दी थी. “मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. दरअसल मैं स्वयं भी कुछ व्यक्तिगत परेशानियों में उलझा हुआ था...” “अरे, ये सब सुनाने के लिए थोड़े ही न रुकवाया था इन्हें. तुम भी न! आइए सर, घर चलिए. चाय पीते हुए इत्मीनान से बातें करेंगे.” “हां हां!” प्रकाशजी तुरंत साथ हो लिए थे. मानो निमंत्रण के इंतज़ार में ही बैठे थे. “आप कुछ परेशानियों की बात कर रहे थे. क्या हो गया? दरअसल गांव से मां को लाने के बाद उनके इलाज में इतना उलझा रहा कि आसपास से बेख़बर ही हो गया और फिर भी उन्हें बचा न सका.” चाय की गरम प्याली के साथ वार्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. दोनों के पास एक-दूसरे को बताने के लिए बहुत कुछ था. सुधीरजी ने बेटी की मुंबई में नौकरी, उसके लिए उपयुक्त वर की खोज, पत्नी की बीमारी आदि के बारे में खुलकर बताया. तभी गरम पकौड़ों की प्लेट लिए शिल्पी भीतर प्रविष्ट हुई. “मेरी भतीजी शिल्पी! पास ही नारायणा अस्पताल में फिज़ियोथेरेपिस्ट है.” “अच्छा! डॉक्टर ने साधना को भी फिज़ियोथेरेपी के लिए बोला है. मैं आपको रिपोर्ट्स दिखाऊंगा. आप प्लीज़ उन्हें घर आकर करवा दीजिए.” शिल्पी के हां करते ही सुधीरजी ने राहत की सांस ली. “एक मसला तो हल हुआ. प्रकाश, तुमने कोई नौकरी जॉइन की है?” “पास ही एक प्राइवेट फमर्र् है. अच्छा व़क्त निकल जाता है. चार पैसे मिलते हैं सो अलग. आप करना चाहेंगे सर?” “सर कहकर शर्मिंदा न करो. अब हम दो सेवानिवृत दोस्त हैं. वैसे बात करना वहां, मेरे लायक कुछ काम हो तो!” “जी! एक और बात भी कब से कहना चाह रहा था. छोटा मुंह बड़ी बात होगी. पर आज अवसर मिला है, तो कहे देता हूं. हम दोनों को ही आपकी बेटी वाणी अपने बेटे के लिए बहुत पसंद है.” ख़ुशी से सुधीरजी की आंखें नम हो आई थीं. काश! उन्होंने चाय का निमंत्रण पहले स्वीकार लिया होता. सही कहा गया है कि बांटने से सुख बढ़ता है और दुख घटता है. इसीलिए जब कोई आपको एक कप चाय के लिए आमंत्रित करता है, तो इसका तात्पर्य है कि वह आपके साथ ज़िंदगी के वे पल बांटना चाहता है, जो अभी तक अनकहे, अनसुने हैं. वह कुछ आपकी सुनना, तो कुछ अपनी सुनाना चाहता है. लौटते में उनका मन फूल-सा हल्का था. एक कप चाय के साथ वे चीनी-सी मीठी यादें और चायपत्ती-सी कड़वी दुखभरी बातें, जो शेयर कर आए थे.   Anil Mathur      अनिल माथुर

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