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कहानी- इमोशनल अत्याचार (Story- Emotional Atyachar)

Hindi Short Story

वह सोचने लगी, ‘ये क्या हो गया? मेरे हाड-मांस के शरीर से ऐसी मशीनों का जन्म कैसे हो गया? नमन, मैंने तो तुम्हें तब भी प्यार किया, तुम पर अपनी ममता लुटाई, जब तुम्हें मैंने देखा भी नहीं था, जब तुम मेरे पेट में थे. आज मेरे बच्चे मेरे प्यार, मेरी भावनाओं को अत्याचार समझ रहे हैं.’ सुषमा बस सोचती जा रही थी, ‘कहीं यह मशीनी शिक्षा मेरे बच्चों को स्कूल-कॉलेजों से तो नहीं मिली, या फिर यह कोई विज्ञान का नया आविष्कार है, जो मनुष्यों को मशीन बनाने में लगा है. अगर ऐसा होता रहा, तो कुछ सालों बाद हम जैसे इमोशनल फूल्स स़िर्फ वृद्धाश्रमों में दिखेंगे और घरों में रहेंगी यही मशीनें.’

 

समाज बदल रहा है, सामाजिक विचारधारा करवट ले रही है, यह तो हम सभी जानते हैं, पर क्या हम यह जानते हैं कि हमारे इस समाज के समानांतर एक और नया समाज भी बन गया है, जिसके अपने नियम और क़ायदे-क़ानून हैं. यह समाज अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चलता है, यह समाज है युवाओं का, किशोरों का... इस सो-कॉल्ड मॉडर्न, टेक्नोक्रेट, अवेयर्ड सोसायटी के पास एक्सपोज़र तो बहुत ज़्यादा है, पर इस एक्सपोज़र को सकारात्मक दिशा देनेवाला कोई नहीं. यह तो हम सभी जानते हैं कि दिशाहीन व्यक्ति अक्सर रास्ता भटक जाता है. पर युवा वर्ग ऐसा नहीं मानता, उनके लिए तो यह एक उन्मुक्त, उन्माद से भरपूर उड़ान है और अगर इन्हें सही दिशा देने की कोशिश करें तो उसे ये लोग कहते हैं, ‘इमोशनल अत्याचार’.
“आपने कभी शांत, चुपचाप खड़े गधे को देखा है. आप और हम आजकल बस वैसे ही दिखते हैं. कोई कुछ भी कहे, कितना भी प्रताड़ित करे, बस अपना काम करते जाओ. वो इन बच्चों की भाषा में क्या कहते हैं ‘जैक ऑफ़ ऑल’..." यह है लगभग 40-45 साल की सुषमा, जो एक प्राइवेट फर्म में मैनेजर है और साथ ही थोड़ी खिन्न भी, किसी टीवी चैनल की तरह पलभर में बदलती युवाओं की इस सोसायटी से. उसकी इस तरह की बातों को सुनकर उसके पति संभव ने कहा, “क्या हुआ, क्यों इस तरह की बातें कर रही हो?” उसने कहा, “आपको पता है आज ऑफ़िस में हमारे साथ काम करनेवाले एक लड़के के सिर में बहुत दर्द था. रह-रहकर बेचारा बेचैन हो रहा था. मुझसे देखा न गया, इसलिए मैंने उससे कहा कि बेटा, अगर तकलीफ़ ज़्यादा हो रही है तो हाफ डे लेकर घर चले जाओ. इस पर उसने क्या कहा आपको पता है? ‘ओह, नो थैंक्स मैम, थोड़ी देर में ठीक हो जाऊंगा. मेरे ख़याल से आप बहुत ही इमोशनल हैं.’ सामने इमोशनल कहते हैं और पीठ पीछे इमोशनल फूल...”
“तो क्या ग़लत कहा उसने? आपने बात ही ऐसी की.” कॉलेज से घर आई उनकी 15 साल की बेटी नमिता ने कहा. सुषमा ने कहा, “तो क्या तुम्हें भी लगता है कि मैं इमोशनल फूल हूं?” “ममा, अपने सब-ऑर्डिनेट से इतना अटैच होने की क्या ज़रूरत है? उस पर इतनी ममता बरसाओगी तो लोग फूल नहीं, तो क्या कूल कहेंगे.” और वह हंसते हुए वहां से चली गई. सुषमा ने अपने पति से कहा, “आपको नहीं लगता कि जनरेशन गैप आज गैप न होकर कोई खाई या कुआं बन गई है. अगर इतनी आर्द्रता, इतने संवेदनशील हम नहीं रहे तो एक दिन मशीन बन जाएंगे. मुझे तो कभी-कभी सोचकर घबराहट होने लगती है कि हमारे बच्चे सुरक्षित तो हैं न?” हमेशा की ही तरह सुषमा के पति ने उसके कंधे पर एक सांत्वना भरा हाथ रखा और कहा, “छोड़ो यह सब बातें, सब कुछ ठीक है.”
“सब कुछ ठीक है?” सुषमा का मन बेचैन था, इस बात को मानने को तैयार न था, उसके मन में किसी बड़ी अनहोनी की आशंका थी. यह सब सोचते हुए उसे ख़याल आया कि उसके 18 साल के बेटे नमन का आज टेस्ट था. पेपर कैसा हुआ यह पूछने के लिए उसने उसके कमरे की ओर रुख़ किया. सुषमा ने कमरे का दरवाज़ा खटखटाया. सुषमा ने कहा, “नमन बेटा, पेपर कैसा हुआ?” नमन ने उल्टा ही जवाब दिया, “कैसा क्या हुआ, अच्छा ही हुआ. ममा, आपके जनरेशन की यही तो प्रॉब्लम है कि आप हर चीज़ को लेकर इमोशनल हैं. अब टेस्ट, एग्ज़ाम्स यह कोई इमोशनल होनेवाली चीज़ें हैं क्या? आप इतने से टेस्ट के बारे में किसी फ़िल्मी मां की तरह पूछने क्यों आ जाती हैं?” इस पर सुषमा ने कहा, “बेटा, मां का प्यार क्या अब स़िर्फ फिल्मों और टीवी तक ही सीमित हो गया है? टीवी के रिएलिटी शो में किसी प्रतिस्पर्धी के हारने पर, उसे रोता-बिलखता देखने पर तुम्हें भी रोना आ जाता है, पर घर में मां अगर भावुक हो जाए तो...” नमन ने बात बीच में काटते हुए चिढ़कर कहा, “ममा, यू आर इंपॉसिबल, क्या इमोशनल अत्याचार है यार?”
“भावनाएं भी अत्याचार कर सकती हैं?” सुषमा ने कहा, “बेटा, प्रैक्टिकल होना अच्छी बात है, पर असंवेदनशील होना चिंताजनक है. आज तुम लोग असंवेदनशील होते जा रहे हो.”
“ममा ऐसा आपको लगता है, पर दुनिया आपके समय जैसी नहीं रही. मुझे भी आगे चलकर मल्टीनेशनल्स में काम करना है, करियर बनाना है, पैसा कमाना है. अगर मैं आप लोगों की तरह रोते-धोते बैठ गया, तो प्रतियोगिता से बाहर हो जाऊंगा.” नमन ने जवाब दिया.
सुषमा ने कहा, “मैं जानती हूं बेटा और समझ भी सकती हूं, पर हमें अपने उन गुण-धर्मों को तो सहेजकर रखना चाहिए, जो हमें जानवरों से अलग करते हैं.”
नमन ने कहा, “ममा, आपकी जनरेशन न हमारे प्रॉब्लम्स समझ सकती है और न ही समझने की कोशिश करती है. आप लोग क्यों चाहते हैं कि आपकी चीज़ों को हम आज अपने कंधों पर ढोएं, इमोशनल फूल्स.” जो शब्द आज तक सुषमा ने पीठ पीछे सुना था आज उसी शब्द को मुंह पर भी सुन लिया.
सुषमा सकते में थी. वह कॉफी का मग उठाए छत पर चली गई, शायद कुछ समय स़िर्फ अपनी भावनाओं के साथ बिताना चाहती थी, जिसे अभी-अभी उसके बेटे ने मूर्खताभरा साबित कर दिया था. वह सोचने लगी, ये क्या हो गया? मेरे हाड-मांस के शरीर से ऐसी मशीनों का जन्म कैसे हो गया? नमन मैंने तो तुम्हें तब भी प्यार किया, तुम पर अपनी ममता लुटाई, जब तुम्हें मैंने देखा भी नहीं था, जब तुम मेरे पेट में थे. आज मेरे बच्चे मेरे प्यार, मेरी भावनाओं को अत्याचार समझ रहे हैं. सुषमा बस सोचती जा रही थी.
कहीं यह मशीनी शिक्षा मेरे बच्चों को स्कूल-कॉलेजों से तो नहीं मिली, या फिर यह कोई विज्ञान का नया आविष्कार है, जो मनुष्यों को मशीन बनाने में लगा है. अगर ऐसा होता रहा तो कुछ सालों बाद हम जैसे इमोशनल फूल्स स़िर्फ वृद्धाश्रमों में दिखेंगे और घरों में रहेंगी यही मशीनें. आज सुषमा को विज्ञान की रीज़निंग पावर पर ग़ुस्सा आ रहा था. वह सोच रही थी कि विज्ञान ने हर चीज़ का कारण बता दिया है और यह भी बता दिया है कि बिना कारण के कोई भी चीज़ नहीं होती है, अगर कोई रो रहा है, या फिर ख़ुश है, तो विज्ञान झट से बता देगा कि इसके पीछे कौन-सा केमिकल रिएक्शन काम कर रहा है. विज्ञान हम इंसानों को बख़्श क्यों नहीं देता? कितने अच्छे दिन थे वो जब इंसानों की भावनाओं की नमी उनके चेहरे पर भी झलकती थी और आंखों से बहती भी थी. तब लोग इन आंसुओं का सम्मान भी करते थे.
“ममा... ममा... क्या सोच रही हो?” नमिता ने अपनी ममा के अतीत प्रवास पर रोक लगाई. “ममा आपकी कॉफी तो ठंडी हो गई.” सुषमा ने जवाब दिया, “हां, बिल्कुल तुम लोगों की ही तरह, तुम भी तो कितने ठंडे हो गए हो, भावनाओं की गर्माहट बिल्कुल ख़त्म हो गई है.”
नमिता ने कहा, “छोड़ो न ममा, मैंने आपकी और नमन भइया की बातें सुनी हैं, कब तक आप ऐसे कुढ़ते रहोगे और हमारी पीढ़ी को कोसते रहोगे?”
सुषमा ने अपनी बेटी का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, “बेटा, मैं क्यों कोसूंगी, इस नई पीढ़ी को जन्म हमने ही तो दिया है. यह हमारी अपनी है. मैं तो बस तुम दोनों को प्यार, विश्‍वास, संयम, सहजता, सरलता के उस समंदर में ले जाना चाहती हूं, जिससे हमारी पीढ़ी तर-बतर है.”
नमिता बोली, “ममा, यह नॉवेलवाले डायलॉग्स बस करो, आप क्यों नहीं समझतीं कि आज दुनिया बदल गई है.” उसकी बात बीच में काटते हुए सुषमा ने कहा, “कितनी बदल गई है बताओ? ऐसा क्या बदलाव आया है इन बीस सालों में. कुछ नहीं बदला नम्मू, तुम लोगों ने ख़ुद को बदल दिया है, अपने आपको विचारों से, नैतिक-अनैतिक के ज्ञान से, समाज से काट दिया है, तुम लोग आज सेल्फ़ सेंटर्ड हो गए हो, ज़िम्मेदारियों से कतराते हो. उन्मुक्त रहना चाहते हो, पर यह नहीं जानते उन्मुक्तता में उन्माद नहीं होता.
हमारे व़क़्त काम की जगह पर प्रो़फेशनल़िज़्म तो था ही, पर साथ ही इमोशनल़िज़्म भी था. अगर किसी की तऱक़्क़ी होती तो हम सब ख़ुश होते और अगर किसी को कोई दुख है या मुश्किल है तो हम सब मिलकर उसकी मदद करते.”
“आपकी कोई भी दलील मुझे कंविंस नहीं कर पा रही है ममा.” नमिता ने कहा, “अगर हम अपने कलीग की तऱक़्क़ी से ख़ुश और उसके दुखों पर रोते रहे तो हम तऱक़्क़ी कैसे करेंगे?”
सुषमा ने कहा, “तुम लोगों को आज ख़ुद की सफलता से ज़्यादा विश्‍वास दूसरों की असफलता पर है, अपनी क़ाबिलियत से ज़्यादा विश्‍वास दूसरों की नाक़ाबिलियत पर है.” नमिता बोली, “ओह ममा, बस करो. बात कहां से कहां पहुंच गईं? मुझे लगता है आप स्ट्रेस में हैं और गंभीर रूप से किसी मानसिक बीमारी की शिकार होती जा रही हैं, हम कल ही किसी अच्छे मनोवैज्ञानिक के पास जाएंगे.” इतना कहकर नमिता तो वहां से चली गई, पर सुषमा यह सब समझ ही नहीं पा रही थी. उसे ऐसा लग रहा था मानो भूतकाल और वर्तमान में कोई तालमेल ही नहीं रहा. वह अपनी ठंडी कॉफी लिए नीचे उतर आई.
अगली सुबह सुषमा नाश्ते के टेबल पर अनमने ढंग से बैठी हुई थी. उसके मन का द्वंद्व, उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा था. सुषमा कुछ सोच रही थी, ‘कहीं मैं ही तो ग़लत नहीं? कहीं नमन और नमिता की सोच सही तो नहीं?’ तभी सुषमा के पति ने आकर उसके हाथ पर हाथ रखा. संभव ने कहा, “क्या हुआ सुषमा, तुम इतनी बेचैन क्यों हो?”
तभी नमिता अंदर से तैयार होकर एक बैग हाथ में लिए हुए बाहर आई, “मैं अपने दोस्तों के साथ गोवा जा रही हूं.” उसने कहा. सुषमा ने पूछा, “कौन दोस्त?”
नमिता ने जवाब दिया, “ममा प्लीज़, आप इन सब से दूर रहें. पापा, मैं दो दिन में लौट आऊंगी. और ममा आते ही हमें डॉक्टर के पास जाना है याद है न?”
सुषमा को संभव ने समझाया, “मैं तुम्हारी स्थिति समझ रहा हूं, सब ठीक हो जाएगा. बच्चे बस थोड़ी स्वतंत्रता चाहते हैं और वह उन्हें हमें देनी चाहिए.” सुषमा ने सहमती तो जताई, पर वह अब भी बेचैन थी.
देखते ही देखते दो दिन बीत गए और दरवाज़े पर दस्तक हुई. सुषमा दौड़ती हुई दरवाज़ा खोलने पहुंची. दरवाज़े पर नमिता खड़ी थी. सुषमा ने उसे गले लगाया और कहा, “तू ठीक है न? मैं बहुत ख़ुश हूं कि तू ठीक-ठाक घर वापस आ गई.”
नमिता ने कहा, “ममा, आप तो ऐसे ख़ुश हो रही हैं जैसे मैं कारगिल की लड़ाई से ज़िंदा वापस लौटी हूं.” संभव ने सुषमा से कहा, “देखा सुषमा, कुछ नहीं हुआ. हमें अपने बच्चों पर विश्‍वास करना चाहिए. हां, मैं मानता हूं कि हमें उनकी फ़िक्र है, पर इन सब चीज़ों को किसी राक्षस की भांति डरावना मत बनाओ, जिससे बच्चे डरते फिरें.”
सुषमा इस बार पूरे मन से सहमत थी. तभी बाहर से नमन आया, जो बहुत डिस्टर्ब लग रहा था. वह सीधा अपने कमरे की ओर गया. सुषमा ने पीछे से आवाज़ भी लगाई, पर वह अनसुना कर निकल गया. नमन को इतना टेंशन में देख सभी उसके पीछे चल पड़े. सभी नमन को दरवाज़ा खोलने के लिए कह रहे थे. काफ़ी देर तक जब दरवाज़ा न खुला, तो संभव ने दरवाज़ा तोड़ दिया. नमन कमरे के एक कोने में ब्लेड लेकर बैठा था. सुषमा को समझ में आ गया कि वह क्या करना चाहता है. सुषमा ने मौ़के की नज़ाक़त समझी और नमन को लेकर छत पर गई.
काफ़ी देर तक नमन चुपचाप अपनी मां को पकड़कर बैठा रहा. तभी नमिता भी वहां आई, उसने पानी का ग्लास नमन को दिया. नमन को उसका मन कचोट रहा था, बिना किसी के पूछे ही उसने बताना शुरू किया, “ममा, मैं जीना नहीं चाहता, आपको पता है इंजीनियरिंग में मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ, मैं प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया.”
सुषमा ने कहा, “बेटा, बस इसी बात का मुझे हमेशा डर लग रहा था. मुझे पता था तुम ऐसा ही कुछ करोगे. किसी परीक्षा की सफलता... बस यही वजह है तुम्हारे जीने की. तुम जानते हो जीवन कितना ख़ूबसूरत है और आज इतनी छोटी-सी वजह से तुम उसे ही ख़त्म करने चले थे.”
नमन आश्‍चर्यचकित था. उसने कहा, “ममा आप नाराज़ नहीं हैं? मुझे लगा आपको बुरा लगेगा, आपने और पापा ने मेरी ट्यूशंस पर कितना ख़र्च किया था. आपकी अपेक्षाएं थीं.”
सुषमा ने बात काटते हुए कहा, “बेटा, अपेक्षाएं नहीं, उम्मीदें थीं, जो अगर इस बार पूरी नहीं हुईं, तो अगली बार हो जाएंगी. इसलिए मैं कहती हूं कि तुम लोग असंवेदनशील हो और इसलिए अविवेकी, अविचारी हो. या फिर कठोर दिखने का, होने का नाटक करते हो, ताकि बाहर की प्रतियोगिता में निर्ममता से पेश आ सको. बेटा बस अब रुक जाओ, ख़ुद की भावनाओं और मानसिकता से इस तरह मत खेलो. भावुकता किसी भी सामान्य व्यक्ति की स्वस्थ मानसिकता की दरकार है. अपनी भावनाओं को खुले दिल से व्यक्त करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए. जितनी अच्छी तरह तुम अपनी भावनाओं को व्यक्त करोगे, उतने ही अंदर से मज़बूत हो जाओगे.
आज तुम जैसे नहीं हो, वैसा होने का अभिनय करते हो. अपनी भावनाओं को अपनी ताक़त बनाओ, उन्हें सुदृढ़ बनाओ. भावनाओं को दबाओ मत, उन्हें नियंत्रित करो. इससे तुम्हारी इच्छा शक्ति मज़बूत होगी. हमसे बात करो, अपनी समस्याओं पर हमसे चर्चा करो, ताकि तुम्हारे भीतर भावनाओं का ग़ुबार न बन जाए, ताकि तुम इसके आगे कभी कोई अविचारी निर्णय न लो.”
सुषमा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “बेटा, तुम्हें हर व़क़्त यह याद होना चाहिए कि तुम्हारे साथ आज हम जुड़े हुए हैं, तुम्हारे जीवन पर स़िर्फ तुम्हारा अधिकार नहीं है. सबसे पहले ख़ुद की भावनाओं का सम्मान करना सीखो, तभी दूसरों की भी भावनाओं का सम्मान कर पाओगे. समाज में सामाजिक होकर विचरने में समझदारी है, जब-जब समाज को ‘इमोशनल फूल’ कहकर क़दम बाहर रखोगे, विसंगतियां और वीभत्सता बढ़ती हुई नज़र आएगी. हम अगर एक-दूसरे का हाथ थाम विश्‍वास के साथ आगे बढ़ें, तो कभी भी ख़ुद को कमज़ोर नहीं पाएंगे. भावनाओं से डरो मत, उन्हें संतुलित रखो.” सुषमा ने देखा नमन उसकी गोद में सो चुका था. पर कल के सूर्योदय को लेकर वह काफ़ी उत्साहित थी. उसने तय किया कि अगर नमन दो क़दम पीछे आने को तैयार है, तो वह भी ज़रूर दो क़दम आगे बढ़ाएगी और अपने भीतर का प्रेम और विश्‍वास बच्चों के भीतर भी जगाएगी.

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