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हिंदी कहानी- गोरबन्द (Story- Gorband)

Short Story, Gorband “नारायण, वो ऊंटों के गले में पहनी जानेवाली ज्वेलरी को क्या कहते हैं?” नारायण ने अचकचाकर नैन्सी को देखा और तल्ख़ी से कह बैठा, “ओह नैन्सी! मैं ऊंटों के शहर में पैदा हुआ हूं, ऊंटों के कुनबे में नहीं.” पूरी चाय पार्टी हंसी के ठहाकों से गूंज उठी. रुणक-झुणक... रुणक-झुणक... की दूर से आती आवाज़ ने नारायण को नींद से जगा दिया. नारायण उचककर बिस्तर पर बैठ गया और उसने अपने बिस्तर के दाएं हाथवाली खिड़की के लकड़ी के नक्काशीदार पल्लों पर टिकी सांकल को खोल दिया. चूं...चप्प... चूं... की आवाज़ के साथ लकड़ी के पल्ले खुले, तो सुबह की फागुनी बयार का एक टुकड़ा भर उसके चेहरे को छूने के लिए काफ़ी था. परदादाजी की बनाई ख़ूबसूरत हवेली के वास्तु शिल्प के लिए धन्यवाद देता कि इससे पहले ही रुणक-झुणक की आवाज़ और नज़दीक आ चुकी थी. ऊंटों का काफ़िला था. सजे-धजे ऊंट, उनकी पीठ पर नक्काशी, कहीं फूल, तो कहीं पत्ती... कहीं नाम लिखे-लाल, नीले, गुलाबी मखमली कपड़े पर कांच और गोटे का काम की हुई दुशाला ओढ़े हुए... गले में गोरबन्द... उसमें जड़ी घंटियां और पैरों में बंधे घुंघरुओं की रुणक-झुणक नारायण को आज कितना बेचैन कर रही थी. नारायण उस छोटे से झरोखे से तब तक देखता रहा, जब तक काफ़िला भादाणियों की पिरोल से गोगा गेट की तरफ़ कूच नहीं कर गया. शायद लक्ष्मीनाथजी की घाटी की तरफ़ जा रहा हो... शायद फाल्गुन का कोई कार्यक्रम हो या किसी का ब्याह हो... आज नारायण ऊंटों के बारे में इतना क्यों सोच रहा था? पिछले 25 साल से बीकानेर में पला-बढ़ा हुआ नारायण इसी हवेली के ऊपर-नीचे तलों में भागता-दौड़ता... शहर की तंग गलियों में गुल्ली-डंडा खेलता, तो कभी कंचे... ऊंटों की आवा-जाही उसके खेल में बाधा ही बनी. सतौलियों की मीनार पर निशाना लगाने के ऐन वक़्त पर ऊंटों का गली में आना... बच्चों का एक साथ कहना, “रामजी भली कीजै” और ऊंट के अगले पैर सतौलिये की मीनार को छुए भी ना, पर पिछले पैर का सतौलिये की सातों ठीकरियों को गिरा देना... नारायण का गेंद हाथ में लिए रह जाना और बच्चों का हो.. हो.. करके नाचना... नारायण को बचपन में भले ही अच्छा ना लगा हो, पर आज वो सब याद करके उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई थी. उसे वह भी याद आ रहा था, जब जस्सुसर गेट के बाहर अपने विद्यालय जाते हुए ऊंट गाड़ा मिल जाता, तो पहले वो गाड़े के पीछे लकड़ी के खूंटे पर अपना बैग टांगते, फिर स्कूल के तीन-चार बच्चों के साथ चलते हुए गाड़े पर ही चढ़ने की कोशिश करते. ऊंट गाड़ेवाला देखता तो ग़ुस्सा करता. उन्हें चढ़ने से तो रोकता ही, साथ ही खूंटे पर टंगे बैग भी उतरवा देता. लेकिन कभी गाड़ा चालक सहृदय होता, तो वो बच्चों को अपना हाथ आगे दे देता. बच्चे कभी अपना हाथ, कभी कलाई, तो कभी बांह देकर गाड़े पर चढ़ जाते और हो.. हो.. का हल्ला, ऊंट गाड़े को तेज़ चलाने का एक ख़ूबसूरत उपक्रम बन जाता. नारायण को आज यह भी याद आ रहा था कि उसकी मां कितनी ख़ूबसूरती से सुरीली आवाज़ में गोरबन्द गीत सुनाती थी- ‘लड़ली लूमा झूमा ए... म्हारो गोरबन्द नखरालो...आलीजा म्हारो गोरबन्द नखरालो...’ आज तक उसने कभी गीत पर ध्यान ही नहीं दिया था. आज क्यों इस गीत को और गहरे में जानने की उत्कंठा हुई थी. नेट सर्फिंग पर जाए या सीधा मां से ही पूछ ले... वो ख़ुद ही मुस्कुरा दिया था अपनी इस मुहिम पर. नारायण बिस्तर छोड़कर उठा. पांच फुट के हवेली के दरवाज़े से उसे हमेशा झुककर निकलना पड़ता है. शुक्र है सालभर में वो भूला नहीं, वरना आज सिर टकराता. आंगन में कबूतरों को दाना बिखेरती मां के पीछे से गलबहियां डालते नारायण कहता है, “मां, गोरबन्द सुनाओ ना...” “क्यों? क्या होय्यो?” मां की सुरीली आवाज़ उभरती है. नारायण उत्तर देने की बजाय कहता है, “मां, अर्थ भी बताओ ना...” मां नारायण के सिर पर हाथ फेरते हुए बताने लगती है कि गोरबन्द लूम-झूम और लड़ियों से बना कैसे नखरीला बन जाता है. कैसे देवरानी और जेठानी मिलकर इसे गूंथती हैं. ननद सच्चे मोती पिरोती है. कैसे घर की स्त्रियां गाय चराते हुए इसे गूंथती हैं और भैंस चराते हुए सच्चे मोती पिरोती हैं. अपनी बात ख़त्म करते हुए मां नारायण के सिर पर चपत लगाते हुए पूछती है, “आज तनै कईंया याद आयो मारो आ गोरबन्द नखरालो?” नारायण हंसकर भाग जाता है. वो कैसे बताए कि इस बार वो अपनी सभ्यता और संस्कृति की सारी पड़ताल करके जानेवाला है. पिछले साल से कुछ सॉफ्टवेयर पर नारायण हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में रिसर्च कर रहा है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, इतनी दूर, सात समंदर पार यानी अमेरिका... मूंदड़ों के ट्रस्टी स्कूल में पढ़ा नारायण यूं अमेरिका पहुंच जाएगा पढ़ने, उसने कभी सोचा भी न था. बीकानेर शहर छोड़कर जाने से पहले उसे कितनी आशंकाएं थीं. यूरोपीय देशों की खुली संस्कृति, खानपान, भाषा-पहनावा सब कुछ इतर... उस पर घर, शहर, मां-बाबा, भाई-बहन, यार-भायले सबसे दूरी... एक अनजाना डर पैदा कर रही थी. अमेरिका के कैम्ब्रिज शहर में आकर आशंकाओं का भंवर धीरे-धीरे कम होने लगा. भय का औरा भी उस नई संस्कृति के आभा-मंडल के साथ एक सार होता दिखाई दे रहा था. पहले ही दिन क्लास में प्रोफेसर ने विद्यार्थियों का अनोखा परिचय लिया था. हर विद्यार्थी को दीवार पर टंगे बड़े से विश्‍व के नक्शे पर बोर्ड पिन मार्क करनी थी, जहां से वो आया है. दुनियाभर से 35 बच्चे थे. चीन से 10, अफ्रीका से 5, ब्राजील से 2, नाइजीरिया से 3 और भी ना जाने कितने छोटे-छोटे से देशों से एक-एक विद्यार्थी थे. जब नारायण ने भारत के नक्शे के पश्‍चिमी तरफ़ थोड़ा उत्तर की तरफ़ पिन को लगाने से पहले अपने बीकानेर के बिंदु को ध्यानपूर्वक देखा और बड़े आत्मविश्‍वास के साथ बोला, “आई एम फ्रॉम इंडिया.” क्लास में तालियां बजीं, तो दक्षिणी अमेरिका की नैन्सी बोली, “ओह! डेज़र्ट पार्ट ऑफ इंडिया.” नारायण ने उसे चौंककर देखा. नारायण ने तो केवल इंडियन होने का परिचय ही दिया था. वो कैसे जान गई कि वो भारत के रेगिस्तानी हिस्से से आया है, जबकि वो ख़ुद बहुत कम जानता है अपने देश के बारे में. नई क्लास के नए विद्यार्थियों के बीच परिचय के दौर कतरा-कतरा बढ़ते रहे. नैन्सी हर दौर में नारायण को मुस्कुराकर देखती और कोई ना कोई जुमला उछाल देती, “ओह! यू आर फ्रॉम कलरफुल इंडिया?” तो कभी कहती, “यू आर फ्रॉम प्लेस ऑफ कैमल?” तो कभी कहती, “आइ लाइक कैमल?” नारायण भी इस वैश्‍विक संस्कृति के वातावरण में घुलता जा रहा था. वो कई बार आश्‍चर्यचकित हो जाता था कि अन्य देशों के 20-22 साल के बच्चे अपनी सभ्यता और संस्कृति में तो रचे-बसे हैं ही, पर दूसरे देशों की संस्कृति को जानने को भी आतुर रहते हैं. वो अपनी संस्कृति का तो सम्मान करते हैं, साथ ही उतना ही दूसरे देशों की सभ्यता व संस्कृति का भी सम्मान करते हैं. पर नैन्सी में कुछ अलग ही बात थी. क्लास में वो हमेशा चहकती दिखाई देती थी. हमेशा नए प्रयोगों के लिए तैयार... नए विचारों को स्वीकार करने...नई संकल्पनाओं को अपने जीवन में लागू करने को आतुर नैन्सी का व्यक्तित्व रोमांच भरा लगता. “नारायण, तुम्हारे शहर में कितने ऊंट होंगे?” एक दिन नैन्सी के इस अटपटे सवाल से वो हक्का-बक्का रह गया था. भला उसने कभी ऊंट गिने थे?  “मैं कोई ऊंटों की रिसर्च करके नहीं आया.” नारायण अपना जुमला उछाल देता. “अच्छा, ये बताओ उसके पैरों में सचमुच डनलप जैसा एहसास होता है?” नैन्सी प्रश्‍न करती, तो पूरी क्लास हंस देती. नारायण भी सोचता केवल मज़ाकभर है नैन्सी के ये अटपटे सवाल. वो सोचता कि दूसरे देशों की सभ्यता व संस्कृति को जानने की जुगत में वो इतने प्रश्‍न कर जाती है. कभी-कभी नारायण उसे कहता, “एनफ नैन्सी! बस मुझे और नहीं मालूम.” क्लास की साप्ताहिक चाय पार्टी में नैन्सी का हमेशा एक सवाल ऊंटों पर अवश्य होता. उस दिन दिसंबर की कड़कती ठंड में नैन्सी का सवाल था, “नारायण, वो ऊंटों के गले में पहनी जानेवाली ज्वेलरी को क्या कहते हैं?” नारायण ने अचकचाकर नैन्सी को देखा और तल्ख़ी से कह बैठा, “ओह नैन्सी! मैं ऊंटों के शहर में पैदा हुआ हूं. ऊंटों के कुनबे में नहीं.” पूरी चाय पार्टी हंसी के ठहाकों से गूंज उठी. नैन्सी उसके क़रीब आकर बोली, “उसे गोरबन्द कहते हैं... नारायण!” नारायण की आंखें आश्‍चर्य से फैल गईं. गोरबन्द तो उसकी मां गीत में गाती है. उसने कभी इतनी गहराई से सोचा ही नहीं कि वो ऊंटों के गले में पहननेवाली ज्वेलरी है. ऊंटों के गले की ज्वेलरी... नारायण अपने कमरे में आकर बुदबुदाया और ख़ुद ही दबी हंसी हंस दिया था. उस दिन नए साल पर क्लास की पार्टी थी. कैम्ब्रिज की सड़कों पर ब़र्फ जमी थी. नैन्सी नहीं पहुंची पार्टी में तो क्लास के सहपाठियों ने नैन्सी को लाने की योजना बनाई. नारायण और जोसेफ प्रोफेसर की कार लेकर निकले. सेंट्रल स्क्वायर पर स्थित नैन्सी के अपार्टमेंट में नारायण नैन्सी के कमरे तक पहुंचा, तो आश्‍चर्यचकित रह गया. नैन्सी की स्टडी टेबल से लेकर शेल्फों और दीवारों तक ऊंटों की उपस्थिति थी. एक तस्वीर में तो ऊंट के गले में सुंदर-सा गोरबन्द भी लटका था. “नैन्सी, ये क्या पागलपन है? इतने ऊंट तुम्हारे कमरे में क्या कर रहे हैं?” नैन्सी बोली, “नारायण, मुझे लगता है कि मैं पिछले जन्म में ऊंटों के प्रदेश में थी. चलो अभी सब इंतज़ार कर रहे हैं क्लास में, बाद में बात करेंगे.” नैन्सी ने अपना ओवरकोट लादा और मफलर लपेटते हुए कहा. जोसेफ बाहर कार में इंतज़ार कर रहा था. कार में एक ख़ामोशी के बीच नारायण के अंदर एक तूफ़ान ने जन्म ले लिया था. फरवरी माह की ख़ुशनुमा शाम थी. नैन्सी और नारायण अपनी लैब से लाइब्रेरी की तरफ़ जा रहे थे. प्रोजेक्ट पर काम करने की बात करते-करते नैन्सी नारायण से बोली, “नारायण, तुम एक ऐसा ऐप नहीं बना सकते, जिसमें कोई व्यक्ति किसी भी देश की वेशभूषा पहनकर अपनी शक्ल देख सके.” “क्या मतलब?” नैन्सी की यह बात नारायण के सिर के ऊपर से गुज़र गई. भले ही वो पिछले एक साल से ना जाने कितने छोटे-बड़े सॉफ्टवेयर के लिए कोड लिख चुका है, पर इस तरह का प्रस्ताव... “ओह नारायण! जैसे तुम्हारे राजस्थान की कुर्ती-कांचली पहनकर, माथे पर बोरला लगाकर, नथ पहनकर, गले में ठुस्सी और हाथों में चूड़ला पहनकर मैं कैसी दिखूंगी... बस, उस ऐप में देख लूं.” नारायण की सांस धौंकनी-सी तेज़ हुई और थमने लगी थी. उसके अगले क़दम लाइब्रेरी की पतली पगडंडी पर पड़े बसंत की लाल-पीले मैपल की पत्तियों पर पड़े, तो चर्र-चर्र की आवाज़ जैसे पूरी सृष्टि ने सुन ली. क्या नैन्सी सचमुच राजस्थान में थी पिछले जन्म में या नेट सर्फिंग के ज़रिए मेरी सभ्यता व संस्कृति में दख़ल दे रही थी... नारायण सोचने को मजबूर था. नैन्सी, क्या बेहतरीन आइडिया है... नारायण चाहकर भी नहीं बोल पाया था. लाइब्रेरी का ख़ामोश क्षेत्र जो आ गया था. दो हफ़्ते बाद नैन्सी का जन्मदिन था. क्लास की साप्ताहिक चर्चा के साथ नैन्सी के लिए क्लास का तोहफ़ा भी था. नारायण भी एक बॉक्स हाथ में दबाए खड़ा था. नारायण ने उसे अपने बेलनाकार कार्ड बॉक्स में से कार्ड निकालकर दिया, तो उसने झटपट उस कार्ड को खोला. नारायण ने बहुत शिद्दत के साथ एक स्केच तैयार किया था...पहले दृश्य में उसे ऊंटों के पैर दिखे, फिर पीठ पर लटकते दुशाले, गर्दन में झूलता गोरबन्द... ऊंट पर नैन्सी. नैन्सी के तन पर कांचली कुर्ती, माथे पर बोरला, नाक में नथ, गले में ठुस्सी, हाथ में चूड़ला और नैन्सी के हाथ में ऊंट की डोर... “वॉव!” के साथ उसकी आंखें फैल गईं, “नारायण... ये तो मरवण है, पर वो ढोला? वो कहां है?... ” नारायण की ख़ामोशी हैरत की सुरंगों से गुज़र रही थी. नैन्सी के मुख से ढोला.. मरवण... का उच्चारण सुनकर नारायण कल्पना के सागर में डूब गया था. पूरे सालभर बाद होली पर बीकानेर आया था नारायण. इस बार वो बीकानेर प्रोजेक्ट लेकर आया था- ऊंटों की रिसर्च का. मां से गोरबन्द सुनकर अर्थ जान रहा है. ऊंटों की क़दम ताल देख रहा है. ऊंटों की गतिविधियां जानने उष्ट्र अनुसंधान केंद्र गया है. कोट गेट पर लाभूजी कटला से राजस्थानी कुर्ती-कांचली का कपड़ा ख़रीद रहा है. “बोरला के लिए काला डोरा दीज्यो.” नारायण का बस यह अंतिम सोपान था ख़रीददारी का. “वठै मिलसी.” दुकानदार ने कोट गेट पर बैठी उन छाबड़ीवाली महिलाओं की तरफ़ इशारा कर दिया. नारायण मुस्कुराता हुआ चल दिया. उसे सजाना ही है मरवण को उस ऐप से बाहर निकलकर... बैठाना ही है ऊंट पर... अगली बार लाना ही है नैन्सी को बीकानेर...        संगीता सेठी

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