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कहानी- किसे अपना कहें (Story- Kise Apna Kahe)

kise apna kahe
मेरी तरह कितनी औरतें विधवा होती हैं. सब रोती नहीं हैं, न ही अपनी बेटियों के घर पड़ी रहती हैं. जीती हैं, व़क़्त से लड़ती हैं, फिर मैं ही क्यों इतनी कमज़ोर पड़ गई हूं. प्रभाजी ने मन और भी पक्का कर लिया कि अब वह लौटकर अमेरिका नहीं आएंगी. आख़िर जिस देश की मिट्टी में उनका सारा जीवन बीता, क्या उसी मिट्टी में मिल जाना उनका धर्म नहीं है.
आंखों में आए आंसुओं को प्रभाजी ने पल्लू से पोंछ लिया. जब भी अकेली होतीं, न जाने कैसे-कैसे ख़याल उन्हें घेर लेते. पति की मृत्यु के बाद न जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि आख़िर कौन-सा घर उनका है. बेटी के पास अमेरिका आए उन्हें पांच साल हो गए. कभी-कभी मन भारत लौट जाने को करता, पर यही सोचकर ख़ामोश हो जाती थीं कि सरला के दोनों छोटे बच्चों की देखभाल कौन करेगा. प्रभाजी की बेटी सरला और दामाद दोनों ही सुबह काम पर निकल जाते और शाम तक घर लौटते. ठंड के दिनों में शिकागो शहर में पांच बजे ही अंधेरा हो जाता था. दिनभर कांच की खिड़कियों से वे बाहर जमी स़फेद ब़र्फ की चादर को देखती रहती थीं. मिशीगन झील का पानी भी जमकर ब़र्फ हो गया था. न अमावस्या का पता लगता, न पूर्णिमा का. एकादशी को तो वह जैसे भूल ही गई थीं. उन्हें रह-रहकर नर्मदा का वह किनारा याद आता था, जहां वह तीज-त्योहार के दिन जाती थीं, सूर्य देवता को जल चढ़ातीं और डुबकी ले हर हर नर्मदे का जाप भी करती थीं. चार बेटों की मां प्रभाजी अपनी बेटी सरला के यहां रह रही थीं- अपने वतन से दूर. बिल्डिंग में एक भी भारतीय परिवार नहीं था, जिनसे बातचीत करके वे अपना मन हल्का कर लें. जब मन बहुत घबराता, तो वह हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठ जातीं. सरला के दोनों बच्चों को उन्होंने अच्छी हिंदी बोलनी सिखा दी थी. बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते और ‘नानी-नानी’ कहकर हमेशा आगे-पीछे लगे रहते. अपना वतन और अपनी मिट्टी भला कब छूटती है. अपने बेटों से मिलने के लिए कभी-कभी प्रभाजी का मन बेहद तड़प उठता था. आज उन्होंने पक्का मन बना लिया था कि शाम को बेटी और दामाद से बात करेंगी कि वे भारत जाना चाहती हैं. खाना तैयार करके दोनों बच्चों को खिला सभी काम निपटा दिए. फिर सोचने लगीं केवल दो माह के लिए ही तो जाना है, सरला चाहे तो बच्चों के लिए बेबी सिटर... इन्हीं सब विचारों में खोई प्रभाजी घंटी की आवाज़ पर चौंक गईं. सरला और उसके पति काम से लौट आए थे. घर पहुंचते ही सरला ने अपने दोनों बच्चों को बांहों में ले लिया और वही रोज़ाना वाला सवाल किया, “नानी को परेशान तो नहीं किया?” सरला ने फिर कहा, “मां, तुमने खाना खा लिया, देखो हमारा इंतज़ार मत किया करो, बच्चों के साथ ही खाना खा लिया करो.” सरला जानती थी कि परदेस में मां के बिना उसका गुज़ारा होना कितना मुश्किल है. वह और उसके पति दोनों ही तो काम करते हैं. मां ने ही तो सौरभ और सुरभि की ज़िम्मेदारी ले रखी है. सरला मन ही मन सोचती- अच्छा ही किया, जो वह मां को अपने साथ अमेरिका ले आई. वहां भारत में वह अपने बेटों और बहुओं के झमेले में फंसी रहती थीं, रोज़-रोज़ की किट-किट से मां को निजात तो मिली, यहां बच्चों के साथ वह कितनी ख़ुश हैं. प्रभाजी बच्चों को साथ लेकर अपने कमरे में चली गईं, पर उन्हें रह-रहकर भारत जाने का विचार सता रहा था. पांच साल हो गए थे उन्हें अपने बेटों से मिले. आख़िरकार उन्होंने हिम्मत बटोर सरला को अपने कमरे में बुला लिया. “बेटी, मुझे भारत गए पांच साल हो गए, तेरे भाइयों की याद आती है. छोटी बहू के बच्चे को भी देखने का मन हो रहा है, तू कहे तो मैं एक बार वहां हो आऊं दो माह के लिए.” सरला को लगा जैसे किसी ने उसे धरती पर पटक दिया हो, गले में जैसे सांस अटक-सी गई हो. “क्या कह रही हो मां... दो माह के लिए. अरे बच्चे किसके पास रहेंगे? तुम तो जानती ही हो यह मेरी नयी नौकरी है. यदि छुट्टी लूंगी तो वह मेरे पैसे काट लेंगे. और हो सकता है मुझे नौकरी से ही निकाल दें.” प्रभाजी ने अपनी आवाज़ को और भी दबाते हुए कहा, “दो माह की तो बात है, तू कोई बेबी सिटर रख लेना. तू कहे तो मैं और भी जल्दी लौट आऊंगी.” “इंडिया जाकर तुम दो माह में कैसे लौट सकती हो? चार बेटों के पास यदि एक-एक माह भी रुको तो चार माह तो यूं ही गुज़र जाएंगे. बैठे-बिठाए तुम्हें न जाने क्या हो गया है मां. आख़िर तुम्हें किस चीज़ की तकलीफ़ है यहां.” सरला ने अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा. “नहीं-नहीं सरला... मुझे तेरे बच्चों की फ़िक्र है, मैं तो यहां बहुत ख़ुश हूं. मैं जल्दी वापस आ जाऊंगी. बस, तू मेरे टिकट का बंदोबस्त करवा दे.” “आपने तो ऐसे कह दिया जैसे मेरे पास पैसों की खान हो, पैसे पेड़ पर तो नहीं उगते, मेहनत करनी पड़ती है. क्रेडिट कार्ड पर भी कितनी उधारी हो गई है. बेबी सिटर मु़फ़्त में तो बच्चों को नहीं संभालेगी, पांच डॉलर घंटे से कम क्या लेगी, मेरी तो पूरी तनख़्वाह इसी में चली जाएगी. फिर हमने तुम्हारे ग्रीन कार्ड पर कितना पैसा ख़र्च किया है. मैं तो अभी तक वही पैसा नहीं उतार पाई हूं.” प्रभाजी पूरी तरह ख़ामोश हो गईं. आंखों में आई आंसुओं की लकीर उन्होंने हथेलियों में कैद कर ली. “ज़रा-सी सच्चाई क्या कह दी तुम तो रोने लगीं, मैंने कुछ ग़लत कहा है क्या? यह अचानक तुम्हें बेटों की याद कैसे सताने लगी? घर के बंटवारे के समय चारों बेटों ने तुम्हारा क्या बुरा हाल किया था याद है तुम्हें? कैसी छीना-झपटी मची थी.” kise apna kahe1 “अरे किस घर में लड़ाई-झगड़े नहीं होते. जब अपने बच्चों की याद आती है, तो मन तो तड़पता ही है. छोटी बहू विभा कितनी बार ख़त लिख चुकी है. बार-बार मुझे बुलाती है. बच्चा सालभर का होनेवाला है, जाकर मैं उसका पहला जन्मदिन मना आऊंगी. अब तो हर चीज़ का बंटवारा हो गया है. लड़ाई-झगड़े के लिए वहां बचा ही क्या है? तू बस मेरी टिकट निकलवा दे, मुझे जाना है, मैंने पक्का सोच लिया है.” कुछ देर सोचते हुए सरला ने कहा, “अच्छा ठीक है, पर सबके लिए कुछ न कुछ ले जाना भी तो होगा, वरना चारों भाभियां मुंह बना लेंगी. मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं. ताना देंगी- ‘अरे, हमारे लिए नहीं लाई तो कम से कम कुछ पोते-पोतियों के लिए ही ले आती. कल क्रिसमस सेल पर से कुछ ची़ज़ें ले आऊंगी. सस्ता सामान मिल जाएगा और तुम्हारी टिकट भी पता कर लूंगी, अब तुम सो जाओ मां.” मां भारत जाना चाहती है, यह बात सरला को परेशान करती रही. रातभर बिस्तर पर करवटें बदलती रही. आंखों से नींद कोसों दूर थी. उसे याद आने लगा- जब खाना पकानेवाला महाराज छुट्टी मांगता था, तो बड़ी भाभी उसे कैसे रोकती थी. पजामा-कुर्ता ख़रीद लाती थी. पैसे बढ़ाने की बात करती थी. एडवांस तक देने को राज़ी हो जाती थी. यदि महाराज दो-चार दिन की छुट्टी पर चला भी जाता था तो उसके लौट आने के दिन गिनती थी... और मां, उन्हें तो घर छोड़े पांच साल हो गए थे. उनके लौट आने के दिन किसी ने नहीं गिने. जबकि ख़ुद मां ही अपने बेटों से मिलने के लिए तड़प रही है. सरला ख़ुद अपने बारे में सोचती. मां की क़ीमत उसकी नज़र में क्या है? उसके बच्चों की देख-रेख करनेवाली आया ही न, तभी तो मां के भारत जाने की बात सुनकर वह इतना घबरा गई कि टिकट के पैसे और बेबी सिटर के ख़र्चे की बात सोच रही है. अरे, भाभियां मां की नहीं हुईं, तो वह कौन-सी मां की हो गई है. यही सब सोचते-सोचते जाने कब वह नींद की आगोश में चली गई. सुबह होते ही सरला ने एयर इंडिया की एक टिकट मां के लिए बुक करवा ली. और छोटे भइया को फ़ोन कर दिया कि मां पांच तारीख़ को मुंबई पहुंच रही है, ताकि वह मां को लेने एअरपोर्ट पहुंच जाए. अपने बेटों और बहुओं को देखने की चाह में प्रभाजी का दिल ख़ुशी से भर गया. जाने की तारीख़ भी पास आती जा रही थी. रह-रह कर बेटे-बहुओं की बातें याद आतीं. पोते-पोतियों को सीने से लगाने की इच्छा दुगुनी हो जाती. बैठे-बैठे सोचती- पड़ोस की नलिनी बहन से भी अफ़सोस कर आऊंगी. बहू ने लिखा था कि उसका बेटा एक्सीडेन्ट में मर गया था. और न जाने कितने ख़याल प्रभाजी के ज़ेहन में हावी होते चले गए. सोचने लगी- रहूंगी तो मैं छोटे बेटे के ही पास. जब तक बड़े मुझे बुलाते नहीं, जाऊंगी नहीं. फिर सोचती, अब भारत में ही एक छोटा-सा फ्लैट ले लूंगी. मेरे पति आख़िर मेरे लिए भी तो पैसा छोड़ गए हैं, अब तो बैंक में वह पैसा भी दुगुना हो गया होगा. एक नौकरानी रख लूंगी, कभी-कभी हाथ-पैर भी दबा दिया करेगी. जोड़ों में अब दर्द भी तो रहने लग गया है. ठन्ड के दिनों में धूप में चारपाई डाल लेट लिया करूंगी. शरीर का हर जोड़ खुल जाएगा. अरे, यहां जैसे तो नहीं है, पूरा एक माह हो गया धूप ही नहीं देखी है. कोई आस न पड़ोस, वहां तो रोज़ दोपहर को सत्संग के लिए मंदिर चली जाऊंगी. विमला और ऊषा बहनजी का साथ रहेगा. पांच रुपए का रिक्शा कर शहरवाले रामलला मंदिर ही हो आया करूंगी. यहां जैसे कार का रास्ता नहीं देखना पड़ेगा और हां, जो मेरी सेवा करेगा, आख़िर में सारा पैसा उसे ही दे जाऊंगी. बेटे मेरे न हुए तो सरला कौन-सी मेरी हो गई है. यह तो भगवान का शुक्र है कि मेरे हाथ-पांव सलामत हैं. सरला के लिए सारा दिन काम करती हूं तभी मां-मां करके आगे-पीछे घूमती है. अभी बीमार पड़ जाऊं, तो सारी मुहब्बत धरी की धरी रह जाएगी. मैंने भी धूप में बाल स़फेद नहीं किए हैं. पांच बच्चों को पाला है, बड़ा अफ़सर बनाया है. मैंने भी दुनिया देखी है. सब पैसे के यार होते हैं. अब मैं लौटकर अमेरिका नहीं आऊंगी. मेरी तरह कितनी औरतें विधवा होती हैं. सब रोती नहीं हैं, न ही अपनी बेटियों के घर पड़ी रहती हैं. जीती हैं, व़क़्त से लड़ती हैं, फिर मैं ही क्यों इतनी कमज़ोर पड़ गई हूं. प्रभाजी ने मन और भी पक्का कर लिया कि अब वह लौटकर अमेरिका नहीं आएंगी. आख़िर जिस देश की मिट्टी में उनका सारा जीवन बीता, क्या उसी मिट्टी में मिल जाना उनका धर्म नहीं है. प्रभाजी अपने ही ताने-बाने बुन रही थीं कि सरला ने बाहर से आवाज़ दी- “मां, कल ग्यारह बजे की फ्लाइट है. तुम सुबह सात बजे तैयार हो जाना. एक घंटा तो रास्ते में लग जाएगा. टिकट और पासपोर्ट संभालकर रख लेना. एअरपोर्ट पर कोई भारतीय परिवार दिख गया, तो तुम्हें उन्हीं के साथ कर दूंगी. अकेलापन नहीं लगेगा और सफ़र भी कट जाएगा. और हां, जल्दी लौट आना, बच्चे तुम्हारे बिना नहीं रह पाएंगे. वैसे में उन्हें समझा दूंगी कि नानी किसी ज़रूरी काम से जा रही हैं और जल्द ही लौट आएंगी.” सरला को रातभर नींद नहीं आई. मां के रहते उसे काम करने की आदत ही नहीं थी. दोनों टाइम पका-पकाया मिल जाता था. यही सब सोचते हुए पांच बज गए. सरला ने जल्दी से उठकर काम निपटा मां के कमरे के पास आ आवाज़ दी. “मां, बाहर आओ. छः बजनेवाले हैं, हमें एअरपोर्ट के लिए निकलना है, जल्दी आओ वरना देर हो जाएगी.” भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई. सरला ने सोचा मां जाने की ख़ुशी में लगता है रातभर सोई नहीं हैं और सुबह-सुबह उनकी नींद लग गई है. सरला ने फिर आवाज़ दी, पर भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई. सरला ने दरवाज़े को थपथपाया तो वह खुल गया. मां को सोया देख सरला ने कहा. “गहरी नींद में सो रही हो. चलना नहीं है क्या?” पर मां तो चिर निद्रा में विलीन हो गई थीं.
- तेजेंद्र खेर
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