शैली खत्री
“शिकवा-शिकायतें कैसी, बस लौट आओ... लौट आओ अचल, मैं वहीं तो खड़ी हूं, बदला कहां कुछ. हां, समय सरक गया है. हम-तुम शारीरिक रूप से पहले जैसे नहीं रहे. मेरे और अपने मन से यह अलगाव वाला समय हटा दो, तो हम वहीं एक-दूसरे के इंतज़ार में खड़े मिल जाएंगे...”
चटकीली धूप उसे कभी भी पसंद नहीं थी. अभी भी खिड़की से बाहर देखा, तो शोख-अल्हड़ नवयौवना के गर्व में मदहोश दिखी धूप. ऐसे इठला रही थी जैसे क़स्बे की कन्या ने अंतर्राष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता जीत ली हो और अब इठलाती हुई देह प्रदर्शन करती फिर रही हो. उसकी चमक ने आंखों में विराग भर दिया. धूप से नज़र हटा ली, पर फिर भी कहां बच पाई, कमरे की हर वस्तु जैसे आंखों में चुभने लगी. माथे पर हाथ रख वह वापस कंप्यूटर पर बैठ गई. आंखें अभी भी धूप की कड़वाहट से भरी थीं. थोड़ी देर के बाद जब सब सामान्य हुआ, तो उसने कंप्यूटर खोला. ब्लॉग देखते-देखते मेल चेक करने की याद आई. इनबॉक्स में 20 अनरेड मेल थे. आधे मेल्स तो बिना काम के होते हैं, सोचते हुए उसने सब पर नज़र डाली. एक नाम पर नज़रें अटकीं- अचल! सब्जेक्ट में कॉन्ग्रैचुलेशन्स लिखा था. दिल में चांदनी की आभा चमकी. धड़कनों में जैसे स्प्रिंग लग गए, हार्ट बीट की आवाज़ कानों में आने लगी. फिर तुरंत ही यादों के दंश कटार से चुभे, कसक उठी और दिल जैसे टूक-टूक हुआ. पलभर में ग्रहण-सा सब कुछ निस्तेज हो गया. अचल तो बहुत कॉमन नाम है. मेरे अचल को कभी फ़िक्र ही कहां हुई मेरी. साथ था तब तो कभी जाना नहीं उसने मुझे. सोचकर जिस तेज़ी से हुलसी थी, उसी तेज़ी से बुझ गईं धड़कनें, लेकिन अब भी सामान्य नहीं हुई थीं. उसने कांपते हाथों से मैसेज को क्लिक किया. एक लाइन का मैसेज- वेणु, नाम पढ़ा अख़बार में तुम्हारा, गौरवविथी पुरस्कार मिलने की बधाई- अचल. वेणु ने एक-दो बार नहीं, बल्कि तीन-चार बार उस लाइन को पढ़ा. इनबॉक्स से बाहर आ गई, फिर उसे खोल लिया और कई बार उस लाइन को पढ़ा. अचल अब उसकी आंखों के सामने था. मेल खोलती थी, तो सामने अक्षर नहीं, अचल का चेहरा दिखाई देता था. बड़ा-सा अंडाकार चेहरा, नुकीली नाक, जो अचल के क्रोध के प्रतीक थे, अर्ध फूले गाल, लंबी ठोढ़ी, चौड़ा ललाट, उड़े-उड़े-से बाल और हाथी जैसी आंखें, जिनका रंग काला-भूरा नहीं, भूरा-पीला था. गुच्छेवाली मूंछें, जो वेणु को ज़रा भी पसंद नहीं थीं. हां, माथे के पीछेवाले हिस्से में दो कट के निशान भी, जिस पर अक्सर उसकी नज़र जाया करती और अचल कहता, “तुम भी हद करती हो, देखने को मेरे सिर के पीछे का हिस्सा ही मिला है.” वेणु कहना चाहती, तुम्हारे रोम-रोम को जानना-पहचानना चाहती हूं. तुम्हारी परछाईर्ं तक को पहचानती हूं. न देखा होता, तो क्या ये संभव था, पर कुछ कह नहीं पाती. वेणु को लगा, ये शब्द अपने अर्थों के विपरीत काफ़ी कुछ कह रहे हों. मेल, मेल ना होकर अचल का दिल हो, जो इतने दिनों के बाद लौटकर वेणु के पास आया है. सच, क्या चाहता है अचल? क्या सोचता है? क्या उसे मेरी याद आई, तो उसने मेल किया? इन दिनों पुरस्कार तो कई मिले, नाम भी कई जगह आया, पर कभी अचल की तरफ़ से तब कोई पहल नहीं हुई. तो क्या इसे पहल मान लिया जाए. क्या अचल को मेरी याद आई? लेकिन अगले ही पल वेणु ने सिर झटक दिया. कैसे मान ले वह ऐसा? अचल की निष्ठुरता भी कम थी क्या? कभी उसने मेल या मैसेज किए हों, ऐसा तो याद नहीं आता. वह तो रोज़ उसे गुड नाइट और गुड मॉर्निंग के मैसेज भेजती थी, पर कभी जान ही नहीं पाई कि उसके मैसेज अचल तक पहुंचते भी थे या नहीं. अचल ने कभी जवाब ही नहीं दिया, न ही मुलाक़ात होने पर कभी उनका ज़िक्र ही किया. सामान्य शिष्टाचार जैसे उसकी डिक्शनरी का हिस्सा ही नहीं रहे. वेणु को दुख इस बात का था कि ये सारे नियम स़िर्फ उस पर लागू होते थे, शेष अन्य के लिए तो अचल जान लगा दे. किसी को कभी उसके फोन, मैसेज, मदद या ख़ुद अचल को याद करने की ज़रूरत नहीं होती थी. अचल हर समय उपस्थित होता, पर वेणु अपने लिए कभी ऐसे दिन नहीं देख सकी. उसने कई बार विश्लेषण करने की कोशिश की, आख़िर अचल उसके ही साथ ऐसा क्यों करता है? और हर बार उसकी सोच इसी तर्क पर आकर टिकती कि अचल को उससे मुहब्बत नहीं है. बस, थोड़ी-सी ज़रूरत है और हर उस समय जब उसे ज़रूरत होती, वेणु उसे अपने पास, अपने साथ, अपनी आत्मा में गुंथी-सी मिलती. अचल कभी नहीं दिखाता, कभी कोई उम्मीद पूरी नहीं करता. वेणु की ज़रूरत के समय कभी उपलब्ध नहीं होता, लेकिन जब भी ख़ुद उसे वेणु की ज़रूरत होती, झट पास आ जाता और अपना काम करा लेता. कभी वेणु अपने रिश्ते के बारे में बात करना चाहती, तो अचल उपलब्ध नहीं होता. कभी मिल भी जाता, तो बात टाल देता. जवाब नहीं ही मिलता वेणु को. वेणु सोचती वह अचल से दूर हो जाए, जहां प्रेम ही नहीं, वहां किसी रिश्ते की उम्मीद क्या करें. तभी अचल की आखों में उसे अपार प्रेम दिखता, उनमें बस उसकी छवि होती. चाहत से लबरेज़ उन आंखों को वेणु नकार नहीं पाती और अचल की डोर से बंधी रहती. वह सोचती अगर कभी वह अचल के लिए दुर्लभ होती, जब वह ढूंढ़ता, तो उसे नहीं मिलती, जो चाहता वेणु पूरा नहीं करती, तो अचल उसे भी महत्व देता, उसकी भी खोज करता, उसके साथ भी व्यावहारिकता निभाता, उसके मैसेज या मेल के जवाब देता और कभी-कभी उसे याद भी करता. यह शायद वेणु की ग़लती थी कि उसने अचल को दिल से चाहा और हर समय उसकी आत्मा के साथ गुंथी रही. उसी अचल ने क्या उसे इतने दिनों के बाद याद किया है? क्या अचल को अब भी वह याद है? उन दिनों की निष्ठुरता को याद कर वेणु का दिल डोल गया. कैसे मानूं कि अचल क्या सोचता है. इसी अचल के नाम पर तो उसने अपना जीवन होम किया. कितने ऑफर थे उसके पास, लेकिन उसने सबको नकार दिया. मन में अचल को बसाकर किसी को अपनाया भी तो नहीं जा सकता था. सब जानकर भी वह ऐसे बना रहा जैसे ये बहुत मामूली बात हो. याद आए वे दिन जब अचल ने प्रेम निवेदन किया था. उन दिनों उसकी आंखों मंें अपार रंग होते थे. आंखों का आह्लाद साफ़-साफ़ अचल के दिल की बात कहता था. आंखें हर व़क्त हंसती रहतीं और कोई भी उन आंखों की ओर देखकर कह सकता था कि उसमें पुतलियों की जगह वेणु का ही चेहरा होता है. बहाने ढूंढ़-ढूंढ़कर वे वेणु का पीछा किया करतीं. कई बार उनकी तीव्रता से वेणु दहल जाती, उसकी आवाज़ कांप जाती. वह नज़रें बचाया करती और अचल की नज़रें उसे ढूंढ़-ढूंढ़कर निशाना बनातीं. चेहरे से वो भले ही शांत रहता हो, पर आंखें वेणु की आंखों से टकराते ही गहरी हो जातीं. नज़रों की तीव्रता वेणु सहन नहीं कर पाती और झट नज़रें झुका लेती या इधर-उधर देखने लगती. अचल ने उसे प्रपेाज़ नहीं किया था, पर ऐसे समय में अक्सर वेणु को बिहारी का दोहा याद आता- ‘कहत नटत रीझत खीझत मिलत खिलत लजियात, भरे भौन में करत हैं नैनन ही सौ बात...’ और वह मुस्कुरा उठती. कभी लगता उसे इस तरह मुस्कुराना नहीं चाहिए, जाने उसकी इस हरक़त का अचल कौन-सा अर्थ लेता हो. समय गुज़रता गया. अचल की उसके साथ आंख-मिचौली जारी रही और एक सुबह वेणु को पता चला अचल दिल्ली चला गया. वहीं सेटल होगा और विवाह भी वहीं करेगा. वह स्तब्ध खड़ी सोचती रही, काश! तुम हमारी शर्मोहया को ढंक पाते, काश कि एक बार हमें बांहों में भर पाते. कभी तो कहते कि तुम हमक़दम हो हमारे, इस सफ़र में बांटोगे हमारे ग़म, मैं जब भी आवाज़ दूंगी, तुम आ जाओगे. काश, अचल! काश! कि तुमने एक थाती दी होती, जिसे गले लगाकर वेणु जीवन गुज़ार लेती. साथ के इतने पल ही दिए होते, जिन्हें याद करते हुए उम्र कट जाती. काश! अचल काश! यह काश नहीं आया, क्योंकि अचल जा चुका था और वेणु की आंखों से सावन झरने लगे. वह लौट आई वर्तमान में. ओह! इतने साल बाद भी वह स़िर्फ अचल को ही क्यों चाहती है, उसे बुरा भी लगा अपनी चाहत का यूं बहना. उसने अचल को रिप्लाई करना चाहा. फिर रुक गई, नहीं फोन क्यों न कर ले. उसने सुधीर को फोन लगाया, अचल के अभिन्न मित्र को, उसके पास ज़रूर होगा अचल का नंबर. और सचमुच सुधीर को ज़ुबानी याद था. कांपते हाथों से उसने मोबाइल पर नंबर डायल किया. “हेलो वेणु, तुमने मुझे फोन किया, मुझे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा. मुझे तो लगा था कि तुम बात नहीं करना चाहोगी मुझसे.” अचल एक सांस में बोल गया. वेणु की आवाज़ गले में अटक गई. तो अचल के पास मेरा नंबर है. उसने सेव कर रखा है, उसकी आंखें भर आईं. कहां सोचा था कि कभी ऐसे अचल से बात करेगी. “वेणु, क्या माफ़ कर सकोगी? जितनी चाहे शिकायतें करो, पर माफ़ तो कर दो ना...” वेणु तब भी चुप. रोम-रोम पिघल रहा था. “तुम्हें मालूम नहीं वेणु इस दौरान मैं कहां-कहां भटका हूं, यूं समझ लो नाली का पानी पीया है मैंने. उसके बाद भी तुम मुझे अपनाने की बात करती हो...” अचल का स्वर डूबा-सा था. वेणु की आंखों से आंसू गिरने लगे. “शिकवा-शिकायतें कैसी, बस लौट आओ... लौट आओ अचल, मैं वहीं तो खड़ी हूं, बदला कहां कुछ. हां, समय सरक गया है. हम-तुम शारीरिक रूप से पहले जैसे नहीं रहे. मेरे और अपने मन से यह अलगाव वाला समय हटा दो, तो हम वहीं एक-दूसरे के इंतज़ार में खड़े मिल जाएंगे...” वेणु ने फोन रख दिया. उसे अचल के स्वागत की तैयारी जो करनी थी.कहानी- पासवाले घर की बहू
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