मेरे मन में उमड़ते रोष, संशय, नाराज़गी के बादल दूर कहीं विलुप्त होने लगे थे. दहकते हुए ज्वालामुखी पर ठंडी फुहार बरसने लगी थी. दूसरी ओर से मांजी का हाथ पकड़कर सहारा देते हुए मैं उन्हें अंदर लाने लगी. विश्वास, श्रद्धा और आदर का पहाड़ फिर से सिर उठाने लगा था. लेकिन एक प्रश्न अभी भी मन को कचोट रहा था, ‘इंसान की सोच के मापदंड इतनी शीघ्र क्यूं बदल जाते हैं?’
सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था. चारों ओर मानो मधुमास की मस्ती छाई थी. ज़िंदगी इतनी हसीन भी हो सकती है, कभी सोचा ही न था. हर नवविवाहिता ऐसा ही महसूस करती होगी. तन्मय मुझे दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत और समझदार इंसान नज़र आते, तो मांजी संसार की सबसे अच्छी व सुलझी हुई सास. दुनिया मानो इनके इर्द-गिर्द सिमट-सी गई थी.
लेकिन हनीमून से लौटकर तन्मय जब ऑफ़िस में व्यस्त हो गए, तो मुझे यह तिलिस्म टूटता-सा लगा. इकलौती लाड़ली नई बहू से मांजी भी अभी घर का काम नहीं कराना चाहती थीं. मैं ही ज़बर्दस्ती हर काम में उनका हाथ बंटाने का प्रयास करती थी. पर 11 बजते-बजते सब काम भी समाप्त हो जाता. मांजी अपने कमरे में आराम करने चली जातीं और मैं कोई न कोई पुस्तक लेकर बैठ जाती. पर रोज़-रोज़ नई-नई पुस्तक भी कहां से मिलती? मेरी मनःस्थिति मांजी समझ गईं.
“शिल्पी बेटी, तुम्हें पढ़ने का बहुत शौक़ है ना! आंबेडकर सर्किल पर एक बड़ी सेंट्रल लाइब्रेरी है. तुम उसकी सदस्या बन जाओ. तुम जब जाना चाहो, जा सकती हो. घर के कामों की चिंता मत करना. वहां तुम पत्र-पत्रिकाएं, उपन्यास आदि पढ़ सकती हो. इशू भी करवा सकती हो.”
मुझे उनका सुझाव बहुत पसंद आया. अगले ही दिन मैं उस लाइब्रेरी की सदस्या बन गई. लेकिन मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि बहुत कम लोग ही वहां आते-जाते थे, ख़ासकर दिन के समय. शायद आज का कल्चर ही कुछ ऐसा हो गया है. लोगों की अच्छा साहित्य पढ़ने में रुचि ही नहीं रही है. या उनके पास समय का अभाव हो गया है. आठ-दस घंटे की नौकरी के बाद इंसान या तो परिवार के साथ वक़्त गुज़ारना चाहता है या उसे कंप्यूटर, टीवी, इंटरनेट, जिम, रेस्टॉरेंट नज़र आते हैं. मेरे और सुदर्शनजी जैसे पिछड़े लोग अब कम ही बचे हैं, जिन्हें प्रतिदिन 4-5 घंटे कुछ पढ़े बिना चैन ही नहीं मिलता.
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ओह! सुदर्शनजी से तो परिचय कराना ही भूल गई. लाइब्रेरी में आनेवाले शायद वे सबसे वयोवृद्ध सदस्य थे. लेकिन लगता था उम्र उन्हें बस छूकर निकल गई है. एकदम चुस्त-दुरुस्त, हमेशा हंसता-मुस्कुराता चेहरा. राजनीति से लेकर मौसम, विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान तक- हर विषय पर उनकी इतनी अच्छी पकड़ थी कि किसी भी विषय पर वे घंटों बात कर सकते थे. लगभग रोज़ ही हमारी मुलाक़ात हो जाती थी. वे भी दिन के समय ही लाइब्रेरी आना पसंद करते थे. शाम का समय उनका पार्क में सैर करने का होता था. लाइब्रेरी वे पैदल ही आते थे. लौटते व़क़्त उनका बेटा उन्हें कार से लेने आ जाता था. वह ऑफ़िस से लंच के लिए घर जा रहा होता था. तन्मय चूंकि ऑफ़िस में ही लंच लेते थे, इसलिए मुझे भी दिन में लाइब्रेरी आना ही सूट करता था. शाम को मैं डिनर की तैयारी कर तन्मय का इंतज़ार करती थी. फिर मांजी के सैर से लौटते ही मैं और तन्मय कहीं घूमने निकल जाते.
उस दिन मैं और सुदर्शन अंकल लगभग साथ ही लाइब्रेरी से बाहर निकले. उन्होंने मुझे प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ इशू करवाया था और उसी के बारे में बता रहे थे. धूप बहुत तेज़ हो गई थी. कुछ देर इंतज़ार के बाद भी उनका बेटा नहीं आया तो मैंने उन्हें अपनी कार से छोड़ने का प्रस्ताव रखा.
“अरे नहीं, पास ही तो घर है. मैं तो वैसे भी पैदल ही आना-जाना पसंद करता हूं. पर सुदेश मानता ही नहीं है. कहता है, इस वक़्त धूप ज़्यादा हो जाती है. मैं लंच में घर आता ही हूं. आपको भी लेता आऊंगा.”
“ठीक ही तो कहते हैं. चलिए, आज मेरे संग चलिए. इसी बहाने आपका घर भी देख लूंगी.”
उन्होंने अपनी दोनों बहुओं से मुझे मिलवाया. दोनों मुझसे उम्र में थोड़ी ही बड़ी थीं. वे बड़े प्यार से मुझसे मिलीं. बड़ा बेटा ऑफ़िस गया हुआ था और बच्चे स्कूल. हम बातें कर ही रहे थे तभी सुदेशजी भी आ गए. वे मीटिंग में लेट हो गए थे. उन्होंने कोल्ड ड्रिंक का प्रस्ताव रखा, लेकिन मैं यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि मांजी इंतज़ार कर रही होंगी. रास्ते में भी उन्हीं सब के बारे में सोचती रही. अपने हंसते-खेलते, भरे-पूरे परिवार में मुझे विधुर सुदर्शनजी पूर्णतः संतुष्ट नज़र आए. मुझे ‘बेटी-बेटी’ कहते उनकी ज़ुबान नहीं थक रही थी. सुदेशजी ने तो कह ही दिया था, “पापा के जीवन में एक कमी थी बेटी की, वो भी आपने पूरी कर दी.”
पुस्तकों के संग मेरा वक़्त वाकई बहुत अच्छा गुज़र रहा था और इसके लिए मैं मांजी की दिल से शुक्रगुज़ार थी.
एक दिन मैं लाइब्रेरी की सीढ़ियां उतर रही थी तो नीचे कार में इंतज़ार कर रहे सुदेशजी मेरी ओर बढ़े.
“अं... अंकल शायद कोई क़िताब इशू करवा रहे हैं. अभी आते ही होंगे.” कहकर मैंने आगे बढ़ जाना चाहा, लेकिन उन्होंने मेरा रास्ता रोक लिया.
“मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी थी.” वे बोले.
“जी... कहिए.” मुझे थोड़ा आश्चर्य हो रहा था.
“यहां पापा के साथ कोई महिला भी होती है क्या?”
“महिला?... मैं...”
“अरे नहीं, आपकी बात नहीं कर रहा. कोई पापा की उम्र की महिला... वे उनके साथ लगभग रोज़ शाम की सैर पर होती हैं. लोगों ने उन्हें घुल-मिलकर बातें करते, एकाध बार आइस्क्रीम खाते भी देखा है.”
“नहीं, यहां तो ऐसी कोई महिला नहीं आती. अंकल के मुंह से कभी किसी का ज़िक्र भी नहीं सुना.”
“समझ में नहीं आता कि इस उम्र में पापा को ये सब क्या सूझी है? पूछें भी तो कैसे?... आप, आप प्लीज़, उनसे इस बारे में बात करके देखिए न? आपको तो वे बेटी की तरह मानते हैं.”
“हां, पर... मुझसे यह नहीं होगा.”
“प्लीज़, यह काम आप ही कर सकती हैं. हम सभी पर बड़ा एहसान होगा आपका. पापा आ रहे हैं. अब आप जाइए.”
असमंजस में मैं घर लौट आई. दो दिन ऊहापोह में बीत गए. मैं कुछ नहीं पूछ पाई. तीसरे दिन सुदेशजी ने फिर रोक लिया. मैंने असमर्थता जताई तो वे अनुनय-विनय करने लगे.
“ठीक है, मैं कोशिश करती हूं.”
अगले दिन मैंने बातों का सिरा पकड़ते हुए पूछा, “आपका व़क़्त तो पोते-पोतियों, घर-परिवार के साथ ख़ूब आराम से गुज़र जाता होगा न अंकल? शाम को क्या करते हैं?”
“शाम को पार्क में सैर करने चला जाता हूं. बच्चों को झूलते-खेलते देखता हूं. हमउम्र साथी भी मिल जाते हैं. उनके संग बातों में कब समय गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता. एक हमउम्र महिला तो लगभग रोज़ ही मिल जाती है.”
“अच्छा, क्या बातें होती हैं उनसे?” मैंने उत्सुकता से पूछा. आख़िर मैंने सिरा खोज ही निकाला था. मेरी सफलता का उत्साह मेरी आवाज़ से छलक पड़ रहा था.
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“अरे, तुम तो ऐसे ख़ुश हो रही हो जैसे हम कोई डेट पर मिलते हैं. हा... हा... अब कोई प्यार-मुहब्बत की बातें तो करते नहीं. बस, जनरल बातें होती हैं, जो इस उम्र के लोग करते हैं. वह अपने घुटनों और कमर के दर्द का ज़िक्र करती है, तो मैं उसे कोई आयुर्वेदिक दवा सुझाता हूं. वह मुझे डायबिटीज़ के लिए करेले का जूस, मेथीदाने का पाउडर आदि घरेलू उपाय सुझाती है. कभी हमारे ज़माने की चर्चा छिड़ जाती है. तब यह होता था, वो होता था... दो आने में इतनी शक्कर, इतनी सब्ज़ियां आ जाती थीं. हम तो सब्ज़ी-रोटी के अलावा और कुछ समझते ही नहीं थे. और आज के बच्चे पिज्ज़ा, बर्गर, हॉट डॉग, मंचूरियन जाने क्या-क्या खाते हैं. कभी कपड़ों की तुलना करने लग जाते हैं, तो कभी टीवी सीरियल्स पर चर्चा... ढेर सारे विषय हैं और ढेर सारी बातें. अंधेरा घिरने लगता है, पर बातें ख़त्म नहीं होतीं. अब बातें तो बच्चों से भी होती हैं, तुमसे भी होती हैं, पर बुरा मत मानना... अपनी उम्र के लोगों से बात करके एक अजीब-सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी ख़ुशियां... सब कुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है हम अकेले नहीं हैं. हम एक-दूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामनेवाले के पास हमारी बात को सुनने का व़क़्त है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, इस उम्र में यह एहसास ही ख़ासा सुकून देनेवाला है.”
अंकल थोड़ा भावुक हो गए थे तो मैंने बात समाप्त करनी चाही. “अच्छा लगा अंकल आपके एहसास, आपके साथी के बारे में जानकर...” हम बातें करते-करते लाइब्रेरी से बाहर आ गए थे. तभी एक कुल्फीवाला आ गया. अंकल ने उससे दो कुल्फियां ख़रीदीं. एक मुझे पकड़ाई, दूसरी ख़ुद खाने लगे.
“एक बार उन्हें भी मैंने ऐसे ही कुल्फी खिलाई थी. फिर अगले दिन उन्होंने मुझे चाट खिलाई.”
“मतलब कल मुझे आपको चाट खिलानी है.” मैंने हंसते हुए कहा तो अंकल भी हंसी में शामिल हो गए.
सुदेशजी को ये सब बातें बताते हुए मैंने एक तरह से उन्हें लताड़ ही डाला, “आपको सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास है, अपने पिता पर नहीं? एक विधुर बुज़ुर्ग इंसान का अपने किसी हमउम्र से बात कर हंसी-ख़ुशी के दो पल बिताना भी आपको अखर गया? कितनी तुच्छ सोच है आपकी?”
वे बेचारे शर्मिंदा होते हुए माफ़ी मांगने लगे. सुदर्शन अंकल के प्रति मेरे दिल में इ़ज़्ज़त और भी बढ़ गई थी. दो दिनों के लिए मांजी को किसी काम से बाहर जाना पड़ गया तो मैं भी लाइब्रेरी नहीं जा पाई. पहली बार अकेले पूरे घर की ज़िम्मेदारी संभाली थी. मुझे आटे-दाल का भाव पता लग गया. पहली बार लगा मांजी कैसे इस उम्र में भी सब संभाले हुए हैं. तीसरे दिन लाइब्रेरी पहुंची तो जाते ही अंकल ने घेर लिया.
“दो दिन कहां गायब हो गई थी? इधर वो सैरवाली साथी भी नदारद है. मैं तो बोर हो गया था. अच्छा देखो, बुक्स का नया स्टॉक आया है. आशापूर्णा देवी की पूरी सीरीज़ है. ये दो मैंने पढ़ ली है. तुम ले जाओ. बहुत अच्छा लिखती हैं. पढ़ने बैठोगी तो उठने का मन ही नहीं करेगा.”
सचमुच यही हुआ. शाम को मांजी के सैर पर निकलने के बाद पुस्तक लेकर बैठी तो उठने का मन ही नहीं हुआ. वह तो मेरी ख़ास सहेली पूनम आ गई वरना तो...
पूनम ने मेरे कानों में जो खुसर-पुसर की तो मेरे तनबदन में आग लग गई. मांजी सैर के बहाने रोज़ किसी से मिलती हैं. उसके संग घंटों गुज़ारती हैं, खाती-पीती और सैर-सपाटा करती हैं.
“कहते दुख तो बहुत हो रहा है शिल्पी. पर तेरी ख़ास सहेली हूं, इसलिए छुपाकर भी नहीं रख सकती. मैंने अपनी आंखों से देखा है... धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा. तन्मयजी से बात कर और स्थिति को संभाल. मेरी ज़रूरत हो तो बताना. बात हम दोनों तक ही रहेगी. मेरा तुझसे वादा है. मैंने अपने पति तक को नहीं बताया है.” पूनम देर तक मुझे सांत्वना देती रही. दुख और अपमान से मेरे आंसू निकल आए थे.
‘कहां कमी रह गई थी हमसे मांजी की देखरेख में, जो आज ये सब देखना-सुनना पड़ रहा है. मैं तो नौकरी भी नहीं करती. लगभग पूरा दिन ही मांजी के साथ रहती हूं. तन्मय भी थके-मांदे लौटने के बावजूद रात का खाना मांजी के साथ बतियाते हुए ही खाते हैं. उनके कमरे में अलग से टीवी लगवा रखा है, जहां वे अपनी पसंद के प्रोग्राम देख सकें. रिश्तेदारों से भी मिलने-मिलाने ले जाते रहते हैं. फिर मांजी क्यों इस उम्र में हमें नीचा दिखाने पर तुली हुई हैं? रोष, अवसाद, खिन्नता, नाराज़गी के मिले-जुले भाव मेरे मन में उमड़ रहे थे. पूनम को विदा करके मैं वापस घर के अंदर नहीं जा पाई. गहरी सोच में डूबी, वहीं पोर्च में ही चहलक़दमी करती रही. मैं बेसब्री से तन्मय का इंतज़ार कर रही थी. मन में घुमड़ता ज्वालामुखी फूटने को बेताब हो रहा था.
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तभी एक ऑटो आकर रुका. उसमें से एक सज्जन उतरकर अंदर बैठी महिला को सहारा देकर उतारने लगे. हल्का अंधेरा घिर आया था, इसलिए कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था. मैं तेज़ी से चलकर गेट तक आई. आगंतुकों से नज़र मिली तो हतप्रभ रह गई. ज़ुबान तालू से चिपककर रह गई थी.
“अरे शिल्पी बेटी! तुम यहां रहती हो? वाह, क्या संयोग है! सुधाजी, आपने कभी बताया ही नहीं कि मेरी शिल्पी बिटिया ही आपकी लाड़ली बहू है. देखो, आपकी चिंता में कैसे अंदर-बाहर हो रही है?” सुदर्शन अंकल मांजी को सहारा देते हुए अंदर ला रहे थे और मांजी हैरानी से हम दोनों को देख रही थीं. अब मुझे होश आया.
“क्या हुआ मांजी को?” मैं बाहर लपकी.
“सैर करते हुए पांव में कोई कांच का टुकड़ा अंदर तक घुस गया था. डिस्पेंसरी से ड्रेसिंग करवा ली है. अब ठीक हैं. तुम चिंता मत करो. कुछ दिन आराम करेंगी, ठीक हो जाएंगी. पर हां, तब तक मुझे अकेले ही सैर करनी पड़ेगी. हा...हा...”
मेरे मन में उमड़ते रोष, संशय, नाराज़गी के बादल दूर कहीं विलुप्त होने लगे थे. दहकते हुए ज्वालामुखी पर ठंडी फुहार बरसने लगी थी. दूसरी ओर से मांजी का हाथ पकड़कर सहारा देते हुए मैं उन्हें अंदर लाने लगी. विश्वास, श्रद्धा और आदर का पहाड़ फिर से सिर उठाने लगा था. लेकिन एक प्रश्न अभी भी मन को कचोट रहा था, ‘इंसान की सोच के मापदंड इतनी शीघ्र क्यूं बदल जाते हैं?’
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