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कहानी- पश्‍चाताप (Short Story- Pashchatap)

मस्तिष्क में विचारों का ज्वार-भाटा चल रहा था. मेरी कल्पना में अपनी वैवाहिक त्रासदी का एक-एक दृश्य बार-बार कौंधता रहता. सोचता था, उस घर के लोगों पर क्या बीत रही होगी. मेरे बाबूजी के मिथ्या दंभ ने उस परिवार को इस प्रकार अपमानित किया कि निर्जीव मोटरसाइकिल की ‘मांग’ को मनवाने के प्रयास में एक सजीव नारी की ‘मांग’ को सूनी ही छोड़ आए. क्या बीत रही होगी उस युवती पर? कहीं वह आवेश में आत्महत्या न कर बैठे. इस विचार मात्र से मैं सिहर उठा.

“अरे सर आप? कोई विशेष बात तो नहीं, कोई आवश्यक कार्य तो नहीं आ गया था? किसी पत्रावली विशेष की आवश्यकता तो नहीं पड़ गई?” घबराते हुए अरविंद ने कई सारे प्रश्‍न एक साथ पूछ डाले.

“नहीं अरविंद! तुम कई दिनों से अवकाश पर थे. इधर से निकल रहा था तो सोचा मिलता चलूं. क्या बात है? कुछ परेशान दिख रहे हो.” मैंने अरविंद को आश्‍वस्त करते हुए पूछा.

“क्या बताऊं सर, पत्नी की अस्वस्थता ने मुझे तनावग्रस्त कर दिया है. अब आप से क्या छुपाना. डॉक्टर कहते हैं मेरी पत्नी अवसाद से ग्रसित हैं. इनके जीवन में एक ऐसी घटना घटित हुई है, जिसने इन्हें प्रभावित किया है. तभी से इनके अंदर उदासी, निराशा, अपराधबोध और स्वयं के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई है.” अरविंद ने पूरा विवरण बताया.

“कहीं ऐसा तो नहीं कि इनके अचेतन में कोई अंतर्द्वद्व हो, जिसके कारण ये अवसादग्रस्त हो गई हैं?” मैंने कुछ और जानने की चेष्टा की.

“सर, इनकी इस मानसिक स्थिति के लिए उत्तरदायी दुर्घटना को तो मैं जानता हूं. अब आपसे क्या छुपाना सर. बात यह है कि जब इनका विवाह...” अरविंद इसके आगे कुछ कहता, इसके पहले ही उसकी पुत्री ने किसी कार्यवश उसे अंदर बुला भेजा.

“सर मैं अभी आया, तब तक आप यह एलबम देखिए.” मुझे एलबम थमाते हुए अरविंद भीतर चला गया.

मैं तस्वीरें देखने लगा. पहले की कुछ तस्वीरें संभवतः अरविंद के बचपन और परिवारवालों की थी. बाद की तस्वीरें अरविंद के विवाह की थीं. मुझे उन तस्वीरों में से कुछ जगहें न जाने क्यों परिचित-सी लगीं. एक फ़ोटो जिसमें बारात किसी मंदिर के प्रांगण में रुकी थी, को देखकर लगा कि मैं पहले भी इस स्थान पर जा चुका हूं. फिर द्वारचार के समय का फ़ोटो देखकर तो मैं हैरान रह गया, क्योंकि ऐसी ही एक तस्वीर तो मेरे पास भी है. मैं अभी इसी सोच में था कि अरविंद वापस आ गया और जलपान के लिए आग्रह करने लगा. मैंने बात पुनः प्रारंभ कर दी. “हां अरविंद, तुम कह रहे थे कि विवाह...”

“सर! मेरी पत्नी का अंतर्द्वद्व उसके विवाह के कारण उत्पन्न हुआ है. यही कारण है कि विवाह से जुड़े किसी भी विषय पर विचार-विमर्श करते ही वह असहज हो उठती है. जानते हैं इस बार क्या हुआ?”

मेरी उत्सुकता और बढ़ गई.

“सर, मेरी बेटी शिप्रा के विवाह की बातचीत चल रही है, किंतु वे लोग एक मोटरसाइकिल को लेकर विवाह टाल रहे हैं. मेरा इतना सामर्थ्य नहीं है और जिस दिन से मेरी पत्नी वंदना ने यह बात सुनी है, उसी दिन से वह असहज हो उठी है. बस एक ही बात उसके मन-मस्तिष्क में छाई हुई है. कहती है- जैसे मेरा विवाह टूट गया था, वैसे ही शिप्रा का विवाह भी नहीं होगा.”

“तुमने समझाने की चेष्टा नहीं की?”

“समझाने से ही समस्या सुलझ जाती तो फिर बात ही क्या थी?” अरविंद बिल्कुल हताश-निराश लग रहा था.

“नहीं अरविंद! हताश न हो और कार्यालय के कार्यों की भी चिंता न करो. पहले वंदना की उचित देखभाल करो. मुझे अपना बड़ा भाई समझना, अधिकारी तो मैं केवल ऑफ़िस में हूं.” मैंने अरविंद को साहस दिया और फिर घर वापस आ गया.

घर लौटा तो हृदय में एक बेचैनी थी. अरविंद के विवाह स्थल की फ़ोटो ने मुझे उद्वेलित कर दिया था. मन में उठे संदेह की पुष्टि के लिए मैंने भी अपनी पुरानी तस्वीरों को निकाला जो मेरे दुःखद वैवाहिक जीवन के प्रारंभ और अंत की मूक साक्षी थीं. और मेरा संदेह सच में बदल गया, क्योंकि अरविंद के विवाह की तस्वीरें ठीक उसी स्थान की थीं, जहां वर्षों पूर्व मैं भी दूल्हा बनकर गया था. किंतु होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था. मैं उन तस्वीरों में डूबता चला गया और मेरे सम्मुख आज से चौबीस वर्ष पुराना दृश्य मानो पुनर्जीवित हो उठा...

...द्वारचार के लिए मैं पीढ़े पर बैठा था. पंडितजी विविध मंत्रोच्चार किए जा रहे थे. रात दस बजे वैवाहिक कार्यक्रमों के लिए दोनों पक्षों के लोग आंगन में जुटे थे. जब कन्यादान के लिए कन्या को बुलाए जाने की बात हुई तो एकाएक मेरे फूफाजी ने मेरे बाबूजी के कान में कुछ कहा और बाबूजी ने कार्यक्रम को बीच में ही रोक कर कहा. “चतुर्वेदीजी, विवाह पूर्व ही तय हुआ था कि मोटरसाइकिल भी उपहार में दी जाएगी, पर लगता है आप वह बात भूल रहे हैं.” मेरे बाबूजी ने अपनी निर्लज्जता और लोभ दोनों एक साथ प्रकट कर दिए.

“शुक्लाजी! परिस्थितियों के कारण अभी कुछ नहीं कर पाया हूं, किंतु वचन दिया है तो अवश्य पूरा करूंगा. विश्‍वास कीजिए, गौने में अवश्य दे दूंगा.” कन्या के पिता ने अत्यंत ही दयनीय और कातर वाणी में अनुरोध किया.

किंतु मेरे बाबूजी अपनी ही ज़िद पर अड़े रहे. बात बढ़ती गई, मुझे आदेश दिया गया कि विवाह वेदी पर से उठकर बाहर आ जाओ- मैं हिचकिचाया, कुछ कहना चाहा, किंतु उस सनक ने मानो बाबूजी को शैतान बना दिया था. बलपूर्वक मुझे मंडप से बाहर कर दिया गया. एक बार मान-मनौव्वल का प्रयास फिर हुआ, किंतु व्यर्थ. बाबूजी ने आदेश दे दिया कि बारात वापस जाएगी. उनके इस अशोभनीय निर्णय के प्रति मैं न जाने क्यों कोई प्रतिरोध नहीं प्रकट कर पाया. बारातियों ने भोजन बीच में ही छोड़ दिया. तंबू-क़नात उखाड़े जाने लगे, बैण्ड वाले सहमकर ढोल-नगाड़े समेटने लगे. लोग अपने-अपने सामान समेटने लगे और क्षणभर में सारा दृश्य ही परिवर्तित हो गया. कहां मंगल-गान, नाच-गाना, खाना-पीना और कहां पलभर में ही हाहाकार. कन्या के पिताजी कभी मेरे चरणों पर तो कभी बाबूजी के पैरों पर अपना मस्तक पटकते रहे, किंतु कोई परिणाम न निकला. मुझसे कहने लगे, “बेटा! तुम्हीं समझाओ बाबूजी को. मैं अपना वचन अवश्य पूरा करूंगा. मेरी प्रतिष्ठा और लड़की के जीवन को इस प्रकार तिरस्कृत और अपमानित होने से बचा लो....”

मैं कुछ कहता, इसके पूर्व ही मेरे बाबूजी ने किंचित क्रोधित होकर टोका, “तय कर लो- किसकी प्रतिष्ठा रखनी है? अपने बाप की या उसकी जो अभी तुम्हारा कुछ नहीं. मेरी प्रतिष्ठा रखना चाहते हो तो कार में बैठो.”

मैं यंत्रचालित-सा जाकर कार में बैठ गया. रात में ही बारात वापस लेकर बाबूजी यूं लौट रहे थे मानो कोई प्रबल शासक किसी छोटे से राज्य को रौंद कर वापस जा रहा होे. वापसी की यह यात्रा मैंने घोर मानसिक सन्त्रास में पूरी की. क्या होगा उस लड़की का? कौन विवाह करेगा उससे? मैं अपने बाबूजी केइस अमानवीय निर्णय का विरोध क्यों नहीं कर सका?

मस्तिष्क में विचारों का ज्वार-भाटा चल रहा था. मेरी कल्पना में अपनी वैवाहिक त्रासदी का एक-एक दृश्य बार-बार कौंधता रहता. सोचता था, उस घर के लोगों पर क्या बीत रही होगी. मेरे बाबूजी के मिथ्या दंभ ने उस परिवार को इस प्रकार अपमानित किया कि निर्जीव मोटरसाइकिल की ‘मांग’ को मनवाने के प्रयास में एक सजीव नारी की ‘मांग’ को सूनी ही छोड़ आए. क्या बीत रही होगी उस युवती पर? कहीं वह आवेश में आत्महत्या न कर बैठे. इस विचार मात्र से मैं सिहर उठा. एक बार सोचा कि मैं अकेले ही जाऊं और उसे अपनी पत्नी बना लाऊं. किंतु अंतर्मन ने टोका- लोग क्या कहेंगे? बाप का ऐसा स्वाभिमान कि बेटे को विवाह-मंडप से उठा ले गया और वही बेटा अब विवाह करने आया है. यह तो थूककर चाटने वाली बात हो गई. कहीं कन्यापक्ष के लोगों ने मुझे अपमानित कर वापस भेज दिया तो...?

रात को भोजन भी नहीं किया. यह मनोदशा मानो मुझे पागल बनाए जा रही थी. अगले दिन ही वापस नौकरी पर जाने का निश्‍चय कर लिया. चलते समय बाबूजी ने कहा, “ठीक है, जाओ बेटा- और हां! निराश मत होना. अच्छे रिश्ते आएंगे. उन कंगलों से तो मुक्ति मिली.” वापस आने पर नौकरी फिर शुरू हो गई. जब तक कार्यालय में रहता मन काम मे उलझा रहता, किंतु घर लौटते ही एक अपराधबोध से ग्रसित हो जाता था. उस लड़की के प्रति हुए अपमान और अपराध के लिए मैं अब स्वयं को दोषी मानने लगा था. इसी मनोदशा में क़रीब एक महीने बाद ही बाबूजी की एक चिट्ठी आई...

“प्रिय दुष्यन्त, पंद्रह दिनों की छुट्टी लेकर आ जाओ. तुम्हारा विवाह क़रीब-क़रीब निश्‍चित ही है. लेन-देन भी विवाह पूर्व ही हो जाएगा. बस! इस बार तुम लड़की देख लो. शीघ्र आ जाओ- बाबूजी.”

इस पत्र ने मेरे सुलगते हुए जीवन में आहुति का काम किया. एकाएक मेरे अंदर का विद्रोही पौरुष उबल उठा और ख़ूब सोच-समझकर मैंने बाबूजी को प्रतिरोध का पत्र लिख ही डाला-

बाबूजी, इन भ्रष्ट सामाजिक परंपराओं और कुरीतियों के कारण विवाह का जो दुःखद अनुभव मुझे हुआ है, उसकी स्मृति मेरे जीवन से सदैव जुड़ी रहेगी. न जाने उस निर्दोष युवती का क्या हुआ होगा? मेरे दब्बू व्यक्तित्व ने एक युवती का संपूर्ण जीवन नष्ट कर डाला और मैं आपसे यह तक न कह सका कि मोटरसाइकिल से अधिक महत्व मानवीय मूल्यों का है. अतः अब यह मेरा प्रायश्‍चित ही समझिए कि मैंने आजीवन अविवाहित रहने का संभवतः अव्यावहारिक किंतु दृढ़ संकल्प ले लिया है. उम्मीद है, मुझे इस धृष्टता के लिए क्षमा करेंगे और विवाह के लिए पुनः विवश नहीं करेंगे, किंतु परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह आजीवन करता रहूंगा... दुष्यंत.

पत्र के प्रतिउत्तर निश्‍चय ही मेरे अनुकूल नहीं रहे. बाबूजी और मां मुझे समझा-समझा कर परास्त हो गए, किंतु मेरा निश्‍चय अटल रहा. अब तो बस एकाकी जीवन साथ रह गया और रह गई ये तस्वीरें, जो मेरे अतीत के उन उल्लासमय क्षणों की मूक साक्षी हैं, जिन क्षणों को मेरे दब्बूपन ने केवल स्मृति चिह्न बनाकर छोड़ दिया. ऐसी ही तस्वीरें अरविंद के एलबम में देख कर मेरा हैरान होना स्वाभाविक था.

दो दिनों बाद जब अरविंद कार्यालय आया तो उसे मैंने किसी बहाने से अपने घर बुलाया और अपने एलबम की वही तस्वीरें दिखाईं जो अरविंद के पास थीं. वह भी अवाक् रह गया और पूछ ही बैठा, “आपके पास ये फ़ोटो कैसे सर?”

“यही प्रश्‍न तो मैं पूछने वाला था!”

“सर, मेरा तो वहीं विवाह हुआ है, किंतु आपकी फ़ोटो उसी स्थान और वह भी वैवाहिक समारोह की? कहीं आप ही वह व्यक्ति तो नहीं, जो मोटरसाइकिल न मिलने पर युवती को अविवाहित छोड़ भाग आए थे?”

“हां अरविंद, मैं ही वह कायर व्यक्ति हूं, जो उस समय अपने पिता के अमर्यादित निर्णय का प्रतिरोध न कर सका. उस दिन से लेकर आज तक मैं पश्‍चाताप की अग्नि में झुलस रहा हूं. केवल इतना कर सका कि आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय कर लिया है.” मैं अरविंद के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.

“सर, आपने जिस सहजता से इस संपूर्ण घटना को स्वीकार किया, यह वास्तव में इतनी सहज घटना नहीं थी. आपकी बारात वापसी के पश्‍चात् उस युवती के माता-पिता तो विक्षिप्त से हो गए थे. उस युवती ने छत से कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास भी किया, किंतु किसी ने देख लिया और बचा ली गई. सारा गांव थू-थू कर रहा था आप लोगों पर.”

“तुम कैसे पहुंच गए वहां?” मैंने प्रसंग बदलते हुए पूछा.

“मैं तो अपने मामा के घर आया हुआ था. इस हृदय विदारक घटना की चर्चा गांव में फैलते देर न लगी. मैं भी वहां पहुंच गया. पूरी बात जानने और उस घर के सदस्यों के दुख-दर्द को  देखकर न जाने किस प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने स्वयं को विवाह के लिए प्रस्तुत कर दिया. मेरे मामा हैरान हुए, किंतु मैंने कहा, ‘मामाजी, मैं कोई अपराध नहीं कर रहा हूं. मुझे पूरा विश्‍वास है कि मेरे माता-पिता इस निर्णय से अप्रसन्न नहीं होंगे. फिर मैं वयस्क और परिपक्व हूं.’

मैंने उस लड़की से केवल इतना कहा कि जीवनपर्यंत तुम्हें सुखी रखने की चेष्टा करूंगा. उसने मेरी बात सुनी और बोली,

‘इस दुःख की घड़ी में आपने हमारे परिवार का साथ दिया है, इसलिए मुझे विश्‍वास है कि आप मुझे छलेंगे नहीं.’ यही उसकी सहमति का संकेत था. फिर विवाह हुआ, सब कुछ पूर्ववत्-केवल ‘आप’ की जगह ‘मैं’ था.

लेकिन उस घटना का वंदना के मस्तिष्क पर ऐसा विपरीत प्रभाव पड़ा है कि विवाह से जुड़े किसी भी प्रसंग के सामने आते ही वह असहज हो उठती है. शिप्रा, मेरी बेटी के विवाह में लड़के वाले मोटरसाइकिल की मांग पर अड़े हुए हैं. इस बात को भी वंदना अपने विवाह से जोड़ लेती है और हताशा की दशा में बार-बार कहती है कि शिप्रा का विवाह भी उसी की तरह अपमानजनक ढंग से टूट जाएगा.

“अच्छा! यह बात है. तुम उनसे कह दो कि वंदना के विवाह की पुनरावृत्ति न होगी. शिप्रा का विवाह अवश्य होगा.” मैंने मन-ही-मन एक ठोस निर्णय ले लिया था. अरविंद जब जाने लगा तो मैंने उससे निवेदन किया कि वह वंदना को मेरे बारे में न बताये और साथ ही शिप्रा के होनेवाले ससुराल का पता भी पूछ लिया.

दूसरे ही दिन मैंने उस स्थान का पता लगा लिया, जहां शिप्रा का होनेवाला पति काम करता था. मैंने उससे भेंट की और आवश्यक कार्य के बहाने उसे एक होटल में ले गया. हम दोनों एक-दूसरे के लिए अपरिचित थे. मैंने अपना परिचय दिया और अपने विवाह से जुड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बारे में बताया. फिर अरविंद के साहस भरे निर्णय के बारे में भी बताया. अंत में मैंने उससे मिलने का उद्देश्य भी स्पष्ट किया, “देखो बेटा! मुझे मालूम है कि तुम्हारे परिवार की ओर से विवाह में मोटरसाइकिल की मांग है. मैं यह भी जानता हूं कि शिप्रा, तुम्हारी होनेवाली पत्नी के पिताजी इस मांग को पूरा कर पाने में असमर्थ हैं. दहेज की इस क्रूर कुरीति को नष्ट करने में तुम्हारे जैसे युवाओं के पहल की आवश्यकता है.”

“लेकिन अंकल, मैं अपने विवाह के बारे में अपने ही मुंह से ये सब बातें अपने पिताजी से कैसे कहूं?”

“आज से चौबीस वर्ष पूर्व यही मानसिकता मेरी भी थी बेटा. मैं अपने बड़ों से बात करने का निर्णय न ले पाया और आज तक पश्‍चाताप की आग में झुलस रहा हूं. उस समय अरविंद ने जो निर्णय लिया, उस निर्णय पर आज भी अरविंद को गर्व है. क्या तुम नहीं चाहोगे कि तुम भी अपने आज के निर्णय पर कल गर्व से मस्तक ऊंचा कर सको और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत कर सको?

बेटा! मैं अपने जीवनभर के अनुभव का निचोड़ तुमसे कह रहा था. अपने बाबूजी को समझाओ और फिर भी तुम लोग मोटरसाइकिल का मोह नहीं छोड़ सकते तो मैं तुम्हें 50 हज़ार रुपए का चेक दिए जा रहा हूं, ख़रीद लेना. यह मेरे लिए तो प्रायश्‍चित का एक अवसर है, लेकिन कभी-कभी मनुष्य को पश्‍चाताप और प्रायश्‍चित का अवसर भी नहीं मिल पाता. कहीं मेरी तरह तुम्हें.... ईश्‍वर तुम्हारी सहायता करें.” कहते हुए मैंने उससे विदा ली.

क़रीब सप्ताह भर मैं घोर असमंजस की स्थिति में रहा. क्या वह लड़का अपने बाबूजी को नहीं समझा सका होगा? क्या शिप्रा के विवाह की परिणति भी वंदना की तरह होगी....? अनेकों अनुत्तरित प्रश्‍न मस्तिष्क में कौंधते रहे.

एक दिन अचानक ही अरविंद बड़ा ही ख़ुश होता हुआ मेरे घर आया, “सर! चमत्कार हो गया. उन लोगों ने बिना किसी दहेज या उपहार के ही विवाह संबंध करना स्वीकार कर लिया है. लड़के के पिता ने मुझसे स्वयं भेंट की और बोले, शीघ्र ही विवाह की तिथि निकलवाइए और शिप्रा बेटी को विदा कीजिए.” अरविंद ने यह बात कहते-कहते मुझे भी विवाह का निमंत्रण कार्ड पकड़ाया और बोला, “सर, शिप्रा आपकी भी बेटी है, इससे अधिक मैं क्या कहूं.” वह मुझे निमंत्रित कर चला गया.

विवाह के दिन शिप्रा के ससुरजी ने अरविंद से पूछा, “भाईसाहब, आपके प्रशासनिक अधिकारी दुष्यंत शुक्लजी नहीं आये अब तक!”

“बुलाया तो था, लेकिन आप उन्हें कैसे जानते हैं?” अरविंद ने पूछा.

“इसलिए कि उन्होंने ही मेरी अंतर्रात्मा को जगाया. उन्होंने मेरे बेटे से भेंट कर सारी घटनाएं बताईं और यह भी कहा कि अगर तुम्हारे बाबूजी फिर भी अपनी मांग पर अड़े रहे तो यह 50 हज़ार रुपए का चेक उन्हें दे देना. मैं उन देवतातुल्य व्यक्ति से मिल कर उनका चेक वापस करना चाहता था और अपनी अविवेकपूर्ण मांग के लिए क्षमा भी मांगना चाहता था.” शिप्रा के ससूरजी ने वह चेक अरविंद को दिखाया.

अरविंद स्तब्ध रह गया. दुष्यंत नहीं आए, किंतु थोड़ी देर बाद उनका चपरासी आता दिख पड़ा.  उसने आकर अरविंद को एक पत्र पकड़ाया.

‘प्रिय अरविंद!

शिप्रा के विवाह में सम्मिलित न होने से तुम्हें आश्‍चर्य और दुःख हुआ होगा. इस विवाह में मेरी क्या भूमिका रही, यह भी तुम जान चुके होगे. लेकिन वंदना के विवाह में अपनी लज्जाजनक भूमिका के कारण ही मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रहा.

वह मुझे कभी भी क्षमा नहीं करेंगी, करना भी नहीं चाहिए, अतः मैं आ न सका.

शिप्रा बेटी से क्षमा चाहता हूं. वह रुपए शिप्रा को मेरी ओर से उपहार स्वरूप दे

देना. ईश्‍वर से मेरी प्रार्थना है कि वे अब वंदना को प्रसन्न और अवसाद से

मुक्त रखें. मैं संभवतः कभी न मिल सकूं, क्योंकि मैंने अपना स्थानांतरण करवा लेने का निश्‍चय कर लिया है- तब तक अवकाश पर अपने घर पर ही रहूंगा. सभी को शुभकामनाएं.

अरविंद स्तब्ध था. खैर! विवाह हुआ, शिप्रा पराई हुई, किंतु दुष्यंत एकदम से पराये होते हुए भी अब अरविंद और वंदना के हृदय में अपना स्थान बना चुके थे. वे सोच रहे थे- कोई व्यक्ति वर्षों पूर्व की गई भूल का ऐसा प्रायश्‍चित करेगा- सचमुच पश्‍चाताप और प्रायश्‍चित की यह पराकाष्ठा थी.

- डॉ. राम प्रमोद मिश्र

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