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कहानी- बस एक पल 1 (Story Series- Bas Ek Pal 1 )

  ‘‘अतुल, तुम परवाह बहुत करते हो, उनकी भी जिनकी नहीं करनी चाहिए. दूसरों का सहारा लेकर तुम ख़ुद को बचाना चाहते हो. जानते हो ऐसे लोगों को क्या कहते हैं- कायर, बुज़दिल!’’ तुम्हारी बेबाक़ बात सुनकर मैं तिलमिलाते हुए कहता था, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. मैं कायर नहीं हूं.’’ पर आज... आज मैं स्वीकार कर सकता हूं सिया कि वह तिलमिलाहट इसलिए नहीं होती थी कि तुम ग़लत थीं, बल्कि इसलिए थी, क्योंकि मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं इस सच को स्वीकार कर सकूं! घर में दो ही इंसान हों और उनमें भी अबोला की स्थिति हो तो घर कितना भयावह लगने लगता है, ये बात अब मेरी समझ में आ रही है. पिछले एक सप्ताह से ऐसा ही सन्नाटा पसरा है मेरे और मेरी बेटी रितु के बीच. रितु मुझे जान से प्यारी है, पर मैं उसकी हर ज़िद तो पूरी नहीं कर सकता न! उसकी मां आज ज़िंदा होती तो शायद हमारे बीच स्थिति कुछ बेहतर होती. पांच साल हो गए, पर आज भी उसकी कमी महसूस होती है- मुझे भी और रितु को भी. शायद मैं ही रितु के लिए उसकी मां की जगह नहीं ले पा रहा था. पर फिर सोचता हूं कि आख़िर ऐसा क्या चाह लिया है रितु ने, जो मैं इतना सोच रहा हूं? बस, यही न कि वह अपनी पसंद के लड़के निशांत से शादी करना चाहती है. सांवले रंग, आकर्षक व्यक्तित्व और बच्चों-सी मुस्कानवाला निशांत- एक बड़ी कम्पनी में सी.ए. है. जब निशांत मुझसे रितु की बात करने आया था, तो मुझे अचानक ही रितु की पसंद पर गर्व हो आया था. निशांत में वे सारे गुण थे, जिनकी ख़्वाहिश हर माता-पिता अपनी बेटी के वर के लिए करते हैं. सब कुछ ठीक था. मैं इस रिश्ते के लिए लगभग मान गया था और मैंने रितु से निशांत के माता-पिता से मिलाने को कहा. तभी रितु ने मुझे बताया कि निशांत की मां डॉक्टर हैं और निशांत उनकी गोद ली हुई संतान ह़ै. निशांत को उन्होंने शादी से पहले गोद लिया था. रितु की बात सुनकर मैं घबरा गया. जाने कौन-सा धर्म, कैसे संस्कार हों लड़के के? बिनब्याही मां का गोद लिया लड़का? मैं मान भी जाऊं, तो समाज और परिवारवाले क्या कहेंगे? मैंने कई बार रितु को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसने साफ़ कह दिया, ‘‘पापा, मैं शादी करूंगी तो स़िर्फ निशांत से और किसी से नहीं! मैं उससे बहुत प्यार करती हूं पापा, और आख़िर आप क्यों इंकार कर रहे हैं इस रिश्ते से...? क्योंकि वह गोद ली हुई संतान हैं? या इस डर से कि समाज क्या कहेगा?’’ न जाने कहां से आ गई थी इतनी हिम्मत उसमें! शायद प्यार से... या अपना प्यार खो देने के भय से! पर मैं क्यों नहीं जगा पाया था इतनी हिम्मत अपने अंदर, एक लड़का होकर भी. ठीक ही कहती थी सिया, ‘‘अतुल, तुम परवाह बहुत करते हो, उनकी भी जिनकी नहीं करनी चाहिए. दूसरों का सहारा लेकर तुम ख़ुद को बचाना चाहते हो. जानते हो ऐसे लोगों को क्या कहते हैं- कायर, बुज़दिल!’’ तुम्हारी बेबाक़ बात सुनकर मैं तिलमिलाते हुए कहता था, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. मैं कायर नहीं हूं.’’ पर आज... आज मैं स्वीकार कर सकता हूं सिया कि वह तिलमिलाहट इसलिए नहीं होती थी कि तुम ग़लत थीं, बल्कि इसलिए थी, क्योंकि मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं इस सच को स्वीकार कर सकूं! जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था कॉलोनी के बच्चों के साथ बारिश की रिमझिम फुहारों में भीगते हुए, शायद उसी दिन से मैं तुमसे प्यार करने लगा था. मैं बस तुम्हें देखे ही जा रहा था. कितनी सुंदर लग रही थीं तुम! लंबे काले बाल, स़फेद सूट, कजरारी काली आंखें और बच्चों-सी तुम्हारी खिलखिलाती हंसी...! जीवन के 55 वसंत देख लेने के बाद भी आज तक मैं उस दृश्य को एक पल के लिए भी नहीं भूल पाया हूं सिया! बाद में मुझे पता चला कि तुम लोग मेरे घर के बगल वाले मकान में ही रहने आये हो. तुमने उसी कॉलेज के प्रथम वर्ष में दाख़िला लिया था, जिसमें मैं पढ़ता था और हमारा विषय भी एक ही था. तुम बी.एससी. कर रही थीं और मैं एम.एससी. बगल में घर होने के कारण हमारे परिवारों में अच्छी मित्रता हो गई थी और तुम्हारा मेरे घर आना-जाना होने लगा था. एक दिन जब तुम्हारी मां ने मुझे तुम्हें पढ़ाने के लिए कहा तो मुझे लगा, मानो मेरे मन की मुराद पूरी हो गई हो और मैं तुम्हें पढ़ाने के लिए तुम्हारे घर आने लगा. जब कुछ समझाते हुए मैं तुम्हें अपलक अपनी ओर देखता पाता, तो बस बोलना भूल कर तुम्हारी ओर ही देखता रह जाता. तुम कितना खीझ जातीं और चिढ़कर कहतीं, ‘‘क्या अतुल, आप बोलते-बोलते कहां खो जाते हो?’’ मैं कैसे बताता तुम्हें कि मेरे ख़यालों में तो बसने वाली स़िर्फ तुम हो सिया. और देखते-देखते पूरा साल बीत गया. पढ़ाई के साथ-साथ मैं नौकरी की तलाश में भटकने लगा. कई परीक्षाएं देने के बाद भी नाक़ामयाबी ही हाथ लग रही थी. एक दिन मैं यूं ही अपनी छत पर उदास बैठा था कि तभी तुम वहां आ गईं और बोलीं, ‘‘आंटी ने बताया कि आप कुछ परेशान हैं. क्या हुआ जिस इंटरव्यू के लिए गए थे, वह नौकरी नहीं मिली क्या?’’ मैंने बुझे स्वर में कहा, ‘‘हां और अब लगता है कि कभी मिलेगी भी नहीं!’’ ‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? इतनी जल्दी हिम्मत मत हारिए, मैं हूं न आपके साथ! और पता है, मेरा मन कहता है कि बहुत जल्दी ही आपको बहुत अच्छी नौकरी मिलने वाली है.’’ उस पल न जाने कैसे मुझमें हिम्मत आ गई कि मैंने तुम्हारा हाथ थाम कर अपने प्यार का इज़हार कर दिया और तुमने भी पलकें झुका कर मेरे हाथों में अपना हाथ रखकर मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. कितना ख़ुश था मैं कि तुम मेरी हो गई हो. तुम्हारे आने से अचानक मेरे जीवन में सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होने लगा था.

- कृतिका केशरी

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