कहानी- आज्ञा चक्र 3 (Story Series- Aagya Chakra 3)
“कह देना उन लोगों को, उस समाज को कि मेरे दिव्यांश यहीं कहीं हैं. मेरे आस-पास. मेरी यादों में रचे बसे हैं. चल मेरे साथ मंदिर में.” प्रेरणा घसीटते हुए उसे मंदिर में ले गई.“देख वो मूरत देख, जो पत्थर की है. हम उसकी पूजा करते हैं और पुजारी लोग इसी के नाम का तिलक लगाते हैं. दिव्यांश भी ऐसे ही हैं... ईश्वर हो गए हैं वो... चाहे आसमां का सितारा हो गए हैं... या अमर आत्मा या कोई देह बन गए हैं फिर से, फिर ये रूप क्यों?”और प्रेरणा ने ईश्वर के साक्ष्य में दीपा के आज्ञा चक्र पर गोल मैरून बिंदी रख दी. दोनों सहेलियां गले मिलकर फफक पड़ीं.
प्रेरणा को लगा कि वो अपनी झोली फैला ले और उसकी बिंदी गिरने ना दे, जैसे दीपा अपनी क्लास में प्रोफेसर वालिया के लिए सोचा करती थी.
सच! कोई प्रार्थना काम नहीं आई और दिव्यांश सदा-सदा के लिए सो गए. आंसुओं का सैलाब बाढ़ बनकर उतर आया. दीपा भागकर दिव्यांश के गले लग गई. प्रेरणा ने देखा उसकी लगाई बिंदी भी काम नहीं आई. दीपा का माथा सूना हो गया. प्रेरणा ने दीपा को दिव्यांश से अलग करते हुए अपने सीने से लगा लिया. कहां गई वो बिंदी जो प्रेरणा ने लगाई थी. उसने देखा वो मैरून बिंदी चिरनिद्रा में लीन दिव्यांश की कमीज़ के कॉलर से झांक रही थी.
दिव्यांश के जाने के बाद टूट-सी गई थी दीपा. प्रेरणा दीपा के घर अब ज़्यादा जाने लगी थी. बच्चों का वास्ता देकर उसमें जीने की ललक पैदा करती. फिर से स्कूल में नौकरी के लिए तैयार करती. जीना तो पड़ेगा जैसे दर्शन से रू-ब-रू करवाती, पर उसके ड्रेसिंग टेबल के सामने जाते ही प्रेरणा को जैसे काठ मार जाता. रंग-बिरंगे बिंदी के पत्ते और सजने-संवरने का सामान देखकर प्रेरणा का कलेजा मुंह को आ जाता.
संभल गई थी दीपा इन दो सालों में. अपनी स्कूल की नौकरी पर भी जाने लगी थी. वैभव दसवीं में और विपुल आठवीं में आ गया था. दीपा वैभव के करियर के बारे में सोचती, उसके पापा होते, तो जैसा होता वैसा ही मुझे करके दिखाना है. यही उसके जीवन का उद्देश्य बन गया था.
पर प्रेरणा को उसका सूना माथा बेहद खलता. प्रेरणा ने तो उसी की वजह से बिंदी लगाना सीखा था. वो हर समय अपने आज्ञा चक्र पर उंगली का स्पर्श कर अपनी बिंदी संभालती रहती. एक दिन स्कूल से लौटते हुए प्रेरणा ने दीपा को कहा था, “दीपा, एक बात पूछूं? तू बिंदी क्यों नहीं लगाती.”
“क्या?” दीपा चौंकी थी.
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“बिंदी कहां अब मेरे भाग्य में?”
“क्यों?” प्रेरणा के स्वर में तल्ख़ी थी.
“हमारे समाज में विधवाएं बिंदी नहीं लगातीं.” बेहद कड़े शब्दों में दीपा का जवाब था. इतने कठोर शब्द सुनकर प्रेरणा का दिल छलनी हो गया था. फिर भी प्रेरणा ने हार नहीं मानी थी. वो बोली, “पर बिंदी तो आज्ञा चक्र पर लगाई जाती है ना.”
“तो?” दीपा स्कूल के मेन गेट से बाहर निकलने लगी.
“तो क्या, आज्ञा चक्र पर लगाने से इष्ट का ध्यान होता है ना.” प्रेरणा ने दीपा का हाथ सख़्ती से पकड़ लिया और उसे मेन गेट से बाहर निकलने नहीं दिया. इतने दिनों से मन में चल रहे चक्रवात को प्रेरणा आज मन के बाहर लाना चाहती थी.
“मतलब?”
“मतलब साफ़ है दीपा. तू ही तो कहती थी ना कि इस आज्ञा चक्र के पीछे इष्ट का ध्यान होता है और हम औरतें इसलिए ध्यान की मुद्रा में रहती हैं. सच बताना दीपा. जब से दिव्यांश गए हैं, क्या तू उन्हें एक मिनट के लिए भी भुला पाई. वही थे न तेरे इष्ट?”
“पर अपने समाज में यह प्रावधान नहीं है कि एक विधवा बिंदी लगाए.” दीपा बेहद सजग होकर जवाब दे रही थी.
“तू एक बार सोचकर देख दीपा, दिव्यांश तेरे आस-पास ही रहते हैं, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, वो हमेशा तेरे साथ होते हैं. फिर ये बिंदी हटाकर तुम क्या बताना चाहती हो समाज को?”
“हां प्रेरणा, इस बात से इंकार नहीं कि मुझे हर समय दिव्यांश के अपने आस-पास होने का एहसास होता है. मुझे लगता है वो अमर हैं.”
“फिर बताओ दीपा, एक बिंदी हटाकर तुम दिव्यांश को पीछे क्यों करना चाहती हो? तुमने तो हमेशा बिंदी को दिव्यांश का पर्याय माना है ना. फिर अपने माथे को बिंदी से महरूम करके क्यों हमें भी कष्ट देती हो?”
“पर प्रेरणा, बिंदी तो सुहागन का प्रतीक होती है ना?”
“हां होती है, पर दीपा कहां गया तुम्हारा वो दर्शन कि पुजारी भी अपने इष्ट को याद करके आज्ञा चक्र पर तिलक लगाते हैं. उनका इष्ट तो ईश्वर होता है ना, जो दिखाई भी नहीं देता. कहां गया तुम्हारा वो दर्शन कि महिलाएं अपने पति और दायित्वों को अपना इष्ट मानकर आज्ञा चक्र पर बिंदी लगाती हैं और हर समय ध्यान मुद्रा में रहती हैं? क्या हुआ जो तुम्हारे दिव्यांश दिखाई नहीं देते.”
“पर वो लोग? वो समाज?”
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“कह देना उन लोगों को, उस समाज को कि मेरे दिव्यांश यहीं कहीं हैं. मेरे आस-पास. मेरी यादों में रचे बसे हैं. चल मेरे साथ मंदिर में.” प्रेरणा घसीटते हुए उसे मंदिर में ले गई.
“देख वो मूरत देख, जो पत्थर की है. हम उसकी पूजा करते हैं और पुजारी लोग इसी के नाम का तिलक लगाते हैं. दिव्यांश भी ऐसे ही हैं... ईश्वर हो गए हैं वो... चाहे आसमां का सितारा हो गए हैं... या अमर आत्मा या कोई देह बन गए हैं फिर से, फिर ये रूप क्यों?”
और प्रेरणा ने ईश्वर के साक्ष्य में दीपा के आज्ञा चक्र पर गोल मैरून बिंदी रख दी. दोनों सहेलियां गले मिलकर फफक पड़ीं. अश्रुधार के बीच दीपा के चेहरे पर स्मित रेखा थी.
संगीता सेठी
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