"लेकिन तुमने उनको अकेले छोड़ा ही क्यों..?” ग़ुस्से में शंकर ज़ोर से चिल्लाया."बहुत ज़ोर से आ गई थी... मजबूरी हो गई थी... फिर मैं रातभर से बाहर गया ही नहीं था...” नंदन बेचारगी व दुख भरे स्वर में बोला."घर में किसी को आने या जाने मत देना... और न किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है... जब तक हम घर नहीं पहुंचते... हम एकदम निकल रहे हैं.” शंकर ने फोन बंद कर दिया.
... "हां, शालिनी और रमन दोनो ही काफ़ी चालाक हैं, एक ही बेटी है कहीं पिताजी ने यह आम्रपाली पूरा का पूरा शालिनी के नाम न लिख दिया हो.” वरूण भी इस बात से चिंतित था.
सभी अपने-अपने कमरे में तैयार हो रहे थे. शिवप्रसादजी को भी तैयार कर व्हील चेयर में बिठा कर नंदन हाॅल में ले आया था और उनका कमरा ठीक करने चला गया था. तभी एक गों-गों जैसी चीख की आवाज़ के साथ शिवप्रसादजी व्हील चेयर से लुढ़क गए. सब जैसे थे, वैसे ही उनकी चीख की दिशा में दौड़े.
सबसे पहले सामने के कमरे से शंकर, शामी, चिंकी व शिया बाहर पहुंची. शिवप्रसादजी व्हील चेयर से नीचे लुढ़क गए थे और उनके पैर व्हील चेयर में फंसे हुए थे. वे ज़मीन पर लगभग औंधे हो गए थे. व्हील चेयर टेढ़ी हो गई थी, पर गनीमत थी कि उनके ऊपर नहीं गिरी थी.
"अरे, पिताजी गिर कैसे गए?..” शंकर, शामी व चिंकी मिल कर उन्हें सीधा करने लगे. तब तक सभी वहां पर पहुंच चुके थे. आवाज़ सुनकर नंदन भी घबराया हुआ कमरे से दौड़ कर बाहर आ गया.
"तू कहां गया था... पिताजी को इस तरह छोड़ कर..” वरूण ग़ुस्से में बोला.
"मैं तो कमरा ठीक कर रहा था, लेकिन बाबूजी गिरे कैसे? इन्हें तो मैं व्हील चेयर से बांध कर गया था.” नदंन आश्चर्य से बोला. अब सबने ध्यान दिया. शिवप्रसादजी की व्हील चेयर पर एक डोरी हमेशा बंधी रहती थी. उन्हें अगर थोड़ा-सा भी अकेला छोड़ना पड़े, तो उन्हें पेट से डोरी लपेट कर पीछे व्हील चेयर पर बांध देते थे, जिससे वे ग़लती से आगे की तरफ़ न गिर जाए. डोरी पास में ही नीचे पड़ी थी.
"पिताजी आप कैसे गिर गए..?” शंकर उनके कान के पास मुंह लाकर बोला. उसने देखा, पिता का चेहरा आतंकित लग रहा था और वे बार-बार हाॅल से दाएं तरफ़ वाले बरामदे से बाहर को जानेवाले रास्ते की तरफ़ सिर घुमा कर कुछ बुदबुदाने की कोशिश कर रहे हैं. इधर कुछ समय से उनका बोलना बहुत ही अस्पष्ट हो गया था. शंकर यूं ही उस बरामदे की दिशा में भी हो आया. उस तरफ़ बरामदे के बाद सर्वेंंट क्वार्टर्स थे, जिसमें एक में माली रह रहा था. शेष दो बंद पड़े थे. पीछे खाली जगह थी, फिर घने पेड़ थे. वह वापस आ गया. नदंन को एक ज़बर्दस्त डांट पिलाई. आम्रपाली के पीछे की तरफ़ तो इतने पेड़ हैं कि छोटा-मोटा जंगल जैसा लगता है. कहीं कोई बंदर न आ गया हो और पिताजी उससे डर गए हों. डोरी या तो अपने आप ही खुल गई या फिर बंदर भी डोरी खोल सकता है.
जितने मुंह उतनी बातें. तभी एकाएक शंकर की नज़रें सरस को ढूंढ़ने लगी. सभी वहां पर उपस्थित थे, पर सरस नहीं था, "सरस कहां है?..” उसने तेजी से रचिता से पूछा. उसने भी अनभिज्ञता से चारों तरफ़ देखा. तभी सबने देखा कि सरस उसी बरामदे से अंदर आ रहा था, जहां से शंकर अभी देख कर आया था.
"तुम कहां थे?.. मैं तो अभी उधर से ही आ रहा हूं.” शंकर ने कहा, तो सबका ध्यान इस बात पर चला गया. एकाएक सारी बातें चलचित्र की तरह सबके मस्तिष्क में कौंध गईं. सब प्रश्नवाचक नज़रों से सरस को देखने लगे.
"मैं तो पीछे के बरामदे में टेबल जोड़कर लंबी डाइनिंग टेबल बनाने की सोच रहा था. अपने पास चेयर्स की तो कमी नहीं है... आज से कुछ गेस्ट बढ़ जाएंगे... बाहर का व्यू भी अच्छा है और फिर हाॅल महिला संगीत के कार्यक्रम के लिए खाली भी करना है.” सबको अपनी तरफ़ देखते पा वह अचकचा कर बोला.
"पर तुम पीछे तो थे नहीं... मैं तो वहीं से होकर आ रहा हूं.” शंकर बोला.
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"मैं बरामदे से उतर कर पीछे चला गया था. बिजलीवाले को फोन किया है कि कुछ लाइट्स और लगा दे और कुछ पेड़ों पर भी लटका दे... पार्किंग में कुछ और लाइट्स लगानी पड़ेगी... ताकी पूरा उजाला हो सके.” सरस की बात का कोई भी जवाब न दे पाया. शायद उसे शिवप्रसादजी के गिर जानेवाली घटना के बारे में या तो पता नहीं था या वह एक्टिंग कर रहा था.
नाश्ता लग गया था. सब नाश्ते के लिए टेबल पर आ गए. शिवप्रसादजी की प्लेट लगा कर नदंन उनके पास बैठ कर दलिया खिलाने की कोशिश करने लगा. सब चुपचाप नाश्ता कर रहे थे, पर दिमाग़ में अजीब-सी उलझन महसूस कर रहे थे. सभी लगभग एक ही बात सोच रहे थे कि रचिता और सरस परिवार के सदस्य नहीं थे. उन्हें घर में न ठहरा कर बाहर ही ठहराना उचित रहता, लेकिन अब क्या किया जा सकता था.
शाम तक कुछ और गेस्ट भी आ गए. घर की सभी महिलाओं के पास शादी में पहननेवाले गहनों की सुरक्षा की मुश्किल हो रही थी. कमरे में बार-बार ताला लगाना मुश्किल था, इसलिए यह तय किया गया कि पिताजी के कमरे में जो बड़ी व मज़बूत आलमारी है, उसमें सभी अपनी ज़रूरी चीज़ें व कैश रख दें. उसकी एक चाबी शंकर के पास रहे व एक चाबी पिताजी के तकिएवाली हिस्से में बिस्तर के नीचे छिपा दें. ताकि जिसको ज़रूरत पड़े उस चाबी से आलमारी खोल ले. पिताजी का कमरा एकदम सामने पड़ता है, इसलिए वहां पर निगरानी रखना भी सरल है. दूसरा नंदन हर समय कमरे में रहता है.
शादी को एक दिन रह गया था. शाम को महिला संगीत का कार्यक्रम घर में किया गया. उसके लिए हाॅल काफ़ी बड़ा था. सभी मेहमान पहुंच गए थे. शिवप्रसादजी के दोस्त अभय बाजपेयीजी भी दोपहर का फ्लाइट से पहुंच गए. उन्हें देख कर शिवप्रसादजी के चेहरे पर अजीब से राहत के चिह्न नज़र आए. रात को संगीत की महफ़िल ज़ोरों पर थी. संगीत महफ़िल में बड़े क्या, छोटे क्या सब अपनी मस्ती में थे.
दूसरे दिन हल्दी की रस्म भी पूरे विधि-विधान से संपन्न हुई. घर में पहली शादी थी, इसलिए फ़िलहाल सब प्राॅपर्टी की बात भूल कर शादी के रंग में रंग गए थे. माली जगजीवन भी भाग-भाग कर कई कार्य फटाफट निबटा रहा था. रह-रह कर उसके नाम की पुकार हो जाती और वह ख़ुद को आम्रपाली का काफ़ी महत्वपूर्ण सदस्य समझने लगता. हल्दी रस्म का कार्यक्रम ख़त्म हुआ. लंच के बाद बाहर से आए मेहमान चले गए. रात को शादी थी. महिलाओं को पहले ब्यूटीपार्लर जाना था.
शाम होते-होते घर की सभी महिलाएं निकल गईं. घर में सिर्फ़ पुरुष रह गए. सबसे पहले सरस तैयार हुआ. रचिता को पार्लर फोन किया, वह लगभग तैयार ही थी उसने सरस को पहुंचने के लिए कहा. क्योंकि दोनों को जल्दी विवाह स्थल पर पहुंचकर इंतज़ाम भी देखने थे. शंकर-शामी सात बजे तक निकल गए. आठ बजे तक सभी चले गए. सबसे आख़िर में वरूण और अभय बाजपेयीजी निकले. वरूण नंदन को सख़्त हिदायत दे गया कि पिताजी को एक मिनट भी अकेला न छोड़े. गेट पर रामसिंह था. पीछे जगजीवन सर्वेंट क्वार्टर में था. सबके जाने के बाद सब कुछ ठीक-ठाक कर जगजीवन भी 12 बजे तक अपने कमरे में चला गया. उसने जैसे ही अपने कमरे का दरवाज़ा खोला, तो आश्चर्यचकित रह गया.
बारात अभी-अभी पहुंच गई थी. द्वाराचार की रस्में पूरी होने के बाद जयमाल के लिए दुल्हन की पुकार शुरू हो गई. साजन से मिलन को सजनी सितारों से ढकी ओढनी की छांव में धीरे-धीरे चली आ रही थी. अनुकूलित गीत-संगीत वातावरण की सुंदरता को बढ़ा रहा था. जयमाल, फेरे सभी मौक़ों पर... घराती-बराती सबका उत्साह उफान पर था. लड़की के माता-पिता उत्साहित होने के साथ-साथ एक अव्यक्त पीड़ा भी महसूस करते हैं... वही पीड़ा शंकर व शामी भी महसूस कर रहे थे. चिंकी उनकी इकलौती बेटी थी. उसके जाने के बाद घर एकदम सूना हो जाएगा. विदाई का समय आते-आते सुबह हो गई. चिंकी मां से लिपट कर रोए चली जा रही थी. चाचियों ने उसे किसी तरह अलग कर कार में बिठाया. बरात सबका धन्यवाद करते हुए विदा हो गई.
सब वापस पलटे. रातभर के सभी थके थे. तभी शंकर के मोबाइल की घंटी बज गई. आम्रपाली से नंदन का फोन था, "हां बोलो क्या हुआ तुम इतने घबराए हुए क्यों हो?” शंकर फोन पर कह रहा था.
"शंकर भैेया... बाबूजी...”
"क्या हुआ बाबूजी को... हम घर ही आ रहे हैं.” शंकर चौंक कर बोला.
"शंकर भैया, किसी ने बाबूजी को मार डाला... वे ज़िंदा नहीं हैं...” नंदन लगभग रोता हुआ बोला.
"क्या..?” शंकर इतनी ज़ोर से चीखा कि उसकी आवाज़ सुनकर सब चौंक गए. अंदर की तरफ़ जाते सारे परिवार जन व रिश्तेदार शंकर के इर्दगिर्द जमा हो गए.
"हां भैया मैं दस मिनट के लिए 4 बजे के क़रीब टाॅयलेट गया. मुझे 15-20 मिनट तो लगे होंगे. जब वापस आया, तो मैंने यही सोचा कि बाबूजी सो रहे होंगे. मैं थोड़ी देर लेट गया. लेकिन फिर उजाला होने लगा था. बाबूजी को कोई हरकत न करते देख मैं उनके पास गया कि आज इतना कैसे सो रहे हैं... तो देखा, वे ठंडे पड़े हैं.”
"लेकिन तुमने उनको अकेले छोड़ा ही क्यों..?” ग़ुस्से में शंकर ज़ोर से चिल्लाया.
"बहुत ज़ोर से आ गई थी... मजबूरी हो गई थी... फिर मैं रातभर से बाहर गया ही नहीं था...” नंदन बेचारगी व दुख भरे स्वर में बोला.
"घर में किसी को आने या जाने मत देना... और न किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है... जब तक हम घर नहीं पहुंचते... हम एकदम निकल रहे हैं.” शंकर ने फोन बंद कर दिया.
"क्या हो गया?” पास खड़े समर व वरूण ने पूछा. हालांकि वस्तुस्थिति से सभी अवगत हो गए थे.
"पिताजी को किसी ने मार डाला.” शंकर मायूसी व दहशत से बोला. इस घटना ने सबके बीच खलबली मचा दी. सभी दहशत में आ गए थे.
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