माया के ऐसे स्वभाव के कारण मनीष के सारे रिश्तेदार एक-एक कर उससे दूर होते चले गए. मनीष का भरा-पूरा परिवार था, मगर माया ने अपने कर्कश और स्वार्थी स्वभाव के कारण उसे अपने परिवार से अलग कर दिया. सारी उम्र वह अकेला, एकाकी जीवन जीता आया था. बस, इकलौती बेटी सौम्या के प्यार ने ही उसके जीवन में थोड़ी हरियाली बनाए रखी थी.यह तो अच्छा था कि सौम्या का स्वभाव अपनी मां पर नहीं गया था. वह भावनाओं और रिश्तों की अहमियत को समझती थी. उसके उठाए क़दम की उन्होंने मन ही मन सराहना की, पर माया के सामने उन्होंने मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझा.
जब से सोमी का फोन आया था, तभी से माया विचलित-सी घूम रही थी और परेशान लग रही थी. सोमी अर्थात् सौम्या माया की इकलौती बेटी है. चार माह पहले ही सोमी का विवाह बड़ी धूमधाम से सौवीर से हुआ था. अगले महीने सौवीर की बुआ की बेटी की शादी है. बुआ ग्वालियर की रहनेवाली हैं, पर उनकी बेटी का ससुराल लखनऊ का है. सोमी भी सौवीर के साथ लखनऊ में ही रहती है, इसीलिए बुआ लखनऊ आकर सोमी के घर से ही अपनी बेटी का ब्याह करनेवाली हैं.
इस जानकारी के बाद से ही माया का मन संताप से भरा हुआ था. ‘सोमी अभी स्वयं बच्ची है. वह ब्याह की ज़िम्मेदारी कैसे उठा पाएगी? सौवीर की बुआ तो वैसे ही काफ़ी तेज़ हैं. मेरी सीधी-सादी बेटी का अच्छा फ़ायदा उठाया उसने. अभी तो सोमी ख़ुद अपनी घर-गृहस्थी को ही ठीक से जमा नहीं पाई होगी और ये पहुंच गई अपनी बेटी का ब्याह रचाने.’ माया के पति ने उसे परेशान देखकर उससे पूछा कि वो परेशान क्यों है, तो माया ग़ुस्से से फट पड़ी और पूरा वाकया उन्हें कह सुनाया.
माया के पति मनीष एक गहरी सांस लेकर चले गए. वे जानते थे कि माया कितनी स्वार्थी और संकीर्ण विचारोंवाली महिला है. किसी की मदद करना या किसी का साथ देना, तो उसके स्वभाव में ही नहीं है. वह हमेशा इस डर से लोगों से और नाते-रिश्तेदारों से अलग-थलग और कटी-कटी रही कि कहीं कोई उसका फ़ायदा न उठा ले, कोई पैसे की मांग न कर ले.
माया के ऐसे स्वभाव के कारण मनीष के सारे रिश्तेदार एक-एक कर उससे दूर होते चले गए. मनीष का भरा-पूरा परिवार था, मगर माया ने अपने कर्कश और स्वार्थी स्वभाव के कारण उसे अपने परिवार से अलग कर दिया. सारी उम्र वह अकेला, एकाकी जीवन जीता आया था. बस, इकलौती बेटी सौम्या के प्यार ने ही उसके जीवन में थोड़ी हरियाली बनाए रखी थी.
यह तो अच्छा था कि सौम्या का स्वभाव अपनी मां पर नहीं गया था. वह भावनाओं और रिश्तों की अहमियत को समझती थी. उसके उठाए क़दम की उन्होंने मन ही मन सराहना की, पर माया के सामने उन्होंने मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझा.
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अगले चार दिनों तक माया की भुनभुनाहट चलती रही, जिससे उसने अपना रक्तचाप भी बढ़ा लिया. हारकर मनीष ने आठ दिन बाद का लखनऊ जाने का दोनों का रिज़र्वेशन करवा लिया. अब माया को चैन आया कि वह सौम्या को समझाएगी कि वह ऐसी बेवकूफ़ी न करे.
आठ दिन बाद ही मनीष और माया सौम्या के घर पहुंच गए. सौवीर को कंपनी की ओर से अच्छा बंगला मिला हुआ था. सौम्या के सास-ससुर दिल्ली में रहते थे. सौवीर की नौकरी लखनऊ में थी. वह एक बहुत बड़ी कंपनी में उच्च पद पर था. तभी माया ने सोच-समझकर सौम्या के वर के रूप में उसका चुनाव किया था कि सौम्या के पास अच्छा पैसा रहे, लेकिन सास-ससुर का झंझट उसके सिर पर न रहे.
खाना खाने के बाद सौवीर ऑफिस चला गया और मनीष कमरे में जाकर आराम करने लगे. तब माया को मौक़ा मिला और वह सौम्या से बातें करने लगी.
“यह क्या है सौम्या? सौवीर की बुआ की बेटी की शादी तेरे यहां से क्यूं हो रही है?”
“उनकी बेटी का ससुराल यहीं है, तो मैंने ही कहा कि शादी यहीं से कर दीजिए.” सौम्या ने सरलता से कहा.
“अरे, पर तुझे ये सब झंझट अपने सिर पर लेने की ज़रूरत ही क्या थी. उनकी बेटी है, वो अपने घर से शादी करतीं.” सौम्या की मूर्खता पर माया ने सिर थाम लिया.
“ओह मां! वो तो ग्वालियर से ही शादी कर रही थीं, लेकिन बुआ की आर्थिक स्थिति उनकी बेटी रूपाली के ससुरालपक्ष जितनी अच्छी नहीं है. रूपाली का भरा-पूरा ससुराल है, तो इतने बारातियों को ग्वालियर लाने व ले जाने और रहने-खाने का ख़र्चा बहुत ज़्यादा हो रहा था, इसलिए मैंने और सौवीर ने तय किया कि रूपाली का ब्याह हम अपने यहां से करेंगे.” सौम्या के चेहरे पर ख़ुशी छलक रही थी, जैसे कि उसी की बेटी का ब्याह हो.
“तू तो नीरी नादान और भोली है. अभी दुनियादारी के दांव-पेंच को नहीं समझती. तुझे इतने ख़र्चे और फालतू की झंझटों में पड़ने की क्या ज़रूरत है? अभी तेरे हंसने-खेलने के दिन हैं. ये ज़िम्मेदारियों का बोझा ढोने के नहीं और एक बार रिश्तेदार भांप लेंगे, तो हर बार तुझे ही बलि का बकरा बनाएंगे. अच्छा तरीक़ा निकाला सौवीर की बुआ ने तुझे कोसने का.” माया ने भुनभुनाते हुए कहा.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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