फिर लड़कियों का जीवन भी तो कांच-सा नाज़ुक होता है. अलग रहकर यदि मैं उन्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा कर भी लेती, तब भी उनके विवाह के समय परेशानी आ सकती थी, क्योंकि समाज चाहे कितना भी अत्याधुनिक होने का दम भर ले... शादी-ब्याह जैसे मामलों में माता-पिता का मान-सम्मान, नाम, इ़ज़्ज़त सब कुछ बहुत महत्व रखता है, विशेषकर लड़कियों के मामले में. यही सब सोचकर उस व़क़्त मैं तुम्हारे घर में रुक गई थी.
जिस दिन तुमने मुझे तुम्हारे व वृषाली के संबंधों के बारे में बताया था, तब मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी ईमानदारी से स्पष्ट शब्दों में तुमने समझा दिया था मुझे कि मैं पति के रूप में तुमसे कोई अपेक्षा न रखूं, क्योंकि अब तुमसे मैं और अधिक झेली नहीं जा रही थी. हां, तुमने मुझे घर से निकाला नहीं था. यह कहकर कि पत्नी का दर्ज़ा प्राप्त होने के नाते तुम यहां रह सकती हो, खा-पी सकती हो, पहन-ओढ़ सकती हो, सुख-सुविधाओं को भोग सकती हो.
तुमने तलाक़ भी नहीं मांगा था मुझसे, क्योंकि वृषाली ने तुम्हारे समक्ष शादी की कोई शर्त भी नहीं रखी थी. वह भी तो बिल्कुल तुम्हारी तरह आज़ाद ख़याल, अत्याधुनिक लड़की थी. तुमने तो मुझे यह तक कह दिया था कि मैं भी यदि चाहूं तो किसी और को अपना सकती हूं, तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा.
परंतु मेरा चुप रह जाना, तुम पर रोक न लगाना, विरोध न जताना... तुम्हारा घर न छोड़ना... इन सबसे शायद तुमने यही मान लिया था कि तुम्हारे मुझ पर किए गए एहसानों तले मैं दबकर रह गई हूं. तुमने मुझे घर से बेदखल भले ही नहीं किया था, पर तुम्हारे दिल से तो मैं निकल ही चुकी थी. मैं आत्मनिर्भर थी. तुम्हारे घर में रहना मेरी ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं थी, पर केवल रिया व सपना के प्रति मेरे कर्तव्यों ने मेरे क़दम रोक दिए थे.
उन दिनों रिया सात व सपना दस साल की थी. तुम्हारे घर छोड़ देने से मुझ पर परित्यक्ता का लांछन लग जाता और मान लो यदि लोग मुझे सही मान भी लेते तो ऑटोमेटिकली तुम चरित्रहीन साबित हो जाते. दोनों ही स्थितियों में नुक़सान तो हमारी बेटियों का ही होता.
बढ़ती उम्र के नाज़ुक दौर में यदि वे कुंठाग्रस्त हो जातीं, तो उनके प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते. सामान्य बच्चों की तुलना में वे निश्चित रूप से पिछड़ जातीं. रिया और सपना ही तो मेरे जीवन का ध्येय शेष रह गई थीं. उनका मानसिक विकास निर्बाध रूप से होना आवश्यक था.
माता-पिता के विच्छेद का बाल मन पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है. मेरे अलग रहने के निर्णय से रिया व सपना में हीनभावना पनपने का भय था. इस उम्र में अपरिपक्व मस्तिष्क सही-ग़लत के बीच भेद जानने-समझने में असक्षम होता है. हो सकता है वे उस व़क़्त मुझे ही ग़लत मान बैठतीं. पिता से दूर करने का, पिता के प्यार से वंचित करने का मुझ पर आरोप भी लगातीं. बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए माता-पिता दोनों के स्नेह की छाया अनिवार्य होती है. मैं अपनी बच्चियों को उनके हक़ से वंचित कैसे कर सकती थी भला?
फिर लड़कियों का जीवन भी तो कांच-सा नाज़ुक होता है. अलग रहकर यदि मैं उन्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा कर भी लेती, तब भी उनके विवाह के समय परेशानी आ सकती थी, क्योंकि समाज चाहे कितना भी अत्याधुनिक होने का दम भर ले... शादी-ब्याह जैसे मामलों में माता-पिता का मान-सम्मान, नाम, इ़ज़्ज़त सब कुछ बहुत महत्व रखता है, विशेषकर लड़कियों के मामले में. यही सब सोचकर उस व़क़्त मैं तुम्हारे घर में रुक गई थी.
स्निग्धा श्रीवास्तव
अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES