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कहानी- अर्द्धविराम 2 (Story Series- Ardhviraam 2)

कल तक जो बातें उन्हें बच्चों की व्यर्थ की आलोचना लगती थी, आज उनमें सार नज़र आ रहा था. ये बातें उनके हृदयातल पर चोट पहुंचा रही थीं. निराशा की एक तीखी लहर उनके मन को चीरती हुई चली गई. तो क्या अब उनके साथ भी ऐसा ही... नहीं... नहीं, अपने साथ वह ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे. पहले ही स्वयं को समेट लेंगे. उनके आत्मसम्मान को कोई ठेस पहुंचाए, यह उन्हें गवारा नहीं. इसी चिंता में पिछली पूरी रात वे सो नहीं पाए थे. सुबह हुई, तो क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद इधर चले आए थे. सभी ने अपनत्व से उन्हें गले लगा लिया था. देवेशजी बोले थे, “तुम तो चार दिनों में ही कमज़ोर हो गए हो. चिंता किस बात की है तुम्हें? अच्छी भली पेंशन मिलेगी, आरव की अपनी फैक्ट्री है. स्वयं का इतना बड़ा मकान है.” “चिंता रुपए-पैसे की नहीं देवेशजी, चिंता समय व्यतीत करने की है.” उन्होंने बुझे स्वर में कहा. तभी रवनीशजी, जो उन सब में सबसे बुज़ुर्ग थे, बोले, “देखो आदित्य, सारी ज़िंदगी तुमने मेहनत की है. अब समय है, थोड़ा रिलैक्स रहो. अपनी पत्नी के साथ क्वालिटी टाइम बिताओ. अपने पोते के बचपन को एंजॉय करो.” “नहीं रवनीशजी, मैं खाली नहीं बैठ सकता. खाली रहा, तो बीमार पड़ जाऊंगा.” उन्होंने संजीदगी से कहा. इस पर रमाशंकरजी बोले, “आदित्य ठीक कह रहे हैं. खाली बैठना बिल्कुल ठीक नहीं. खाली आदमी की कोई कद्र नहीं होती. अपने ही घर में वह अनचाहा सामान बनकर रह जाता है. यह मैं स्वयं के अनुभव से कह रहा हूं. कल तक नौकरी थी, तो कद्र थी. आज हर कोई फालतू समझता है, यहां तक कि पत्नी भी बात-बात पर टोकती रहती है.” निखिलजी की आंखों में भी दर्द सिमट आया था.
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भर्राए कंठ से वह बोले थे, “सवेरे चाय के साथ अख़बार पढ़ना वर्षों की आदत थी. यहां तक कि बेटा स्वयं मेरे कमरे में अख़बार रख जाया करता था, किंतु रिटायर होने के अगले ही दिन बेटे ने कह दिया, ‘पापा, आप सारा दिन घर में रहेंगे, बाद में पढ़ लीजिएगा. पहले मुझे पढ़ने दीजिए.’ बेटे के जाने के बाद बहू पेपर पढ़ने बैठ जाती है. 11 बजे से पहले कभी पेपर हाथ नहीं आता. इसके अलावा बहू ज़रा भी संवेदनशील नहीं. न सर्दी देखती है, न गर्मी, जब देखो थैला हाथ में पकड़ाकर बाज़ार भेज देती है. यह भी नहीं सोचती, इनका बुढ़ापा है, थक जाते होंगे.” कल तक जो बातें उन्हें बच्चों की व्यर्थ की आलोचना लगती थी, आज उनमें सार नज़र आ रहा था. ये बातें उनके हृदयातल पर चोट पहुंचा रही थीं. निराशा की एक तीखी लहर उनके मन को चीरती हुई चली गई. तो क्या अब उनके साथ भी ऐसा ही... नहीं... नहीं, अपने साथ वह ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे. पहले ही स्वयं को समेट लेंगे. उनके आत्मसम्मान को कोई ठेस पहुंचाए, यह उन्हें गवारा नहीं. सोचते हुए वे घर की ओर चल दिए.   रेनू मंडल
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