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कहानी- बदली बदली सी बयार 3 (Story Series- Badli Badli Si Bayar 3)

“कल रात से ही. क्षितिज से लंबी बहस के बाद मैं पर्स उठाकर घर से निकल गई. कपड़े तक साथ लाने का ख़्याल नहीं रहा. ऑनलाइन कुछ कपड़े ऑर्डर किए हैं. कल तक आ जाएंगे. क्रेडिट कार्ड और मोबाइल तो पास है ही, पर पासपोर्ट आदि लेने जाना पड़ेगा. पहले सोचा भाई को बुला लूं, पर फिर पापा-मम्मी को कौन संभालेगा?”
मुझे लगा शायद वह मुझे साथ चलने को कहेगी, पर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा.
… “समझ में नहीं आता ग़लत होने के बावजूद उसने अपने मोबाइल से सारे साक्ष्य मिटाए क्यों नहीं? या तो वह ज़रूरत से ज़्यादा स्मार्ट है या निहायत ही बेवकूफ़. मुझे तो लगता है उसे मनोचिकित्सा की ज़रूरत है.”
“तुमने उससे बात की?”
“हां! कहने लगा ऐसा कुछ नहीं है. तुम ग़लत समझ रही हो. गोलमोल बातें करने लगा. कभी कहता है उसके साथ धोखा हुआ है. वह सिर्फ़ मुझसे प्यार करता है. मुझे उसकी किसी बात पर भरोसा नहीं रहा है. मैंने अपने घरवालों को भी बता दिया है. उन्होंने उसके घरवालों से बात की, तो उन्होंने भी अपनी अनभिज्ञता जताई.”
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मैं मुंह फाड़े सब सुन रही थी. यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि यह सब हक़ीक़त में हुआ है.
“…घरवालों को भी क्या दोष दूं? उन्होंने तो अपनी तरफ़ से देख-समझ कर ही रिश्ता तय किया था. वे तो ख़ुद सदमे में हैं. पापा की शुगर लो चल रही है, तो मम्मी का बीपी हाई. वैसे वे मेरे साथ हैं. कह रहे हैं छह महीने की शादी के पीछे पूरी ज़िंदगी दांव पर नहीं लगाई जा सकती. अभी मैंने ऑफिस में किसी को नहीं बताया है. व्यर्थ ही लोगों के उपहास और सहानुभूति की पात्र नहीं बनना चाहती. मैंने आगे होकर लंदनवाला प्रोजेक्ट ले लिया है, जिसके लिए कोई इच्छुक नहीं था. वीज़ा आते ही मैं दो महीनों के लिए लंदन निकल जाऊंगी. तब तक होटल में शिफ्ट हो गई हूं.”
“क्या? कब?”
“कल रात से ही. क्षितिज से लंबी बहस के बाद मैं पर्स उठाकर घर से निकल गई. कपड़े तक साथ लाने का ख़्याल नहीं रहा. ऑनलाइन कुछ कपड़े ऑर्डर किए हैं. कल तक आ जाएंगे. क्रेडिट कार्ड और मोबाइल तो पास है ही, पर पासपोर्ट आदि लेने जाना पड़ेगा. पहले सोचा भाई को बुला लूं, पर फिर पापा-मम्मी को कौन संभालेगा?”
मुझे लगा शायद वह मुझे साथ चलने को कहेगी, पर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा. नीति से मैंने एक बात सीखी है. इंसान जब भी मुसीबत में हो, मदद मांगने के लिए आईने के सामने खड़ा हो जाए. मददगार नज़र आ जाएगा.
नीति का होटल मेरे घर के समीप ही था. हम अब ऑफिस से साथ लौटने लगे. वहां देर रात तक बातें कर मैं घर लौट आती. नीति ने क्षितिज के फोनकॉल्स अटेंड करना बंद कर दिया था. वह ऑफिस मिलने आता, तो वह बिल्डिंग से बाहर ही नहीं आती थी. नीति के आंसू अब सूखने लगे थे. अवसाद, गुस्सा शनैः शनैः हिम्मत, ज़िद में तब्दील हो रहा था.
“देखती हूं ज़िंदगी मुझे और कितना तोड़ सकती है? मेरे पास अब खोने को कुछ शेष नहीं रहा है. इसलिए मेरा डर ख़त्म हो गया है. मैं पहले से और ज़्यादा मज़बूत हो गई हूं.”’
“तुम्हें इतना आत्मविश्वासी और निडर मैंने पहले कभी नहीं देखा.”
“कल रात तुम्हें रवाना करने के बाद मैंने होटल छोड़ दिया था और घर चली गई थी.”
“क्या!” आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें
संगीता माथुर
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