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कहानी- बापू से पापा तक…3 (Story Series- Bapu Se Papa Tak…3)

Kahaniya इंसानों से तो कोई लड़ ले, अपना हक़ मांगे, छीने, पर विधि से कैसे लड़ती? जोशीजी से एक दिन की मोहलत मांगी, सामान समेटने के नाम पर. असल में तो अपना मन मज़बूत करने के लिए समय चाहिए था मुझे. बहुत कठिन था अपने परिचित माहौल को छोड़कर एक अनजान शहर में एक अनजान व्यक्ति के पास जाना. कहने को वो मेरे पिता सही, मेरे लिए तो वह अजनबी ही थे न!.. दो माह बीत गए. मां द्वारा संचित धन सब ख़त्म हो चुका. मौसी ने सलाह दी कि बापू को ख़बर कर देनी चाहिए, पर मां राज़ी नहीं हुईं. वह अपने लिए बापू का एहसान लेने को तैयार नहीं थीं, पर मेरे बारे में चिंतित अवश्य थीं. अत: उन्होंने मौसी से यह अनुरोध किया कि उनके जाने के पश्चात मुझे सुरक्षित उनके पास पहुंचा दिया जाए. तभी मौसी ने बताया था मुझे बापू के मनीआर्डर लौटा दिए जाने के बारे में. बापू का पता-ठिकाना ढूंढ़ना दुष्कर कार्य नहीं था. मां से पूरा नाम पाकर मौसी ने किसी आईएएस अफ़सर के ज़िम्मे उन्हें ढूंढ़ने का काम सौंप दिया. पता चला कि वह सपरिवार देहरादून में रहते हैं. मां को बिना बताए मौसी ने स्थिति स्पष्ट करते हुए उनके आवास पर पत्र भी डाल दिया. पन्द्रह दिन बीत गए वहां से कोई उत्तर नहीं आया. अच्छा है मां को कुछ पता नहीं था. दो दिन पश्चात उनकी मृत्यु हो गई. चार दिन और भी बीत गए कि देहरादून से टेलीफोन आया. वह परिवारसहित छुट्टी पर गए हुए थे. लौटते ही फोन किया था. इतनी शीघ्र दुबारा छुट्टी लेना सम्भव नहीं था, अत: उन्होंने अपने एक जूनियर सुकुमार जोशी को धनराशि देकर रवाना भी कर दिया था. मुझसे बात करने की इच्छा भी जताई, परन्तु मेरा मन ही नहीं किया बापू से बात करने को. बहुत क्रोध था मुझे उन पर. मां का मृत शरीर मेरी बात आंखों के सामने से हटता ही नहीं था. पिता ज़िम्मेवार नहीं थे उसके लिए, जानती हूं फिर भी. मैं तो चाहती थी कि उन्हें मां की मृत्यु के बारे में बताया ही न जाए, पर मौसी को बताना ही पड़ा. मां को दिया वचन, तो उन्हें निभाना ही था. बापू ने मौसी से मुझे जोशी के साथ देहरादून भेजने का इसरार किया. दूसरे दिन तड़के ही आन खड़े हुए सुकुमार जोशी. उन्हें भी आदेश मिल चुका था कि मुझे अपने संग देहरादून ले आएं. बिल्कुल ही मन नहीं था जाने का पर मेरे पास विकल्प ही क्या था? पिता पर आक्रोश था, मां को खोने का दर्द था और संसार में अकेली रह जाने की भयावह कल्पना थी- जो कल्पना नहीं, कटु सत्य था. बहुत प्यार करती थी मौसी मुझे इसमें ज़रा संदेह नहीं, पर किस अधिकार से उन पर बोझ बनती? मौसी ने समझाया, "बहुत प्यार करती हूं मैं तुमसे. मैं मां न सही मौसी तो हूं ही. तुम्हारे यहां रहने से मुझे अच्छा ही लगेगा, पर यह भी जानती हूं कि तुम्हारे लिए वही रहना बेहतर रहेगा. इस क़स्बे में तुम जैसी तीव्र बुद्धिवाले का कोई भविष्य नहीं. पिता के घर तुम्हें आगे बढ़ने की सब सुविधाएं प्राप्त होंगी." मौसी ने यह भी विश्‍वास दिलाया कि ज़रूरत पड़ने पर तुम कभी भी मेरे पास लौट आ सकती हो, अपनी मौसी का घर मानकर. यह भी पढ़ें: संपत्ति में हक़ मांगनेवाली लड़कियों को नहीं मिलता आज भी सम्मान… (Property For Her… Give Her Property Not Dowry) इंसानों से तो कोई लड़ ले, अपना हक़ मांगे, छीने, पर विधि से कैसे लड़ती? जोशीजी से एक दिन की मोहलत मांगी, सामान समेटने के नाम पर. असल में तो अपना मन मज़बूत करने के लिए समय चाहिए था मुझे. बहुत कठिन था अपने परिचित माहौल को छोड़कर एक अनजान शहर में एक अनजान व्यक्ति के पास जाना. कहने को वो मेरे पिता सही, मेरे लिए तो वह अजनबी ही थे न! और जिनके साथ जा रही हूं वह भी कौन अपने थे, पर विकल्प ही क्या था मेरे पास? जी सकती थी मैं इस उम्र में, इस दुनिया में अकेली? मेरा दुख और मेरी दुविधा और झिझक, सब समझ रहे थे जोशीजी. मैंने हमेशा लड़कियों के स्कूल में शिक्षा पाई थी, भाई तो था नहीं, अत: लड़कों से बात करने का अवसर कम ही मिला. और आज एक अजनबी के साथ लम्बा सफ़र करना पड़ रहा था. शुरू में बहुत असहज महसूस कर रही थी, किन्तु जोशीजी ने बहुत स्नेहपूर्वक बात शुरू की. मेरी पढ़ाई, मेरी रुचियों के बारे में पूछा. शौक़ तो ख़ैर मेरे क्या होने थे, हाँ पढ़ाई का मेरा रिकॉर्ड सुन अति प्रसन्न हुए. बहुत अपनत्व से कहा कि मैंने देहरादून आने का निर्णय बहुत सही लिया है. मैं शीघ्र ही सहज होकर उनसे बात करने लगी. उषा वधवा अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

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