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कहानी- बस एक पल 4 (Story Series- Bas Ek Pal 4)

”ठीक ऐसे ही समय आए थे मेरे जीवन में डॉ. विवेक… जिन्होंने यंत्र मानवी बन चुके इस शरीर में फिर से नारी सुलभ संवेदनाएं जगाईं. मेरे होंठों को फिर से मुस्कुराना सिखाया और मशीन बनकर रह गए मेरे हृदय को फिर से नई ताल पर धड़कना सिखाया… जिन्हें मैं हर कमी के साथ स्वीकार थी, जिन्हें मेरा निशांत स्वीकार था… आज मैं स़िर्फ उन्हीं की वजह से सफल हूं और ख़ुश भी…!’’
‘‘बस एक पल…! तुम्हारे लिए वह एक पल का निर्णय रहा होगा अतुल, पर उस एक पल ने मेरा पूरा जीवन तहस-नहस करके रख दिया था. तुम्हारे उस एक पल की सज़ा मैंने अपना जीवन देकर काटी है अतुल… पूरा जीवन…’’ सिया ने अतुल को लगभग झकझोरते हुए कहा.
‘‘तुम्हारे साथ जो किया था मैंने, उसकी सज़ा मुझे भी मिली है सिया. अपने शादीशुदा जीवन में एक पल के लिए भी वह ख़ुशी अनुभव नहीं कर पाया, जो मैंने तुम्हारे साथ चाही थी. तुम्हारी कमी को मेरा मन एक पल को भी भुला नहीं पाया था. मैं कायर था जितना यह सच है, उतना सच यह भी है कि मैंने तुमसे बहुत प्यार किया था सिया और तुमसे किए उस छल के कारण, मेरी आत्मा सदा ही मुझे कचोटती रही है. एक पल भी सुकून का नहीं पाया मैंने तुमसे अलग होकर सिया…’’
अतुल की आवाज़ कहीं दूर से आती लगी, ‘‘जब तक तुम मेरे साथ, मेरे पास थी मैंने तुम्हारी कद्र नहीं की. पर तुम्हारे जाने के बाद समझा कि तुम मेरे जीवन का कितना बड़ा सहारा बन चुकी थी. तुम बिन मैं स्वयं को बहुत असहाय और अधूरा महसूस कर रहा था. न जाने कितनी बार मैंने ईश्वर से दुआ मांगी कि एक बार, बस एक बार मुझे सिया से मिला दो, फिर मैं उसे कहीं जाने न दूंगा! पर मैं इतना कमज़ोर इंसान था कि एक बार तुम्हें ढूंढ़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका… जानता हूं कि ये सारी बातें, मेरे अपराध को या तुम्हारी तकलीफ़ को किसी तरह कम न कर सकेंगी, पर फिर भी… जो तकलीफ़ें तुमने सही हैं, उसकी तुलना में मेरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं…’’
कुछ पलों के बाद, वहां पसर आए सन्नाटे को तोड़ते हुए सिया ने कहा, ‘‘मैं जानती थी और जानती हूं कि तुम आज भी उतने ही कायर और भीरु हो जितने तब थे, वरना अपनी बेटी की ख़ुशियों का गला यूं न घोंटते! क्यों ऐतराज़ है तुम्हें इस शादी से? स़िर्फ इसलिए न, क्योंकि मैंने उसे गोद लिया है? पर मैं ही हूं उसकी मां भी और पिता भी! मैंने तो ऐसे पुरुष भी देखे हैं, जो अपनी कायरता को मजबूरी का नाम देने से नहीं चूकते!’’
‘‘निशांत कौन है सिया…?’’ अतुल ने ठहरे हुए स्वर में पूछा.
कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद सिया ने कहा, ‘‘तुम्हारे चले जाने के बाद मैं भरोसा खो चुकी थी ख़ुद पर से और दूसरों पर से भी. तुमसे प्यार करने की, तुम पर विश्वास करने की बहुत बड़ी सज़ा मिली थी मुझे. अब किसी और पर भरोसा करने की न तो मुझमें ताक़त बची थी और न ही इच्छा… घर वाले कह-कह कर हार गए कि शादी कर लो. पर मेरे मन में किसी भी रिश्ते के प्रति जो नाराज़गी और डर की भावना आ गई थी, उसने मुझे फिर किसी रिश्ते में बंधने नहीं दिया… फिर मैंने एम.बी.बी.एस. किया और मरीज़ों की सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. निशांत का जन्म मेरे ही हाथों हुआ था. उसे जन्म देते ही उसकी मां चल बसी और उसके पिता का पहले ही देहांत हो चुका था. मैं उसकी ममता के बंधन में बंध गई और इसे अपना लिया. बस, यही है मेरी और मेरे बेटे निशांत की कहानी! और रही संस्कारों की बात तो इतना कह देना काफ़ी होगा कि वह कायर या भीरु नहीं है. उसने जिस लड़की से प्यार किया, उसका हाथ मांगने वह ख़ुद आया था उसके पिता के पास…!’’
इतना कुछ सुनने के बाद भी अतुल के मन से शंका का बीज गया नहीं था, ‘‘और वह ख़ुशनसीब कौन है, जिसके नाम का सिंदूर है तुम्हारी मांग में सिया…?’’
उसने हंसकर अतुल की ओर देखा और व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, ‘‘तब निशांत 5 वर्ष का था और मैं अपने जीवन के 32 वसंत पार कर चुकी थी. ठीक ऐसे ही समय आए थे मेरे जीवन में डॉ. विवेक… जिन्होंने यंत्र मानवी बन चुके इस शरीर में फिर से नारी सुलभ संवेदनाएं जगाईं. मेरे होंठों को फिर से मुस्कुराना सिखाया और मशीन बनकर रह गए मेरे हृदय को फिर से नई ताल पर धड़कना सिखाया… जिन्हें मैं हर कमी के साथ स्वीकार थी, जिन्हें मेरा निशांत स्वीकार था… आज मैं स़िर्फ उन्हीं की वजह से सफल हूं और ख़ुश भी…!’’
अतुल ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘और मैं… मैं जीवन के उस मोड़ पर, जब एक साथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उदास और तन्हा खड़ा हूं… तुम्हें जो दुख दिए मैंने, उनकी सज़ा तो मिलनी ही थी मुझे… पर अब मैं फिर से वही ग़लती दोहराने की भूल नहीं करूंगा. जो मैंने 25 बरस पहले की थी. शायद इसी से मेरे पाप का कुछ प्रायश्चित हो सके…’’ इतना कह अतुल ने दोनों हाथ जोड़कर सिया से कहा, ‘‘हो सके तो मुझे माफ़ कर दो सिया और मेरी बेटी को अपने बेटे के लिए स्वीकार कर लो… मैं नहीं चाहता कि मेरी ग़लतियों की सज़ा मेरी बेटी भी भुगते… उसे स्वीकार कर लो सिया… उसे स्वीकार कर लो…!’’
अतुल की आंखों से छलक आए आंसुओं का मान रखते हुए सिया ने रितु को बुलाकर कहा, ‘‘अपने पापा को संभालो बेटा, ये तो तुम्हारे इस घर से चले जाने के ख़याल से अभी से रोने लगे हैं…! इनसे कहो कि कुछ आंसू तुम्हारी विदाई के व़क़्त के लिए भी बचाकर रखें…’’ सिया की बात सुनकर अतुल और रितु दोनों के चेहरों पर राहत भरी मुस्कान तैर गई.
– कृतिका केशरी
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