“तम्बाकू छोड़ने का इरादा कर लो सुलेख. यह कैंसर का कारण बनता है.”“लाखों लोग खा रहे हैं, फिर तो सभी को कैंसर हो जाना चाहिए.”“उन्हीं में से कुछ को होता है.”“उन्हें भी, जो तम्बाकू नहीं खाते हैं.”“ख़तरा खानेवालों को अधिक होता है.”“अच्छा अब वही सब दोहरा कर मेरा दिन ख़राब न करो. एक क्लेम के मुक़दमे ने पहले ही परेशान कर रखा है.”“तुम्हारे मुंह में यह जो छठे-छमासे छाले हो जाते हैं, वह किसी व्याधि की शुरुआत ही न हो?”“छोड़ने की कोशिश करूंगा. आदत धीरे-धीरे ही जायेगी.”“ऐसी आदत डालते ही क्यों हो, जो फिर जाती नहीं?”“वकालत ऐसा पेशा है, जहां एकाग्रता बनाये रखने के लिये व्यसन ज़रूरी हो जाता है. दिनभर मुवक्किलों के साथ माथा खपाना होता है. तम्बाकू मैं शौक़ से नहीं, तनाव से बचने के लिये खाता हूं.” सुलेख इसी तरह अपनी चमत्कारी तार्किक क्षमता से झूठ को सच, ग़लत को सही सिद्ध करता रहा है.
तानिया ने जैसे ही सुबह अख़बार में पढ़ा कि आज ‘तम्बाकू निषेध दिवस’ है तो उसने सुलेख से तुरंत कहा, “सुलेख, क्या तुम्हें मालूम है आज ‘तम्बाकू निषेध दिवस’ है? यह तुम्हें अजीब-सा नहीं लगता कि ‘तम्बाकू निषेध दिवस’ भी मनाना है और बाज़ार में खुलेआम तम्बाकू भी बिकती रहे. आख़िर क्या है इस दिवस को मनाने का प्रयोजन और क्या कोई एक भी व्यक्ति इस दिवस को मान्यता देते हुए तम्बाकू त्याग करता होगा?”
सुलेख को लगा तानिया उस पर कटाक्ष कर रही है, “यह सब सुनाकर क्या तुम मुझे ताने दे रही हो? अपने मुंह के छालों के कारण मैं पहले ही परेशान हूं.”
यही होता है. दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति होती है या कटुता की. सामान्य भाव से न कोई कुछ कहता है, न दूसरा ग्रहण करता है.
दस बजे सुलेख कार्यालय चले गये और ग्यारह बजे डॉ. कॉलरा फ़ोन पर थे,
“देखिये मिसेज सूर्यवंशी... आपको पता ही होगा सूर्यवंशीजी मुझसे ट्रीटमेंट ले रहे हैं. दरअसल, मैं उनसे ऐसा कुछ नहीं कहना चाहता, जो उन्हें भावनात्मक रूप से कमज़ोर करे.”
“ऐसी क्या बात हो गई? सुलेख के मुंह में इन दिनों छाले ज़रूर हो गये हैं, जो पहले भी होते रहे हैं और वे हामायसिन सस्पेन्शन आदि लगाते रहे हैं.”
“आप बहादुरी से काम लेंगी, इस निवेदन के साथ बताना चाहता हूं कि सूर्यवंशीजी को माउथ कैंसर की शुरुआत हो चुकी है. आपको उन्हें तम्बाकू सेवन से रोकना है....”
तानिया नहीं कह सकी कि मैं तमाम जतन कर हार चुकी हूं. आप नहीं जानते कि तम्बाकू को लेकर इस घर में कैसे-कैसे विवाद और संघर्ष हुए हैं, पर सुलेख तम्बाकू छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
“क्या यह बात सुलेख जानते हैं?”
“हां अनुमान तो होगा ही. कुछ ज़रूरी बात करनी है, आप घर आ सकें तो...”
“आती हूं.”
तानिया को सुलेख के माउथ कैंसर की सूचना ठीक ‘तम्बाकू निषेध दिवस’ के अवसर पर मिली. ओह! सुलेख, तुम मेरी आशंका को टालते रहे और अब ख़तरा सामने है.
तम्बाकू जैसा जड़ पदार्थ कभी उन दोनों के बीच घुसपैठ कर उनकी निजता-निकटता ध्वस्त करेगा तानिया ने नहीं सोचा था. अब स्थिति यह हो गई है कि जहां नज़र जाती है, वहीं तम्बाकू की पुड़िया बरामद होती है. मेज पर, अलमारी में, खिड़कियों के पर्दों के पीछे, जेब में. धोने के पहले सुलेख के वस्त्रों की जेबों से तेज़ भभके के साथ तम्बाकू की किरिच निकलती है. वह सावधान करती रही,
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“तम्बाकू छोड़ने का इरादा कर लो सुलेख. यह कैंसर का कारण बनता है.”
“लाखों लोग खा रहे हैं, फिर तो सभी को कैंसर हो जाना चाहिए.”
“उन्हीं में से कुछ को होता है.”
“उन्हें भी, जो तम्बाकू नहीं खाते हैं.”
“ख़तरा खानेवालों को अधिक होता है.”
“अच्छा अब वही सब दोहरा कर मेरा दिन ख़राब न करो. एक क्लेम के मुक़दमे ने पहले ही परेशान कर रखा है.”
“तुम्हारे मुंह में यह जो छठे-छमासे छाले हो जाते हैं, वह किसी व्याधि की शुरुआत ही न हो?”
“छोड़ने की कोशिश करूंगा. आदत धीरे-धीरे ही जायेगी.”
“ऐसी आदत डालते ही क्यों हो, जो फिर जाती नहीं?”
“वकालत ऐसा पेशा है, जहां एकाग्रता बनाये रखने के लिये व्यसन ज़रूरी हो जाता है. दिनभर मुवक्किलों के साथ माथा खपाना होता है. तम्बाकू मैं शौक़ से नहीं, तनाव से बचने के लिये खाता हूं.” सुलेख इसी तरह अपनी चमत्कारी तार्किक क्षमता से झूठ को सच, ग़लत को सही सिद्ध करता रहा है.
“फिर तो कामकाजी स्त्रियों के लिये भी व्यसन अनिवार्य कर देना चाहिए. तनाव से बचने के लिये शराब, सिगरेट, तम्बाकू, पान खाने की छूट पुरुषों को ही क्यों मिले, स्त्री को क्यों नहीं? पर स्त्री कोई व्यसन करे तो पुरुष चिंतित हो जाता है कि लोग कहेंगे इसकी स्त्री व्यसनी है. स्त्री ही सदा शालीन- संस्कारी क्यों बनी रहे, पुरुष क्यों नहीं? समाज का प्रमुख तो पुरुष बना हुआ है, वही नियामक और निर्णायक है तो उसकी ज़िम्मेदारी भी अधिक होनी चाहिये, जिससे वह समाज में एक प्रभाव व आदर्श स्थापित कर सके.
सुषमा मुनीन्द्र
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