कहानी- दो मोर्चों पर 1 (Story Series- Do Morchon Par 1)
आज उस कमरे की खिड़की पर पर्दा पड़ा है, पर घर का मुख्यद्वार खुला है. द्वार के पास कतार से जूते लगे हैं. मैं जूते उतारकर चुपचाप भीतर चली गई हूं. मां अपने सारे कर्त्तव्य पूरे कर, सब चिंताओं से मुक्त हो आंखें मूंदें सो गई हैं- सदैव के लिए. भइया अभी पहुंचे नहीं हैं. अब कल ही होगा दाह संस्कार. दीदी और मैं आज की रात बारी-बारी से मां के पास बैठेंगे. पापा बेचैनी के साथ अंदर-बाहर हो रहे हैं.
ऑटोवाले को पूरे पैसे पकड़ा मैं नीचे उतरी और कुछ देर वहीं खड़ी रही. सामने घर को यूं देखा जैसे पहली बार देख रही हूं, जबकि जीवन के 24 वर्ष यहीं गुज़ारे हैं. हज़ारों बार गुज़री हूं इस सड़क से. नज़रें स्वयं खिड़की की तरफ़ उठ गईं. कहीं भीतर आशा बची रह गई थी कि क्या मां आज भी उस खिड़की पर खड़ी मेरा इंतज़ार कर रही होंगी? मुझे देख जल्दी से किवाड़ खोल कहेंगी, “आज भी इतनी देर कर दी मन्नु.” डांट नहीं, गिला नहीं. बस चिंता से भीगा एक वाक्य.
“हॉस्पिटल की ड्यूटी में देर हो ही जाती है मां. बीमार को यूं तो नहीं कह सकते न कि मेरी ड्यूटी का समय ख़त्म हुआ, मैं जा रही हूं. जब तक मेरी जगह लेनेवाली दूसरी डॉक्टर न आ जाए और मैं उसे मरीज़ों के विषय में पूरी रिपोर्ट न दे दूं. मैं उन्हें छोड़कर नहीं आ सकती.” मैं मां को समझाती, पर मां शिकायत तो कर ही नहीं रहीं, चिंता व्यक्त कर रही हैं. अंधेरा घिरते ही वे खिड़की पर आकर खड़ी हो जाती हैं. पम्मी दीदी के विवाह के बाद से तो वह और भी पज़ेसिव हो गई हैं. ज़रा-सी देर होने पर ही घबरा जाती हैं. बाद में मैंने खिड़की के पास एक कुर्सी रख दी, ताकि कम से कम खड़ी तो न रहें.
आज उस कमरे की खिड़की पर पर्दा पड़ा है, पर घर का मुख्यद्वार खुला है. द्वार के पास कतार से जूते लगे हैं. मैं जूते उतारकर चुपचाप भीतर चली गई हूं. मां अपने सारे कर्त्तव्य पूरे कर, सब चिंताओं से मुक्त हो आंखें मूंदें सो गई हैं- सदैव के लिए. भइया अभी पहुंचे नहीं हैं. अब कल ही होगा दाह संस्कार. दीदी और मैं आज की रात बारी-बारी से मां के पास बैठेंगे. पापा बेचैनी के साथ अंदर-बाहर हो रहे हैं. अभी तक पम्मी दीदी ने ही पापा का हाथ बंटाया है मां की देखभाल के लिए. मैं कुछ भी नहीं कर पाई. शहर में होते हुए भी मां-पापा के काम न आ सकी. घर की ज़िम्मेदारियों से भी बोझिल होता है उन्हें बोझ की तरह ढोने को बाध्य होना, वरना दीदी की ज़िम्मेदारियां मुझ से कम हैं क्या? अथवा वह अपने उत्तरदायित्व नहीं निभातीं?
अपने उत्तरदायित्व तो मां ने भी पूरे निभाए थे. स़िर्फ हम भाई-बहनों के प्रति ही नहीं, बल्कि संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति. दादा-दादी की बीमारी में उनकी अच्छी तरह तीमारदारी तो की ही, ताऊजी का भी यहां लाकर जब ऑपरेशन करवाया गया, तब ढाई महीने तक तीन जन रुके हमारे घर. तब मां ने पूरे मन से की उनकी देखभाल. फिर भी पापा से तमाम उम्र उलाहने ही सुनती रहीं. कभी काम में मीनमेख, कभी ख़र्च के लिए डांट. ऐसा नहीं कि पापा की आय कम थी, पर उनके हिसाब से वे कमाते थे, इसलिए स़िर्फ उन्हीं का अधिकार है उनकी आय पर और उनकी इजाज़त के बिना कोई एक पाई भी ख़र्च नहीं कर सकता था.
मां की ज़रूरतें पूरी करना भी उनके कर्त्तव्य क्षेत्र में नहीं आता था. तीज-त्योहार में जो आ जाता, उसी से काम चलातीं वे, पर जूता-चप्पल ख़रीदने पर भी पहले उन्हें पापा का लंबा-चौड़ा व्याख्यान सुनना पड़ता था.
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“तुम इतनी जल्दी चप्पल तोड़ देती हो, इस साड़ी का रंग ही तो ख़राब हुआ है. घर में पहनने में क्या बुराई है?” शादी-ब्याह में जाते वक़्त उनके पास ढंग की साड़ी न होती और वह कोई प्रिंट साड़ी पहन के जातीं, तो मुझे बहुत बुरा लगता. पापा इधर-उधर दौरे पर जाते, तो अपने लिए कपड़े ख़रीद लाते, क्योंकि उनके अनुसार दफ़्तर में पहनने के लिए ढंग के कपड़े होने ही चाहिए. उनको इस बात का भी मलाल था कि मां पैंट-शर्ट क्यों नहीं पहनती थीं, ताकि उनके पुराने पड़ गए कपड़े मां घर पर पहन लें. वो मां, जिनसे बड़ों के सामने सिर ढंककर रहने की उम्मीद की जाती थी.
शौक रखने के बारे में तो मां ने कभी सोचा भी न होगा, जब ज़रूरतें ही पूरी न कर पाती थीं. हर चीज़ के लिए मन मसोसकर रह जाती थीं वे. तमाम उम्र निर्भरता का जीवन जीया उन्होंने. अत: बेटियों को पढ़ाना उनके जीवन का ध्येय बन गया. ‘आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी उनकी बेटियां.’ उन्होंने दृढ़ निश्चय किया.
यही कारण था कि वह हम दोनों बहनों को पढ़ने के लिए ख़ूब प्रेरित करती थीं. “जो चाहो वही लाइन चुनो, पर अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ. मुझे तुम्हारे भाई की इतनी चिंता नहीं. उसका करियर तो बन ही जाएगा. पढ़ाई में तेज़ न होगा, तो पापा उसे कोई व्यापार शुरू करवा देंगे. मुझे तुम दोनों की फ़िक्र है. तुमने पढ़ाई में ज़रा ढील दी कि पापा तुम्हारा विवाह कर कर्त्तव्य मुक्त हो जाएंगे.”
उषा वधवा