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कहानी- दो प्याला ज़िंदगी 4 (Story Series- Do Pyala Zindagi 4)

उसे स्वयं को भी नहीं पता था कि वह सूरज की ओर खींचती चली जा रही थी. बगीचे की एक बेंच पर बैठे-बैठे बना यह रिश्ता अब परदों की ओट से सीमा के जीवन में झांकने लगा था. सूरज पहला ऐसा व्यक्ति था जो दिल खोलकर बोलता था, वह सीमा को तानें देता था, उस पर दिल खोलकर हंसता था... पर कहीं ना कहीं उसे जीवन जीने के गुर भी सिखा रहा था.

          ... उस बेंच पर बैठी रही. रमेश और उसके रिश्ते में आए बदलावों को लेकर वह दुखी थी. उसे ऐसा लग रहा था कि उसका अपना जीवन रेत की तरह उंगलियों के बीच से फिसलता जा रहा है. उसे एक नहीं कई चीज़ें एक साथ परेशान कर रही थी. ढलती उम्र, खाली समय और ना जाने क्या-क्या? सोच की दौड़ चल ही रही थी कि अचानक आवाज़ आई, "मैडम, क्या हुआ? आज आप टहलने नहीं गईं?" सीमा उस आवाज़ पर चौंकी तो सही, पर देखे बिना ही समझ गई कि यह वह चायवाला तो नहीं था, बल्कि उस जंगली मंडली का कप्तान सूरज है. वह बड़े ही ग़ुस्से से बोली, "आपको कोई दूसरा काम नहीं है? क्या दिनभर इस बगीचे में आने-जाने वाले लोगों का हाल-चाल पूछना आप का शौक है?" जितने ग़ुस्से में सीमा ने सवाल पूछा था, उतने ही मखौलभरे अंदाज़ में सूरज ने जवाब दिया, "इतना अजीब शौक तो आप जैसी महिला ही पाल सकती है.. जो चाय नहीं पीती." इतना कहकर सूरज मुस्कुराने लगा और आगे बोला, "मैडम, अपनी इस बदतमीज़ी के लिए माफ़ी चाहता हूं. आपको परेशान देखा, तो सोचा आप से बात कर लूं." सीमा का ग़ुस्सा सूरज की ऊलजुलूल बातों से बढ़ा नहीं, बल्कि काफ़ी हद तक शांत हो चुका था. उसने जवाब दिया, "जी... मैं ठीक हूं, कोई परेशानी नहीं है. बस यूं ही आज टहलने का मन नहीं किया." यह भी पढ़ें: रिश्तों को पाने के लिए कहीं ख़ुद को तो नहीं खो रहे आप? (Warning Signs & Signals That You’re Losing Yourself In A Relationship) सूरज ने बड़े ही अदब से पूछा, "क्या मैं यहां बैठ जाऊं?" अनमने ढंग से जवाब देते हुए सीमा ने कहा, "देखिए, मुझे ग़लत मत समझिएगा... पर मैं कुछ देर अकेले रहना चाहती हूं." सूरज ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहा, "तब तो मुझे यहां ज़रूर बैठना चाहिए." और बडी ही बेतकल्लुफ़ी से वहां बैठ गया. उसने कहा, "मैडम, मुझे आपसे कुछ पूछना था. यह टहलते समय आप नाक पर रुमाल क्यों बांधती हैं? और सिर पर कैप भी लगाती हैं…" सीमा ने कहा, "वैसे तो आपका इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए. फिर भी बताती हूं. मुझे पार्क में घूमते समय बदबू आती है... और धूप मुझसे बर्दाश्त नहीं होती... इसलिए कैप लगाती हूं." सूरज का जवाब जैसे तैयार था, "बुरा ना माने तो मैं आपको आपके नाम से बुलाना चाहूंगा. सीमाजी वह बदबू नहीं है, बल्कि इस पार्क में खिले अलग-अलग तरह के फूलों और फलों की महक है. और धूप...धूप नहीं बल्कि विटामिन डी है, जो प्रकृति की तरफ़ से बिल्कुल मुफ़्त है. कोई भी चीज़ बुरी नहीं है. सिर्फ़ नज़रिए का फर्क़ है. असली जीवन इस धूप और महक में ही तो छुपा है." सूरज ने अपनी घड़ी देखी और बोला, "आज तो बहुत देर हो गई मैं चलता हूं." सूरज वहां से आंधी की तरह चला गया और सीमा किसी पहली क्लास की छात्रा की तरह अनुशासन से सूरज की बातें सुनती रह गई. सूरज कब चला गया उसे पता भी नहीं चला. अकेली बैठी सूरज की कही बातों के बारे में सोच रही थी. उसने सिर से अपनी कैप उतारी और मन ही मन मुस्कुराई और घर की ओर चल पड़ी. अब सीमा की सूरज से दोस्ती होने लगी थी. हालांकि सीमा को आज भी सूरज पसंद नहीं था, पर अब उसे उसकी आदत होने लगी थी. रोज़ बगीचे के 8-10 चक्कर काटने के बाद वह बेंच पर बैठकर सूरज के आने का इंतज़ार करती. दोनों में कुछ देर बातें होती और सीमा घर आ जाती. घर पर आज भी सब कुछ वैसा ही चल रहा था, जैसा हमेशा से था. सीमा को हमेशा यह एहसास सताता रहता कि उसके हाथ से सब कुछ छूटता जा रहा है. अब ना वह पहले जैसी है और ना ही घर परिवार और पति पहले जैसा रहा. उसके दिलो-दिमाग़ से यह ख़्याल जाने का नाम ही नहीं ले रहा था कि अब परिवार में, घर में उसकी कोई क़ीमत नहीं है. ऐसे में उसे पार्क का वह बेंच और सूरज एक सिक्योरड जोन और अपना-सा लगने लगा था. यह भी पढ़ें: मन का रिश्ता: दोस्ती से थोड़ा ज़्यादा-प्यार से थोड़ा कम (10 Practical Things You Need To Know About Emotional Affairs) उसे स्वयं को भी नहीं पता था कि वह सूरज की ओर खींचती चली जा रही थी. बगीचे की एक बेंच पर बैठे-बैठे बना यह रिश्ता अब परदों की ओट से सीमा के जीवन में झांकने लगा था. सूरज पहला ऐसा व्यक्ति था जो दिल खोलकर बोलता था, वह सीमा को तानें देता था, उस पर दिल खोलकर हंसता था... पर कहीं ना कहीं उसे जीवन जीने के गुर भी सिखा रहा था.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...

Madhavi Nibandhe माधवी निबंधे       अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

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