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कहानी- एक बदलाव की उम्मीद… 4 (Story Series- Ek Badlav Ki Umeed 4)

... “मंजरी ले ये दादी को टमाटर का सूप दे आ और देख उनका सूप उनके ग्लास में ऊपर से डाल देना. ध्यान रखना उनका ग्लास छूना नहीं...“ मां की बात दादी ने सुन ली थी. उन्होंने चुपचाप टेबल पर अपना कांच का ग्लास रख दिया. उनका मौन, उनकी आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. वक़्त की प्रबलता तो देखो, जिस मंजरी को दादी ने अछूत घोषित कर दिया था, आज वही मंजरी उन्हें खाना-पीना परोस रही है.   थोड़ी देर पहले तक जो घर ढोलक की थापों और गीत-संगीत से गूंज रहा था, अब उसे पूरी तरह से सन्नाटे ने अपने आग़ोश में ले लिया था. शादी का सारा रंग दादी के कड़वे वचनों से बेरंग हो चुका था. एक बार फिर मैं और मां मौन-विवश दर्शक बन गए थे. इस बार भी हम दादी की बातों का विरोध नहीं कर पाए. दादी के आगे किसी की नहीं चलती थी, इसलिए उनका विरोध करना भी व्यर्थ था. उनको तो ज़रा भी एहसास नही था की उनकी इस दक़ियानूसी सनक ने दो मासूम हृदयों को कितनी पीड़ा दी थी. ऐसे इंसान को पर-पीड़ा का एहसास तभी होता है, जब वो ख़ुद इस पीड़ा से गुज़रे. “मंजरी... ओ मंजरी...” की पुकार मुझे अतीत से वापस वर्तमान में ले आई. “मंजरी ले ये दादी को टमाटर का सूप दे आ और देख उनका सूप उनके ग्लास में ऊपर से डाल देना. ध्यान रखना उनका ग्लास छूना नहीं...“ मां की बात दादी ने सुन ली थी. उन्होंने चुपचाप टेबल पर अपना कांच का ग्लास रख दिया. उनका मौन, उनकी आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. वक़्त की प्रबलता तो देखो, जिस मंजरी को दादी ने अछूत घोषित कर दिया था, आज वही मंजरी उन्हें खाना-पीना परोस रही है. भले ही वो पीरियड्स से हो तब भी. आज कोरोना रोग ने दादी को भी अछूतों की श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिया था. शायद उन्हें अब उस पीड़ा, उस दर्द का एहसास हो रहा था, जो उन्होंने बेहद निर्ममता से दूसरों को दी थी. कितना पीड़ादायक होता है एक अछूत कहलाए जाने की पीड़ा. वो असहनीय पीड़ा, जब कोई अछूत, अपवित्र कह कर समाज से बेदख़ल कर देता है... उन्हें सब एहसास हो रहा था. प्रकृति और वक़्त कितने बलवान होते हैं. ये कोरोना काल ने सिखा दिया. ईश्वर ने सभी इंसानों को एक सामान बनाया है. बराबरी का दर्जा दिया है. किसी को भी अपवित्र और अछूत बना कर नहीं भेजा. इंसानों का मतभेद, तो इंसानों का ही बोया वो ज़हरीला बीज है, जिसका वृक्ष इंसान की मानसिकता, उसकी सोचने-समझने की शक्ति को बुरी तरह जकड़ लेता है. किसी को भी उसके हालात, उसके जन्म-जाति के कारण उसे अपवित्र और अछूत घोषित करने का हक़ किसी भी इंसान या समाज को नहीं है. स्वामी विवेकानंद, राजा राम मोहन रॉय, गांधीजी, अम्बेडकरजी और देश के कितनी महान हस्तियों के अथक प्रयासों से देश से छुआ-छूत ख़त्म तो हो गया, पर दादी जैसे कुछ लोगों में अंश बाकी था. कोरोना बीमारी की वजह से जब किसी को क्वॉरंटीन होना पड़ता है, कितना तकलीफ़देह होता है वो समय उस इंसान के लिए. ये वही समझ सकता है, जिसे इस समय से गुज़रना पड़ता है. दादी की समझ की वजह भी तो यही थी. यह भी पढ़ें: लेडी लक के बहाने महिलाओं को निशाना बनाना कितना सही? (Targeting Women In Name Of Lady Luck… ) वक़्त से ताक़तवर कोई नहीं. कौन जानता था कि एक ऐसा सूक्ष्म सा वायरस आएगा, जिसके कारण एक दिन ये पूरी दुनिया ही लॉकडाउन हो जाएगी. सभी कार्य और गतिविधियां थम जाएंगी. खाने-पीने, कमाने के सभी साधन सीमित हो जाएंगे या फिर ख़त्म हो जाएंगे. इंसान की औक़ात, वजूद कुछ भी नहीं... ये भी एक अदृश्य वायरस ने सिखा दिया. सबसे अलग-थलग होकर रहने का दर्द क्या होता है ये कोरोना काल ने सिखा दिया. दादी को भी तो आख़िर कोरोना संक्रमित होने के बाद ही तो इस दर्द का एहसास हुआ- एक अछूत कहलाए जाने का दर्द, उसके साथ होते दुर्व्यवहार का दर्द. उम्मीद... उम्मीद... एक ऐसी चीज़ है, जो इंसान को मायूस नहीं होने देती, इसलिए तो कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है और हमारी उम्मीद दादी पर है... एक बदलाव की उम्मीद!.. Kirti jain कीर्ति जैन   अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

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