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कहानी- ईएमआई 4 (Story Series- EMI 4)

मैंने जान लिया है कि न चाहते हुए भी इस दौड़ में दौड़ना मेरी नियति है और ज़िंदगी को किश्तों में जीना मेरी ज़रूरत, इसलिए मैंने अपनी वीआरएस की एप्लीकेशन वापिस ले ली और छुट्टी भी कैंसिल करवा ली. अब इसे सज़ा कहूं या सुख, मुझे भुगतना होगा, क्योंकि वापस लौटने का हर रास्ता मैंने स्वयं बंद कर दिया है. जब मैंने आलिया और तिलक से कहा कि हमें एक-दूसरे के साथ समय बिताना चाहिए, तो दोनों ने दो टूक जवाब दे दिया, “घर पर रहने का डिसीज़न तुम्हारा अपना था, अब तुम इस मैटर को हैंडल करो, हमारी लाइफ़ मत डिस्टर्ब करो.” आजकल मैं अकेली अपने कमरे में लैंप की पीली रोशनी में अपने अतीत को ढूंढ़ने की कोशिश करती हूं. आलिया का बचपन याद करने की कोशिश करती हूं, जो मैंने कभी देखा ही नहीं. घर खाली-सा है, कोई नहीं दिखता. बस, दिखती हैं तो केवल वही बेजान चीज़ें, जिनकी ईएमआईज़ चुकाने के लिए कुछ साल पहले हमने अपने जीवन को किश्तों में बांटा था. जीवन के इस पड़ाव में मैं अपनी ख़ुशियों को फिर से संजोना चाहती थी. अपने मकान को घर बनाना चाहती थी. अपनी टीनएजर बेटी के साथ कुछ समय बिताना चाहती थी. उसकी समस्याएं सुनना चाहती थी. पर मैं भूल गई कि इस दौड़ में हमारे इमोशंस तो कब के पीछे छूट गए. उस दिन आलिया ने यह बताकर सब कुछ ख़त्म होने का सबूत दे दिया कि वह पढ़ने के लिए विदेश जा रही है. उसने फ़ॉर्म कब भरा, एडमिशन कब हुआ मुझे कुछ पता नहीं. मना करने की तो गुंजाइश ही नहीं थी, क्योंकि उसने मुझसे पूछा नहीं था, बताया था. मुझे बहुत आक्रोश हुआ कि आख़िर मेरी ग़लती क्या थी? मैंने अपने जीवन के कई साल स़िर्फ इसलिए बर्बाद किए, ताकि हम सब एक बेहतर ज़िंदगी जी सकें. पर डायरी लिखते-लिखते मुझे अपने प्रश्‍नों के उत्तर ख़ुद-ब-ख़ुद मिलते गए. दोष किसी का नहीं था, न मेरा, न तिलक का और न ही आलिया का. सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि अगर छोटी मछली हाथ-पैर न मारे तो बड़ी मछली उसे खा जाएगी. इट्स अ बैटल ऑफ़ सरवाइवल. और इस जंग की शायद मैं विजेता भी हूं. इसे जीतने के लिए मैंने क्या खोया है, ये तो बस मैं ही जानती हूं, पर उसे ढूंढ़ नहीं पा रही. यह भी पढ़ें: मिलिए भारत की पहली महिला फायर फाइटर हर्षिनी कान्हेकर से  मैंने जान लिया है कि न चाहते हुए भी इस दौड़ में दौड़ना मेरी नियति है और ज़िंदगी को किश्तों में जीना मेरी ज़रूरत, इसलिए मैंने अपनी वीआरएस की एप्लीकेशन वापिस ले ली और छुट्टी भी कैंसिल करवा ली. अब इसे सज़ा कहूं या सुख, मुझे भुगतना होगा, क्योंकि वापस लौटने का हर रास्ता मैंने स्वयं बंद कर दिया है. आज हम घर की, घर में रखी हर चीज़ की क़ीमत चुका चुके हैं. अब घर की हर चीज़ हमारी अपनी है उधार की नहीं, पर मैं चाहती हूं कि जल्द से जल्द ज़िंदगी की आख़िरी किश्त चुका दूं, ताकि इस नई ज़िंदगी में, ख़ुद को एक नए रूप में फिर एक बार अपने को पा सकूं.   विजया कठाले निबंधे

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