मां के कमरे में उनकी सभी चीज़ें करीने से रखी थीं. उनकी समस्त चीज़ों में उनकी ख़ुशबू समाई थी. मैं उनकी आरामकुर्सी पर बैठकर उनके होने के एहसास को महसूस कर रही थी कि अकस्मात् ही मेरी नज़र उनकी गुल्लक पर पड़ी. उनकी गुल्लक, उनकी सहेली, जो उनके जाने के बाद नितांत अकेली हो गई थी. उसने अपने सहेली को खो दिया था. मेरे मन में द्वंद चल रहा था कि गुल्लक खोलूं या नहीं. अंत में बचपन के कौतूहल और जिज्ञासा की जीत हुई और कांपते हाथों से मैंने गुल्लक खोलकर एक-एक करके पर्चियां निकालकर पढ़नी आरंभ की. गुल्लक में छिपा मां का अस्तित्व, उनका दर्द आंसू बन मेरी आंखों से बह रहा था.
अपनी हताशा व उदासी को अपने ऊपर कभी भी हावी मत होने देना, क्योंकि कोई और हमारे लिए नहीं लड़ता, अपितु हमें ख़ुद ही ख़ुद की हिम्मत बन अपने लिए लड़ना पड़ता है.
ये संसार अपने स्वार्थी स्वभाव से विवश होकर तुम्हारी निराशा की नुमाइश कर देगा. बेटा, ये तो वक़्त का पहिया है, जो सदैव घूमता रहता है. हर निराशा एक आशा को साथ लेकर आती है. तुम बस संयम का दामन थामे रखना. उनकी यह अनमोल सीख सदैव उनके एहसास को मेरे क़रीब रख मुझे जीवन में किसी भी हालात में परास्त नहीं होने देती और निरंतर चलने की प्रेरणा देती थी.
“महक, मां को वेंटिलेटर पर डाल दिया है. उनके पास वक़्त बहुत कम है.” समीर, मेरे पति ने मेरे कंधे पर हाथ रख मेरे विचारों की तंद्रा तोड़ी, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं तो मां के साथ यादों के गलियारों में घूम रही थी.
आईसीयू में वेंटिलेटर पर लेटी हुई मां के चेहरे से पहली बार मुस्कुराहट गायब थी. उनके हाथ-नाक पर नलियों ने कब्ज़ा कर रखा था. मुंह पर ऑक्सीजन मास्क था. इतना बेबस मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था. मेरी नज़र एकटक घड़ी की सुइयों पर टिकी थी. उन घड़ी की सुइयों में मां की सांसें अटकी थीं. चंद घंटों का समय दिया था डॉक्टर ने मां को. उम्मीद रेत की तरह हाथ से फिसलती जा रही थी. हिम्मत जवाब दे रही थी. मन-मस्तिष्क सब शून्य हो गए थे. यह जानते हुए कि मां को अब जाने से कोई रोक नहीं सकता था, फिर भी हृदय ईश्वर से निरंतर एक चमत्कार की दुआ कर रहा था. एक साधारण से बुख़ार ने उनके शरीर के सभी ऑर्गन्स फेल कर दिए थे. चट्टान-सी मज़बूत मां आज ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थीं. एक वीर योद्धा की तरह लड़ते-लड़ते, आख़िर मां अपने जीवन का युद्ध हार गईं. कहते हैं, जानेवाले को अपनी मृत्यु का आभास हो जाता है, कदाचित् मां उदास चेहरे के साथ विदा नहीं होना चाहती थीं, इसलिए जाने से पहले उनके शरीर में मात्र एक हलचल हुई थी और वो थी उनके चेहरे पर मुस्कुराहट के भाव का आना.
सभी अंतिम क्रियाएं पूर्ण हो चुकी थीं. मैं मां के एहसास के साथ एकांत में कुछ समय बिताना चाहती थी. वैसे तो उनको घर का एक-एक कोना प्रिय था, पर उन्हें जो सबसे अत्यधिक प्रिय था, वो था उनका अपना कमरा.
मां के कमरे में उनकी सभी चीज़ें करीने से रखी थीं. उनकी समस्त चीज़ों में उनकी ख़ुशबू समाई थी. मैं उनकी आरामकुर्सी पर बैठकर उनके होने के एहसास को महसूस कर रही थी कि अकस्मात् ही मेरी नज़र उनकी गुल्लक पर पड़ी. उनकी गुल्लक, उनकी सहेली, जो उनके जाने के बाद नितांत अकेली हो गई थी. उसने अपने सहेली को खो दिया था. मेरे मन में द्वंद चल रहा था कि गुल्लक खोलूं या नहीं. अंत में बचपन के कौतूहल और जिज्ञासा की जीत हुई और कांपते हाथों से मैंने गुल्लक खोलकर एक-एक करके पर्चियां निकालकर पढ़नी आरंभ की. गुल्लक में छिपा मां का अस्तित्व, उनका दर्द आंसू बन मेरी आंखों से बह रहा था. आज इस बात का मुझे एहसास हुआ कि कैसे एक निर्जीव गुल्लक स़ि़र्फ रुपए-पैसे संजोकर रखना ही नहीं जानती, बल्कि सजीव होकर किसी का साथी बन उसके जीवन के उतार-चढ़ाव में उसको संभालने की एक अहम् भूमिका भी निभा सकती है.
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उनका जीवन आज उनकी गुल्लक परतों में खोल रही थी. मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ बन विचारों में विचरण करने लगी. कितनी होशियारी से एक कुशल कलाकार की तरह वे हमारे समक्ष मुस्कुराहट और संतुष्टि का मुखौटा पहने ख़ुश होने का सफल नाटक करती रहीं. हमने कभी उस मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द का मर्म समझने का प्रयास ही नहीं किया. सदैव इसी भ्रम में रहे कि मां का जीवन ख़ूबसूरत रंगोली से सजा है, जिसमें चिंता और ग़म के कोई रंग नहीं हैं.
सच कहा था उन्होंने कि इस गुल्लक में उनका अस्तित्व और उनकी निराशा है. उनके हृदय के भीतर की वेदना का मात्र एक ही साथी एवं साक्षी थी...
उनकी गुल्लक.
कीर्ति जैन