“वो क्या रोकता. वो तो अपनी मां का पिछलग्गू था. मैंने भी सोचा, परे हटाओ ऐसे मरद को, जो दुख-दरद में अपनी जोरू का साथ न देकर मां के पीछे जा छुपे. जो अब काम न आया, कुछ बुरी पड़े पे क्या काम आएगा? बस दीदी, अब तो ख़ुद कमा-खा रही हूं और बिटिया को पढ़ा-लिखा रही हूं. इक ही बात कहती हूं उसे. दुनिया से कुछ उम्मीद मत करियो. ख़ुद मज़बूत बन.” उमा शगुना की बातें सुन अवाक् रह गई. इस बुराई की जड़ें उसके घर तक ही नहीं, दूर बसी गरीबों की बस्ती में भी फैली थी.
घर की हर बात मांजी रो-धोकर नमक-मिर्च लगाकर ऐसे पूरे कुटुंब में पेश करतीं कि सबकी नज़रें उमा और मनोज की ओर तन जातीं. रोज़-रोज़ के कलह से बचने के लिए उमा ने भारी मन से परिस्थिति से समझौता कर लिया था. तब से अब तक दो बार गर्भहत्या का दंश झेल चुकी उमा फिर से उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई थी.
आपबीती सोच-सोचकर उमा का सिर भारी हो चला. वो रसोई में चाय बनाने चल दी. रसोई में कामवाली बाई शगुना बर्तन धो रही थी. चाय बनाते व़क़्त उमा को मितली आ गई और वो बाथरूम की ओर भागी. “का दीदी, कोई ख़ुसख़बरी है का?” शगुना उमा की शारीरिक भाषा से समझ गई थी. उमा ने उसे एक नज़र देखा, पर कुछ न कहा. उमा की चुप्पी को ‘हां’ समझ शगुना ने अपना अंदाज़ा पक्का मान लिया.
“चलो, अच्छा ही है दीदी. गुड़िया कब तक अकेले खेलेगी? उसे भी तो कोई साथी चाहे संग खेलन वास्ते. अकेले बच्चे का घर में बिल्कुल जी न लगे है.”
“अच्छा... तेरे कितने बच्चे हैं?” उमा ने चाय छानते हुए पूछा.
“कित्ते का? बस, एक ही बिटिया है मेरी. अब तो सयानी हो गई है. दसवीं में पढ़े है.” बताते हुए शगुना का चेहरा गर्व से दमक उठा.
“क्यों? दूसरा नहीं किया उसके बाद?”
“का बताऊं दीदी, इसके जनम पर ही इत्ती कलेस पड़ गई थी घर में. इसके बखत धोके से डॉक्टरी जांच करा दी मेरी. मैं ठैरी अनपढ़-गंवार, मुझे तो कुछ पता न था. छोरी जान पेट गिराने को पीछे पड़ गए कमीने. मगर मैं तैयार न हुई. भला बताओ तो दीदी, अगर मेरे मां-बाप मेरे साथ ऐसा करते तो मैं कैसे आती इस दुनिया में?”
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“फिर क्या हुआ?” उमा उत्सुक थी.
“होना का था दीदी, मैंने अपनी सास और मरद को जो खरी-खोटी सुनाई के पूछो मत. मैंने सा़फ़ कै दिया कि माना मैं अनपढ़-गंवार हूं, मगर हाथ-पैर से सलामत हूं. केसे भी करके अपना और छोरी का पेट पाल लूंगी. तेरे दरवाज़े पर न आऊंगी रोटी मांगने. मेरी कोख की तरफ़ आंख उठा के भी देखा तो अच्छा न होगा. बस, मेरी सास ने मुझे घर से निकलवा दिया.”
“और तेरे आदमी ने नहीं रोका तुझे?” उमा ने पूछा.
“वो क्या रोकता. वो तो अपनी मां का पिछलग्गू था. मैंने भी सोचा, परे हटाओ ऐसे मरद को, जो दुख-दरद में अपनी जोरू का साथ न देकर मां के पीछे जा छुपे. जो अब काम न आया, कुछ बुरी पड़े पे क्या काम आएगा? बस दीदी, अब तो ख़ुद कमा-खा रही हूं और बिटिया को पढ़ा-लिखा रही हूं. इक ही बात कहती हूं उसे. दुनिया से कुछ उम्मीद मत करियो. ख़ुद मज़बूत बन.” उमा शगुना की बातें सुन अवाक् रह गई. इस बुराई की जड़ें उसके घर तक ही नहीं, दूर बसी गरीबों की बस्ती में भी फैली थी.
“तुम लोगों में भी होता है ये सब?” उमा ने हैरानी से पूछा.
“होता क्यों नहीं दीदी. हम ठैरे गरीब. जिस सौदे में सिर पर ख़रच आ पड़े, वो किसे भाएगा? ख़ैर जाने दो, हम लोगों में तो ये सब चलता ही रहता है. हम अनपढ़ों में कहां इत्ती अकल कि छोरे-छोरी का भेद न करें. जिस छोरी की क़िस्मत भली होगी, उसे भगवान आप जैसों के घर भेजे है. अपनी गुड़िया को ही देख लो. रानी बनकर राज करे है घर भर पर.” शगुना दर्द भरी आवाज़ में बोली.
शगुना की आख़िरी बात उमा के दिल को तीर की तरह भेद गई. इसे क्या पता गुड़िया के अस्तित्व की रक्षा के लिए कितने प्रयत्न करने पड़े थे उसे. बेटियों को मारने का चलन अनपढ़ों से ़ज़्यादा पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों में है, जो अपना जीवन भगवान की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने समीकरणों पर जीना चाहते हैं. क्यों हर तरह से संपन्न परिवार भी लड़की के जन्म को भारी मन से लेता है. पता नहीं वो कौन-सी मानसिकता है, जो उन्हें अपने ही अंश को नष्ट करने के लिए उकसाती है.
उमा चाय लेकर अपने कमरे में आ गई. मगर अब उसे पीने का मन न हुआ. जो कुछ उसके सामने आनेवाला था, उसके लिए वो अभी तैयार नहीं थी. शगुना की बातें उसके कानों में अभी भी गूंज रही थीं. दिखने में पतली-दुबली, क्षीण-सी काया वाली शगुना, मगर भीतर कितनी हिम्मती, कितनी साहसी है. एक अनदेखे, अजन्मे बच्चे के लिए एक ही झटके में सब कुछ छोड़ दिया. न समाज की चिंता, न सिर पर छत की फ़िक्र, न पति का मोह. मुझमें क्यों नहीं है इतनी हिम्मत? मैं तो मनोज के बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती. मैं तो पढ़ी-लिखी होकर भी शगुना के आगे कुछ नहीं. क्या हूं मैं? एक जीती-जागती इंसान या एक खिलौना, जिसे चलानेवाला रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथ में है? उमा स्वयं के विचारों में बुरी तरह से उलझी थी. बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
मनोज उठकर अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गया. उमा उससे कुछ न कह सकी, पर वो अजीब-सी कशमकश में थी. थोड़ी देर में मांजी भी आ गईं. उमा की ख़राब तबियत की वजह समझ आते ही मांजी ख़ुशी से फूली नहीं समाईं और बोलीं, “मैं जानती थी, ऐसा ही होनेवाला है. देवी मां मुझे निराश नहीं करेंगी. उसने तो रात ही को मुझे ध्यान में बता दिया था कि मेरे घर पोता आनेवाला है.”
अपनी तीव्र इच्छाओं की पूर्ति की ख़बर सपने या कल्पना में अपने इष्ट देवी-देवता से सुनी ईश्वर वाणी नहीं, बल्कि अपने ही मन का बुना भ्रमजाल है. ये बात मांजी नहीं समझती थीं.
दीप्ति मित्तल
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