Close

कहानी- हस्तक्षेप 2 (Story Series- Hastakshep 2)

मैं, मीना अभी अपने पति प्रमोद का घर छोड़कर तीन साल के बेटे कृष्णा के साथ मायके आई हूं. शादी के बाद रोज़-रोज़ की कलह से तो यह होना ही था. आज सुबह विवाद की पराकाष्ठा से तंग आकर जब मैंने फोन पर मम्मी-पापा को बताया, तो उन्होंने तुरंत घर आने को कहा, “छोड़ ऐसे आदमी को. हमने तो पहले ही समझाया था बेटा. तू यहां आ जा, अपने आप अकल ठिकाने आ जाएगी.” बड़े से पुश्तैनी घर में थे, तो तीन परिवार- अम्मा-बाबूजी, बड़े भइया और उनसे छोटे भइया, लेकिन तक़रीबन मिला-जुला-सा परिवेश था. एक तरह से अर्द्ध संयुक्त परिवार था. सब मेरे लिए आंखें बिछाए बैठे थे. कुछ दिनों बाद दशहरा और दीवाली की छुट्टियां भी पड़ गई थीं. बड़ी जीजी अपने तीनों बच्चों के साथ आ गई थीं. मुझे लगा कि मैं मरुस्थल से हरितिमा में आ गया हूं. सब मुझे अक्सर बहलाते रहते, “अच्छा किया जो यहां आ गया. ऐसी पत्नी मिली है कि इसकी तक़दीर ही फूट गई. अब यहां मौज से रह.” मैं इतनी आत्मीयता पाकर आत्मविभोर हो उठा, लेकिन मुझे क्या पता था कि यहां की उपजाऊ ज़मीन कुछ ही दिनों में बंजर होनेवाली है. धीरे-धीरे सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए. छुट्टियां शेष बचने के बावजूद जीजी ने कहना शुरू कर दिया, “अम्मा, मुझे जाने दो, वह पता नहीं कैसे रह रहे होंगे. बच्चों के बिना तो एक पल नहीं रह पाते...” आदि-आदि. सबके आग्रह को अनदेखा करके वह चली गईं. बड़े और छोटे भइया भी अपने परिवारों के रूटीन में रम गए. ऑफिस से आते, तो सीधे भाभी और बच्चों के पास चले जाते. बच्चों को झूले या ट्राइसाइकिल पर बैठाकर जब तक बहला नहीं लेते, वे पीछा ही नहीं छोड़ते. ऐसा देख मुझे कृष्णा की याद सताने लगती. मैं अक्सर भाइयों, भाभियों और बच्चों के बीच हंसी-ठिठोलियां देखता, लेकिन उनमें शामिल भी तो नहीं हो सकता था. उनके नितांत व्यक्तिगत आनंद में दख़ल देना ठीक भी तो नहीं. ऑफिस से आता, तो बरामदे पर पड़ी खटिया पर बैठ जाता. बड़ी और मंझली भाभी तभी खाना-पीना करतीं, जब उनके पतियों की मर्ज़ी होती. मुझे जल्दी खाने की आदत थी, लेकिन भाभियां अपने पतियों को ताज़े फुलके खिलाने के लिए टाइम-बेटाइम खाना बनातीं. अम्मा-बाबूजी का परहेज़ी खाना वे पहले बनाकर उनके कमरे में पहुंचा देतीं, जिसे खाकर वे दोनों सो जाते. मैं घर में अम्मा-बाबूजी के बगलवाले कमरे में बेवजह लोटता-पोटता रहता. क़रीब चार महीने हो गए हैं मुझे मीना से अलग हुए और अपना घर छोड़े हुए. एक माह पहले कॉलेज से अवकाश मिलने पर उस घर में गया, तो लगा कि खंडहर में आ गया हूं. फ़र्श पर धूल की मोटी परत, दीवारों पर उखड़ी पपड़ी, सीलन और बदबू. अम्मा-बाबूजी के बड़े घर में सबको अपने-अपने घरौंदों की चिंता थी. अम्मा-बाबूजी, बड़े भाई-भाभियां और बड़ी जीजी सभी अपना घर संवारने में लगे हैं. मेरा अपना घरौंदा कहां खो गया? यह प्रश्‍न मेरे अंतस को चीरने लगा है, पल-प्रतिपल खाए जा रहा है. मैं, मीना अभी अपने पति प्रमोद का घर छोड़कर तीन साल के बेटे कृष्णा के साथ मायके आई हूं. शादी के बाद रोज़-रोज़ की कलह से तो यह होना ही था. आज सुबह विवाद की पराकाष्ठा से तंग आकर जब मैंने फोन पर मम्मी-पापा को बताया, तो उन्होंने तुरंत घर आने को कहा, “छोड़ ऐसे आदमी को. हमने तो पहले ही समझाया था बेटा. तू यहां आ जा, अपने आप अकल ठिकाने आ जाएगी.” मेरे घर पहुंचते ही भइया ने कृष्णा को गोद में ले लिया, “मेरा राजा बेटा है, मेरे साथ रहेगा.” भाभी भी उसके गाल चूमने लगीं. थोड़ी देर तक प्रमोद को सब कोसते रहे, “क्या हम अपनी बेटी को पाल नहीं सकते, क्या समझता है वह अपने आपको. ऐसी सीधी और होनहार लड़की मिल गई, तो दिमाग़ चढ़ गया...” आदि-आदि. यह भी पढ़े: राशि के अनुसार चुनें करियर और पाएं सफलता (Astrology: The Best Career For Your Zodiac Sign) माहौल शांत होने पर मैं चाय पीने के बाद छत पर चली गई. नीले आकाश में दो पक्षियों का जोड़ा उड़ रहा था. दोनों में कितना प्रेम था! शादी से पहले हम दोनों भी तो ऐसे ही थे. पक्षियों की साम्यता ने पल भर में मुझे वर्तमान से पीछे धकेल दिया. उस दिन की ख़ुशी को मैं संभाल नहीं पा रही थी, जिस दिन तमाम विरोधों के बाद प्रमोद मुझे ब्याहने आए थे. मुझे याद आ रहा है, एक दिन जब हम दोनों कड़कड़ाती ठंड की रात में कॉलेज के एक प्राध्यापक के घर बच्चे की बर्थडे पार्टी में गए थे. लौटते समय एकांत में हम एक पुलिया की मुंडेर पर बैठ गए. ठिठुरता देख उन्होंने मुझे आलिंगन में बांध लिया, “इससे पहले कि ठंड तुम्हें जकड़ ले, मैं जकड़ लेता हूं.” मैं कसमसायी, तो आलिंगन और कसता चला गया. उस सुखद अनुभूति को मैं आज तक नहीं भूल सकी हूं. हम आगे बढ़े, तो उन्होंने अपना ओवरकोट मुझे पहना दिया, “मैडम, अमूल्य निधि हो तुम. कितने जन्म लिए होंगे, तब तुम्हें पाया है. तुम ख़ुश रहो, बस, यही चाहता हूं. मुझे कुछ हो जाए, कोई परवाह...” उनके शायराना शब्दों को बीच में ही मैंने हथेली से होंठों को दबाकर रोक दिया, “आपको कुछ हो, उससे पहले मैं मर जाना चाहूंगी.” क्या दिन थे वो! घंटों नैनीताल की झील के किनारे पर खड़े होकर पेड़ों और पर्वतों को निहारना, कभी ठंडी सड़क पर धुंध में खो जाना, कभी भोवाली रोड पर कत्थई घास पर पेड़ों के नीचे बैठे रहना... और अब... कहां खो गया वो सब कुछ? यह भी पढ़े7 मज़ेदार वजहें: जानें क्यों होती है कपल्स में तू तू-मैं मैं?(7 Funny Reasons: Why Couples Fight?) मेरी समझ में नहीं आता कि विवाह के बाद क्या लड़की के परिवारवालों और संबंधियों से रिश्ता-नाता हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है? क्या पति को यह अधिकार है कि वह अपनी पत्नी, बच्चों और घर को अपनी मिल्कीयत समझे और इस बात का निर्धारण करे कि पत्नी के परिजन आएंगे या नहीं? लेकिन प्रमोद ने यही सब तो चाहा है और किया भी है, नहीं तो मैं अपना बसा-बसाया घर छोड़कर मायके क्यों आती? आख़िर तानाशाही और तानों को भी कोई कब तक सहेगा? विवाह से पहले प्रमोद ने क्या-क्या वायदे नहीं किए थे. ‘तुम रानी बनकर रहोगी. दोनों परिवारों का कोई भी व्यक्ति हमारे प्यार के घरौंदे में घुसपैठ नहीं करेगा.’ लेकिन कुछ दिनों बाद ही इस समझौते से मुकर गए. वह अक्सर अपने परिवार के बीच जाने लगे और उनके घरवाले भी जब-तब हमारे परिवार में हस्तक्षेप करने लगे. मजबूरी में मैंने उस दिन मम्मी-पापा और भइया-भाभी को बुला लिया. वह सुबह आए और शाम को चले गए. उन्होंने प्रमोद को काफ़ी समझाया भी, लेकिन उन्होंने उसका उल्टा मतलब निकाला. “अब तुम अपने घरवालों से मुझे प्रताड़ित कराओगी. मैं दबनेवाला नहीं हूं. घर का मालिक हूं.” aslam kohara असलम कोहरा

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Share this article