प्रकृति के विरुद्ध जाने का साहस तो कर लिया था, पर आज वह स़िर्फ प्रियंका गिल बनकर रह गई है. विभिन्न रिश्ते जिसमें बंधकर इंसान अपनी जीवन नैया की कठिन से कठिन घड़ियां भी हंसते-हंसते पार कर लेता है, वह उन रिश्तों से दूर थी.
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं दीदी, आपको आना ही होगा... आख़िर आप इनकी बेस्ट फ्रेंड रही हैं... ये जब-तब आपका ज़िक्र करते रहते हैं और आज जब आप मिल ही गई हैं तो आपको हमारा आतिथ्य तो स्वीकार करना ही पड़ेगा.” आरती ने ज़ोर देकर कहा.
“ठीक है....” उसने कह तो दिया था, पर उसे लग रहा था कि इनको भी अन्य लोगों की तरह उससे कोई काम तो नहीं है, वरना इस तरह आकर मिलना, खाने का आग्रह करना.... अनचाहे विचारों को झटक कर उसने सकारात्मक सोच अपनाई.
मां-पिताजी की मृत्यु के पश्चात् पहली बार इतनी आत्मीयता से किसी ने बातें की थीं. अब तक लोग मिलते थे, लेकिन उनके व्यवहार में चापलूसी ज़्यादा रहती थी. किसी से पारिवारिक मित्रता का तो प्रश्न ही नहीं था. वैसे उसने स्वयं को सदा रिज़र्व रखा था, जिससे कि उसका नाम व्यर्थ न उछले. उसे अपनी ड्यूटी के अलावा इतना समय ही नहीं मिलता था कि इधर-उधर बैठे. जो समय बचता था, उसमें वह क्लब में ब्रिज खेलती, ड्रिंक करती तथा देर रात लौटकर सो जाती थी. यही उसकी दिनचर्या थी.
राज का उससे इतना अपनत्व से मिलना तथा घर बुलाने के लिये आग्रह करना, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? वह सोच ही रही थी कि नौकर ने राज के आने की सूचना दी. पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई तथा साथ चल दी.
आरती उसका इंतज़ार कर रही थी. उनकी दोनों बेटियां भी गाड़ी रुकते ही तुरंत बाहर निकल आईं तथा अभिवादन करते हुए अपना-अपना परिचय दिया. सुरुचि घर के कोने-कोने से झलक रही थी.
खाना भी लज़ीज एवं ज़ायकेदार था. उनका आतिथ्य भोगकर वह घर तो चली आई थी, पर मन वहीं रह गया था. आज सब कुछ है उसके पास- मान-सम्मान, नौकर-चाकर, गाड़ी, पैसा लेकिन घर नहीं है... जहां कुछ पल बैठकर वह तनावमुक्त हो सके... अपना दुख-सुख किसी से बांट सके.
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यह वही राज था, जिसने उससे अपने प्यार का इज़हार करते हुए सदा साथ चलने की इच्छा ज़ाहिर की थी, पर उसने मना कर दिया था. वह उसका मित्र अवश्य था, पर ड्रीममैन नहीं. वैसे भी उस समय उसे विवाह बंधन लगता था.
पता नहीं क्यों राज के परिवार से उसे इतना लगाव हो गया था कि वह अक्सर उनके घर जाने लगी थी. वे भी उसके आने पर ख़ुश होते. बाहर घूमना, खाना भी साथ-साथ होने लगा था. पर आज की स्वस्थ तकरार ने उसके दिल में एक हूक पैदा कर दी थी. काश! उसका भी ऐसा ही घर-परिवार होता, जिसमें एक-दूसरे के प्रति इतना लगाव, इतनी चिंता होती. आज उसे अपना पद ही अपना दुश्मन लगने लगा था. वह अलग-थलग पड़ती जा रही थी. वी.आई.पी. का सम्मान तो उसे मिलता था, पर दिल के इतना क़रीब कोई नहीं था जिसे अपना मित्र, सखा या सहचर कह सके. प्रकृति के विरुद्ध जाने का साहस तो कर लिया था, पर आज वह स़िर्फ प्रियंका गिल बनकर रह गई है. विभिन्न रिश्ते जिसमें बंधकर इंसान अपनी जीवन नैया की कठिन से कठिन घड़ियां भी हंसते-हंसते पार कर लेता है, वह उन रिश्तों से दूर थी.
उसने अपनी मंज़िल भले ही पा ली हो, पर जीवन की उन अकेली और दुरूह राहों को कैसे पार करेगी जो इस मंज़िल के पूरे होने के बाद वृद्धावस्था में आएंगी. सोचकर वह सिहर उठी.
आज उसे मां बहुत याद आ रही थी जो उसके आचार-विचार, लक्षण एवं विवाह के प्रति नकारात्मक रुख देखकर कहती, “तुम ऊंचा अवश्य उठो, पर यह मत भूलो कि तुम एक स्त्री हो, नारीत्व से विमुख स्त्री कहीं की नहीं रहती... सच कहें तो नारीत्व की शोभा मां बनने में है. स्त्री चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न उठ जाए, मां बने बिना वह अधूरी ही है.”
आज उसे मां के कहे शब्द अक्षरशः सत्य लग रहे थे. शिल्पी और शिखा की मासूमियत ने उसके अंदर के मातृत्व को जगा दिया था. इस उम्र में विवाह... अब यह संभव नहीं है. जिस स्वतंत्रता से वह आज तक रहती आई है, उसमें बंदिश क्या वह सह पायेगी...? यह ज़िंदगी उसने अपने उसूलों पर चलकर बनाई है, फिर अफ़सोस, दुख और निराशा क्यों...? सोचकर मन को समझाती, पर दूसरे ही पल दूसरा विचार हावी हो जाता... तो क्या पूरी ज़िंदगी यूं ही अकेले, तन्हाइयों में काटनी पड़ेगी? आख़िर किसके लिये इतनी मेहनत कर रही है.... ज़िंदगी निरूद्देश्य नज़र आने लगी थी.... अब दिमाग़ में तरह-तरह के विचार हावी हों तो भला नींद कैसे आती....? ड्रॉवर से नींद की गोली निकालकर खाई तथा सोने की कोशिश करने लगी.
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दिन कट रहे थे, पर फिर भी कभी-कभी मन बेहद उदास हो उठता था. एक दिन पेपर पढ़ते-पढ़ते प्रियंका की निगाह एक लेख पर पड़ी. भारत में भी सिंगल पैरेन्टिंग का प्रचलन बढ़ा है.... अचानक उसे लगा उसके एकाकीपन का एक यही हल है, जिसमें न तो उसे अपने स्व की तिलांजलि देनी होगी और न ही अपने एकाधिकार पर किसी का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ेगा. इससे उसे अकेलेपन से भी मुक्ति मिल जायेगी तथा कोई तो ऐसा होगा, जिसे वह स़िर्फ अपना कह सकेगी. सच है, नकारात्मक विचार जहां निराशा का संचार करते हैं, वहीं सकारात्मक विचार आशा का. आशा-निराशा, दुख-सुख तो जीवन में आएंगे ही, पर मनुष्य वही है जो इन सबके
बीच भी सामान्य ज़िंदगी जीने की कोशिश करे. एक सहज मार्ग तलाश ले.
इसी के साथ प्रियंका ने एक निश्चय कर लिया, वह अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेकर अपने जीवन को नया आयाम देने का प्रयत्न करेगी. वह बच्चा न केवल उसके जीवन के अधूरेपन को दूर करेगा वरन् बुढ़ापे में भी जीने का संबल बनेगा. उसकी मासूम हंसी में अपने दुख, अपनी परेशानियां भूलकर, नये दिन का प्रारंभ नवउमंग, नवउत्साह के साथ किया करेगी. एकाएक ममत्व का सूखा स्त्रोत बह निकला. एकला चलो रे का मूलमंत्र उसने अपने मन से निकाल फेंका. उसी दिन उसने अनाथाश्रम से एक बच्चा गोद ले लिया.... उस अनजाने प्राणी को गोद में लेते ही उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में पूर्णता का एहसास जग गया.... उसकी मासूम मुस्कुराहट ने उसे जीवनदान दे दिया.... मन का अवसाद कोसों दूर भाग गया... उसे जीने की नई राह मिल गई थी.
- सुधा आदेश
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