कहानी- काठ की गुड़िया 2 (Story Series- Kath Ki Gudiya 2)
समय यदि भाग नहीं रहा था, तो भी आगे तो खिसक ही रहा था और एक दिन पारुल ने अपनी पढ़ाई भी पूरी कर ली और नौकरी करने लगी. घर भी हमने बड़ा ले लिया था. पारुल चाहती थी कि अब मैं काम बंदकर आराम करूं, पर अब तक मेरा काम काफ़ी फैल चुका था, उसमें अनेक महिलाओं को रोज़गार मिला हुआ था. काम बंद करने से वह सब बेरोज़गार हो जातीं.
पारुल को खिला-पिलाकर मैं कमरे में परेशान बैठी थी. सबसे बड़ी चिंता तो मुझे अपनी नन्हीं-सी बिटिया की थी. कितने नाज़ों से पाला था मैंने इसे. हरदम गुड़िया की तरह सजाकर रखती. नित नए डिज़ाइन्स के कपड़े बनाती. फ्रॉकों पर तो क्या, उसकी बनियानों पर भी कढ़ाई करती. उसी के भविष्य को लेकर परेशान थी मैं. अभी तो नासमझ है. समझने लगेगी, तो कैसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाएगी वह. लड़की होने का दंड मिला था उसे व उसकी मां को. लेकिन लड़की होना अपराध क्यों है? कैसे समझा पाऊंगी उसे यह बात? बेटों से यदि वंश चलता है, तो यह परंपरा, तो हमारे समाज की स्वयं की बनाई हुई है न? काश! मैं इस क़ाबिल होती कि अपनी बेटी को इस माहौल से कहीं दूर ले जाकर स्वयं उसकी परवरिश कर सकती.
अवसाद से घिरी बैठी थी कि किवाड़ खटका और कुछ पल बाद मिताली मेरे सामने थी. मेरी पहली प्रतिक्रिया तो उससे मुख मोड़ लेने की हुई, पर उसके चेहरे के भाव ने मेरा निश्चय डिगा दिया. मेरी हमउम्र है वह. मृदुभाषी और सीधी लीक पर चलनेवाली. लेकिन आज मैंने उसका आत्मविश्वास से भरा एक नया रूप ही देखा. सबसे पहले तो वह थाली में भोजन परोस लाई और आग्रहपूर्वक मुझे खिलाने लगी. स्नेहसिक्त इस धमकी के साथ कि यदि मैं नहीं खाऊंगी, तो वह भी भूखी रहेगी. बोली, “पारुल को पालने की पूरी ज़िम्मेदारी अब तुम्हारे कंधों पर है, पर यह मत सोचना कि तुम अकेली हो. मैं दूंगी तुम्हारा साथ.”
मिताली मुझे उस घुटन से निकालकर अपने साथ मेरठ ले आई और अपने घर के पास ही एक कमरा किराए पर दिलवा दिया. नौकरी करने लायक तो कोई डिग्री थी नहीं मेरे पास, सो अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कोई अन्य उपाय सोचना था. मैंने अपने शौक़ को ही अपनी आमदनी का ज़रिया बनाना तय किया. इसमें बहुत अधिक निवेश की भी ज़रूरत नहीं थी. एक सिलाई की मशीन ख़रीद मैंने अपना काम शुरू कर दिया. मिताली ने अपने परिचितों से कहकर शुरू में कुछ काम भी दिलवा दिया. मैंने स्वयं को अपने पुराने जीवन से बिल्कुल काट दिया, उन यादों को भी पास न फटकने दिया और स्वयं को काम में डुबो दिया. रात देर तक लगी रहती. दिन में कमरा सिलाई के काम आता और लोगों का आना-जाना लगा रहता. रात को सब कुछ किनारे कर हम मां-बेटी वहीं सो जातीं.
धीरे-धीरे कई स्थायी ग्राहक बन गए और सहायता के लिए मुझे अन्य कारीगरों को लगाना पड़ा.
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मिताली ने न स़िर्फ मेरी आर्थिक सहायता की थी, बल्कि मेरा मनोबल भी बढ़ाए रखा था. पैसा तो मैंने बाद में लौटा भी दिया, पर उसके एहसान किसी भी तरह लौटा नहीं पाऊंगी. सोचती हूं इसी तरह यदि सब स्त्रियां एक-दूसरे की सहायता करें, तो स्त्रियों की अनेक समस्याएं हल हो जाएं. मिताली ने भी अपने प्रयत्नों से पारुल को अच्छे स्कूल में भर्ती करवा दिया. मैंने निश्चय कर रखा था कि पारुल को अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम बनाऊंगी, ताकि उसे किसी पुरुष पर पूर्ण रूप से आश्रित न होना पड़े. एकदम परिवर्तित रूप से ही सही, जीवन एक बार फिर ढर्रे पर चल पड़ा था. समय यदि भाग नहीं रहा था, तो भी आगे तो खिसक ही रहा था और एक दिन पारुल ने अपनी पढ़ाई भी पूरी कर ली और नौकरी करने लगी. घर भी हमने बड़ा ले लिया था. पारुल चाहती थी कि अब मैं काम बंदकर आराम करूं, पर अब तक मेरा काम काफ़ी फैल चुका था, उसमें अनेक महिलाओं को रोज़गार मिला हुआ था. काम बंद करने से वह सब बेरोज़गार हो जातीं.
दूसरे विवाह से देवव्रत को बेटा तो मिल गया और कुछ वर्ष मौज-मस्ती में भी बीते, पर बेटा जब लगभग बारह वर्ष का हुआ, तो उसकी मां समीरा को गर्भाशय का कैंसर हो गया. ऑपरेशन हुआ और वर्षों इलाज भी चलता रहा, लेकिन तब तक बीमारी काफ़ी फैल चुकी थी और उस पर विजय पाना डॉक्टरों के बस में न रहा. और समीरा देवव्रत का साथ छोड़ गई. बेटा तो पहले ही अधिक लाड़-प्यार में बिगड़ चुका था, अब तो उसे देखनेवाला भी कोई न था. कुछ बिगड़ैल क़िस्म के लड़कों के साथ उसकी दोस्ती हो गई थी, जिनका एकमात्र शग़ल धन उड़ाना ही था. देव उस पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे, तो मिताली के ज़रिए मुझ तक संदेशे भिजवाने शुरू किए. वे चाहते थे कि मैं आकर घर संभाल लूं और उनके बेटे को भी. यह भी इशारा किया कि वह अपनी कोठी पारुल के नाम कर देंगे.
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मिताली अपने भाई का संदेशा अवश्य मुझ तक पहुंचा देती, पर निर्णय सदैव उसने मुझ पर ही छोड़ा.
देव को शायद लगता था कि मैं उनका निमंत्रण पा फ़ौरन लौट आऊंगी. तलाक़ की क़ानूनी कार्रवाई तो कभी हुई नहीं थी, सो वह शायद अब तक मुझ पर अपना अधिकार समझते थे. भूल गए थे कि जिसे उन्होंने मात्र अपनी कठपुतली समझ रखा था, उसकी डोर उनके हाथों से कब की छूट चुकी है. मैं उस घर में लौटने को कतई तैयार नहीं थी, जहां से एक दिन अपमानित होकर निकली थी.
उषा वधवा