Close

कहानी- ख़ामोशी 2 (Story Series- Khamoshi 2)

“आरु, बातें करते हैं ना. सो गए क्या?” “नहीं सुन रहा हूं, तुम बोलो.” “अपना चेहरा तो मेरी तरफ़ करो...” जाने कितनी बातें थीं उसके पास, जो ख़त्म ही नहीं होती थीं. वह बोलती रहती और मैं न जाने कब सो जाता. कभी ठीक से सुना ही नहीं आख़िर वह कहती क्या थी.” “आपकी शादी अरेंज्ड थी?” रति ने पूछ लिया था. “जी नहीं, बाकायदा प्रेम किया था हमने, वो भी फिल्मीवाला. छुप-छुपकर मिलना, रोमांस फ़रमाना, माता-पिता के तुगलकी फ़रमान का सामना करना, फिर अंत में जैसे हिंदी फिल्मों में सब ठीक हो जाता है, उसी तर्ज पर हमारे माता-पिता भी मान गए.'' “ओह, काफ़ी हंसमुख हैं लीनाजी शायद.” “लीना जैसा कोई हो ही नहीं सकता. उसकी हंसी बहुत तेज़ थी. जब वह हंसती, तो आस-पड़ोसवाले भी जान जाते थे. मैं अक्सर सोचा करता, ज़रा भी तमीज़ नहीं है इस औरत को. कहने को तो डबल एमए है, कॉलेज में लेक्चरर है, परंतु बुद्धि ढेले के बराबर नहीं. बातूनी तो इतनी कि मैं भी कभी-कभी खीज उठता था. हमारी शादी को बारह साल हो गए थे, परंतु इन बारह सालों में मैंने कभी भी उसे दुखी या उदास नहीं देखा था. बच्चा न हो पाने का मुझे कोई ख़ास दुख नहीं था, परंतु मां बन पाने की चाह अधूरी रह जाने के बाद भी लीना की आंखों में दर्द की एक रेखा भी मैंने नहीं देखी थी. जैसे दुखी होना उसे आता ही नहीं था. हर रात उसके पास बातों का पिटारा होता था मेरे लिए. “आरु, बातें करते हैं ना. सो गए क्या?” “नहीं सुन रहा हूं, तुम बोलो.” “अपना चेहरा तो मेरी तरफ़ करो...” जाने कितनी बातें थीं उसके पास, जो ख़त्म ही नहीं होती थीं. वह बोलती रहती और मैं न जाने कब सो जाता. कभी ठीक से सुना ही नहीं आख़िर वह कहती क्या थी.” “आपकी शादी अरेंज्ड थी?” रति ने पूछ लिया था. यह भी पढ़ें: इसलिए सिखाएं बच्चों को हेल्दी कॉम्पटीशन “जी नहीं, बाकायदा प्रेम किया था हमने, वो भी फिल्मीवाला. छुप-छुपकर मिलना, रोमांस फ़रमाना, माता-पिता के तुगलकी फ़रमान का सामना करना, फिर अंत में जैसे हिंदी फिल्मों में सब ठीक हो जाता है, उसी तर्ज पर हमारे माता-पिता भी मान गए. परंतु उन दिनों मुझे लीना का इतना बोलना कभी नहीं खला. उसकी इन्हीं अदाओं पर प्यार आता था. कहते हैं ना कि प्यार से अपना दिल जिसे कहते थे, वो तेरा तिल अब दाग़ नज़र आता है, शादी के दस सालों बाद, तो अपना महबूब भी सैयाद नज़र आता है, परंतु लीना की तरफ़ से कभी कोई बदलाव मैंने महसूस नहीं किया था. जितनी अच्छी तरह वह मुझे समझती थी, उस तरह तो मैं कभी स्वयं को भी नहीं समझ पाया था. कब मुझे चाय चाहिए होगी, कब मेरा पकौड़े खाने का दिल कर रहा होगा, कब मैं बॉस से झगड़ के आया हूं, कब मैं उदास हूं... यह सब वो मेरे बिन कहे समझ जाती थी, क्योंकि शायद हर स्त्री के अंदर कहीं न कहीं एक मां छुपी हुई होती है.         पल्लवी पुंडिर

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article