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कहानी- ख़ामोशी 4 (Story Series- Khamoshi 4)

“अच्छा चलो मैडम डिनर कर लेते हैं.” “तुम कर लो, मैं तो कर चुकी.” “कैसी बीवी हो तुम? दुनियाभर की औरतें अपने पति का खाने पर इंतज़ार करती हैं, उनके आने पर साथ में खाना खाती हैं.” “करती होंगी, पर लीना उनके जैसी नहीं है. वैसे भी एक पुण्य आत्मा ने कहा है कि खाने के लिए भूख का इंतज़ार करना चाहिए, पति का नहीं.” “अच्छा कौन-सी पुण्य आत्मा, ज़रा मैं भी तो सुनूं?” “वही, जिनके पति होने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ है... हा हा हा.” “हा हा हा...” एक साथ हंस पड़े थे हम दोनों. “लेकिन क्या?” “लेकिन मेरे टेप रिकॉर्डर का म्यूट बटन दब गया शेखरजी. मेरी लीना की आवाज़ चली गई और साथ ही पेट के नीचे का हिस्सा भी निर्जीव हो गया है.” अरविंदजी आ गए थे. कुछ देर तक सभी चुपचाप बैठे रहे. विमला के जाने के बाद रति ने बात की शुरुआत की. “माफ़ कीजिएगा अरविंदजी वो...” “नहीं-नहीं, कोई बात नहीं...” “पर अचानक ये हुआ कैसे?” शेखर ने पूछा. “उस रात मैं ऑफिस से लेट घर पहुंचा था. लीना के छात्र-छात्राओं की भीड़ घर पर ही थी. वह उनके साथ बैठी हुई रसायनशास्त्र के किसी अध्याय पर चर्चा कर रही थी. जब तक मैं हाथ-मुंह धोकर आया, घर खाली हो चुका था. मुझे देखकर हंसते हुए बोली... “डिनर करोगे या करके आए हो?” जला-भुना तो मैं था ही, उसके इतना कहते ही चिल्ला पड़ा, ‘मेरे पास तुम्हारी तरह इतने चाहनेवाले तो हैं नहीं, जो साथ में डिनर ऑफर करें.’ मुझे लगा था अब तो पक्का लड़ेगी मुझसे, परंतु उसके चेहरे पर ग़ुस्से की एक लकीर तक नहीं उभरी और वो हंसते हुए बोली, “हां भई, तुम्हारी यह बात भी सही है. कड़वा करेला, ऊपर से नीम चढ़ा, खाने की हिम्मत तो स़िर्फ मुझमें ही है.” “अच्छा तो मैं करेला हूं?” यह भी पढ़ें: क्या आप इमोशनली इंटेलिजेंट हैं? “हां... और तुम्हें तो पता है मुझे करेला कितना पसंद है.” न चाहते हुए भी मैं हंस पड़ा था. “अच्छा चलो मैडम डिनर कर लेते हैं.” “तुम कर लो, मैं तो कर चुकी.” “कैसी बीवी हो तुम? दुनियाभर की औरतें अपने पति का खाने पर इंतज़ार करती हैं, उनके आने पर साथ में खाना खाती हैं.” “करती होंगी, पर लीना उनके जैसी नहीं है. वैसे भी एक पुण्य आत्मा ने कहा है कि खाने के लिए भूख का इंतज़ार करना चाहिए, पति का नहीं.” “अच्छा कौन-सी पुण्य आत्मा, ज़रा मैं भी तो सुनूं?” “वही, जिनके पति होने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ है... हा हा हा.” “हा हा हा...” एक साथ हंस पड़े थे हम दोनों. उस रात बिस्तर पर लेटकर जब मैं फेसबुक चेक कर रहा था, वह मेरे पास आई और कहने लगी... “क्या कर रहे हो?” “बातें अपने दोस्तों के साथ.” “दूर बैठे दोस्तों से बात कर सकते हो, पास बैठी पत्नी से नहीं.” “क्या बात करूं तुमसे? कौन-सी बात बची है करने को? दिनभर तो बोल-बोलकर दिमाग़ ख़राब कर देती हो. इसने वो कहा, उसने ये किया. कितना स्टॉक है तुम्हारे पास बातों का, जो कभी ख़त्म ही नहीं होता.’ “हां करती हूं मैं, पर तुम ही बताओ कितनी बार अपना फोन साइड में रखकर मेरी आंखों में आंखें डालकर मेरी बात सुनते हो?”       पल्लवी पुंडिर

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