Close

कहानी- ख़ामोशी 5 (Story Series- Khamoshi 5)

“एक ही घर में अजनबी बन गए हैं हम दोनों. तुम कहते हो मैं इतना बोलती हूं. क्या तुम सुन पाते हो मुझे? क्या तुम तक पहुंच पाती है मेरी आवाज़?” ग़ुस्से में पागल हो गया था मैं. ‘क्या सुनूं? अपने घर मे शांति के लिए तरस गया हूं मैं. तुम्हारी दिनभर की फालतू बकवास से थक गया हूं मैं. थोड़ी देर के लिए ख़ामोश नहीं हो सकतीं तुम?” “हम्म... ज़िंदगी उतनी बड़ी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है अरु. आज तुम्हें मेरी आवाज़ बुरी लग रही है. कल कहीं ख़ामोशी न चुभने लगे.” इसके बाद लीना सो गई थी. नींद में ही स्ट्रोक आया उसे और मेरी ज़िंदगी में ख़ामोशी भर गया.” कमरे में एक चुप्पी पसर गई थी. “क्या सुनूं मैं, अपनी मां की बुराइयां?” लीना की सभी अच्छाइयों पर उसका मां न बन पाना जैसे एक ग्रहण था, इसलिए मेरी मां एक भी मौक़ा नहीं छोड़ती थी लीना को नीचा दिखाने का. जैसे औरत की पहचान केवल मां बनना हो. जैसे मेरा खानदान धरती पर बची एक विलुप्त प्रजाति हो, जिसके समाप्त होने का ख़तरा बना हुआ हो. मेरे उस प्रश्‍न पर शायद थोड़ा विचलित हुई थी वो, परंतु तुरंत ही पलटवार करती हुई बोली, “क्या बाबू मुशाय, तुम तो जानते हो मैं पीठ पर वार करने में यकीन नहीं रखती, इसलिए जो भी कहना होगा, तुम्हारी मां के मुंह पर कहूंगी.’ उसकी इन्हीं बातों पर प्यार आ जाता था मुझे. फिर उसे अपनी बांहों में लेकर मैंने पूछा था... ‘तो फिर बताओ कौन-सी बात करनी है?’ “कुछ मेरी सुनो, कुछ अपनी सुनाओ.” “कमाल है, तुम किसी और की सुन भी सकती हो?” “अरविंद, अच्छा बताओ...” उसके बाद पता नहीं लीना क्या-क्या मुझे बताती रही. आज याद करता हूं, तो कुछ भी याद नहीं आता, क्योंकि मैंने कुछ भी सुना ही नहीं था. मैं तो क्रिकेट देखने में व्यस्त हो गया था. पता नहीं कब तक बोलती रही थी वो. अचानक ही एक चीख से मेरा ध्यान लीना की तरफ़ गया था. “अरविंद...” “क्या है लीना? ऐसे क्यों चीखीं तुम? कब सीखोगी तमीज़?” हड़बड़ाहट में मेरे हाथों से टीवी का रिमोट भी गिर गया था. “एक ही घर में अजनबी बन गए हैं हम दोनों. तुम कहते हो मैं इतना बोलती हूं. क्या तुम सुन पाते हो मुझे? क्या तुम तक पहुंच पाती है मेरी आवाज़?” यह भी पढ़ें: ख़ुश रहना है तो सीखें ये 10 बातें  ग़ुस्से में पागल हो गया था मैं. ‘क्या सुनूं? अपने घर मे शांति के लिए तरस गया हूं मैं. तुम्हारी दिनभर की फालतू बकवास से थक गया हूं मैं. थोड़ी देर के लिए ख़ामोश नहीं हो सकतीं तुम?” “हम्म... ज़िंदगी उतनी बड़ी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है अरु. आज तुम्हें मेरी आवाज़ बुरी लग रही है. कल कहीं ख़ामोशी न चुभने लगे.” इसके बाद लीना सो गई थी. नींद में ही स्ट्रोक आया उसे और मेरी ज़िंदगी में ख़ामोशी भर गया.” कमरे में एक चुप्पी पसर गई थी. “अरविंदजी, डॉक्टर क्या कहते हैं?” रति ने पूछा. “इलाज कर रहे हैं. अगले महीने लीना को अमेरिका ले जा रहा हूं.” “देखिएगा वो बिलकुल ठीक हो जाएंगी.” शेखर ने दिलासा देने की कोशिश की. अरविंद ने एक लंबी सांस ली और बोले, “एक बात कहूं आप दोनों से? चंद लम्हे तुम्हारी ज़िंदगी के, तुम्हारे पास ऐसे मुट्ठी में ़कैद हों रेत जैसे.. इससे पहले कि वक़्त फिसल जाए मुट्ठी से तुम्हारी, जी लो हर लम्हा आख़िरी वक़्त हो जैसे...!” ‘आ... आ...’ अंदर कमरे से आ रही इस आवाज़ को सुनकर अरविंदजी अचानक खड़े हो गए थे. “बस इतना ही कहना था आप दोनों से. अब आप दोनों को मुझे माफ़ करना होगा, लीना को टीवी देखने का मन कर रहा है, तो मुझे उसके पास जाना होगा.” दोनों को दरवाज़े तक छोड़ने अरविंदजी आए, तो अचानक शेखर रुक गया और पलटकर उसने अरविंदजी से पूछ लिया, “अरविंदजी, आपको कैसे पता चला कि लीनाजी को टीवी देखना है?” चेहरे पर फीकी हंसी आ गई थी उनके... “कोई कमाल की बात नहीं है शेखर. बस ज़िंदगीभर जिस लीना की आवाज़ यह दिल नहीं सुन पाया था, उसकी ख़ामोशी को भी अब सुनने लगा है.”        पल्लवी पुंडिर

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article