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कहानी- खुली किताब का बंद पन्ना… 1 (Story Series- Khuli Kitab Ka Band Panna 1)

हम दोनों एक-दूसरे से काफ़ी जुड़ गए थे. तन्वी ने अवश्य ही इस अंतरंगता का पूरा ब्यौरा अपने पति को दिया होगा जैसा कि उसका स्वभाव था और मेरा अनुभव था. और शायद इसीलिए मुझ तक उसके गुज़र जाने की ख़बर पहुंचाना उन्हें लाज़मी लगा और मुझे भी इस शोकसंतप्त घड़ी में उनके पास जाना आवश्यक लगा.

      ‘तन्वी नहीं रही’ मन ही मन दस बार दुहरा लेने के बाद भी दिल यक़ीन करने को तैयार ही नहीं था. सम्मिलित तो उसकी अंतिम यात्रा में होना चाहती थी, पर गृहस्थी और ऑफिस के बीसियों झमेलों के बीच तीन-चार दिन बाद ही निकलना हो सका. गाड़ी के हिचकोलों के बीच मन उसी के साथ बिताए पलों की स्मृति में डूबता-उतराता रहा. वैसे तो तन्वी मेरी कॉलेज की सहेलियों में से एक थी. पर इधर पिछले कुछ महीनों से उसका अपने काम के सिलसिले में बार-बार मेरे शहर आना, दो बार हफ़्तेभर के लिए मेरे साथ मेरे घर रुकना हमारे संबंधों को एक नया ही आयाम दे गया था. हम दोनों एक-दूसरे से काफ़ी जुड़ गए थे. तन्वी ने अवश्य ही इस अंतरंगता का पूरा ब्यौरा अपने पति को दिया होगा जैसा कि उसका स्वभाव था और मेरा अनुभव था. और शायद इसीलिए मुझ तक उसके गुज़र जाने की ख़बर पहुंचाना उन्हें लाज़मी लगा और मुझे भी इस शोकसंतप्त घड़ी में उनके पास जाना आवश्यक लगा. दो महीने पहले सोशल साइट पर चैट के दौरान उसने मुझे मेरे शहर आने की सूचना दी थी. तब मैंने उसे अपना मोबाइल नंबर देकर मुझसे मिलने का आग्रह किया था. तब कहां ख़्याल था कि कॉलेज की एक सामान्य सहपाठी इतनी अंतरंग सखी, बहन सब कुछ बन जाएगी. यह भी पढ़ें: मन का रिश्ता: दोस्ती से थोड़ा ज़्यादा-प्यार से थोड़ा कम (10 Practical Things You Need To Know About Emotional Affairs) उस दिन तन्वी से मिलने की उत्सुकता में मैंने ज़रूरी फाइलें निबटाईं और ऑफिस का समय ख़त्म होने से पहले ही टैक्सी पकड़कर पार्क प्लाजा पहुंच गई थी. तन्वी मुझसे पांच मिनट पहले ही पहुंची थी और बैठने के लिए उपयुक्त स्थान तलाश रही थी. "वहां अंदर बैठते हैं एसी में." कहते हुए मैं अंदर जाने लगी, तो तन्वी ने मेरा हाथ पकड़कर बाहर ही रोक लिया था. "नहीं, यहां खुले में ज़्यादा अच्छा लग रहा है. वैसे भी भीड़भाड़ में मुझे घुटन होती है." वह मेरा हाथ पकड़कर वहीं कोने में रखी टेबल कुर्सी पर जम गई थी. बैरा कुछ ही देर में ऑर्डर किए गए सैंडविच और कॉफी रख गया था. हम सैंडविच कुतरते, गर्म कॉफी के घूंट गले उतारते तब तक बतियाते रहे, जब तक कि आसपास अंधेरा घिर आने का एहसास नहीं हो गया. "ओह बातों बातों में वक़्त का पता ही नहीं चला. तू कहां ठहरी हुई है? घर चल ना?" मैंने आग्रह किया. "यहीं पास ही कंपनी का गेस्टहाउस है. वहीं इंतज़ाम है." अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें... [caption id="attachment_182852" align="alignnone" width="246"]Sangeeta Mathur संगीता माथुर[/caption]         अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES  

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