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कहानी- मनवा लागे 1 (Story Series- Manwa Laage 1)

उपनाम रखना तो लेखकों का शग़ल होता है, लेकिन यह एस. कहीं शिव तो नहीं? एकाध पत्र-पत्रिका में फोटो भी छपी थी इस लेखक की, पर फ्रेंचकट दाढ़ी और चश्मेवाली उस प्रभावशाली शख़्सियत में कॉलेजवाले उस सीधे-सादे शिव से कोई साम्य वह नहीं खोज पाई थी. ख़ुद उसका चेहरा भी तो कितना बदल गया है. क्या शिव उसे आज देखे, तो पहचान पाएगा? शायद नहीं या शायद हां? बेटी टिया सिर पकड़े घर में घुसी तो विभा ने पूछ ही लिया, “सिरदर्द हो रहा है बेटी?” “हां मां, कुछ देर के लिए लेट रही हूं. डिस्टर्ब मत करना.” पर ऐसा भला हो सकता था. विभा बाम लेकर पीछे-पीछे ही टिया के कमरे में पहुंच गई. “सवेरे कॉलेज जाते वक़्त तो तू ठीक थी?” “यही तो मुश्किल है. कॉलेजवाले पढ़ाते तो हैं नहीं, उल्टी-सीधी एक्टीविटीज़ करवाते रहते हैं. आज वृक्षारोपण कार्यक्रम रख लिया. कल किसी लेखक का लेक्चर था, जो यहां साहित्य सम्मेलन में भाग लेने आए हुए हैं. क्या नाम था.. हां, एस. दीपक.” “क्या वे तुम्हारे कॉलेज आए थे?” विभा ने आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से कहा. “क्यों नहीं आ सकते?” यह भी पढ़े: हेमा मालिनी… मां बनना औरत के लिए फख़्र की बात होती है “नहीं, आ सकते हैं. पर तूने बताया नहीं था कि वे आए थे, जबकि तुझे पता है मैं उनकी लगभग हर कहानी पढ़ती हूं.” “हां और आपको तो यह भी डाउट है कि वह आपकी मामी की बहन का लड़का शिव है, जो आपको मामी के यहां तब मिला था, जब आप ही की तरह वह भी वहां गर्मी की छुट्टियां बिताने आया हुआ था. तब आप दोनों ही कॉलेज स्टूडेंट्स थे.” “हां याद है और तेरे पूछने पर मैंने तुझे इस डाउट की वजह भी बताई थी.” “आपको लगता है कि अपनी कहानियों में उन्होंने कई ऐसे क़िस्से बयां किए हैं, जो उस दौरान घटित हुए थे, मसलन- साथ ताश खेलना, पिकनिक पर जाना... पर ये तो कॉमन-सी बातें हैं.” “हां, शायद तू ठीक ही कह रही है.” विभा ने टाल तो दिया, पर मन में वह जानती थी कि उसका शक निराधार नहीं है. ताश खेलना कॉमन बात हो सकती है, पर शिव का हमेशा उसी को पार्टनर चुनने की ज़िद तो कॉमन बात नहीं है न! पिकनिक पर जाना कॉमन बात हो सकती है, लेकिन वहां विभा को धूप सताने पर अपना सनग्लासेस उतारकर उसे पहना देना, तो कॉमन बात नहीं है न! ओैर यही सब क़िस्से इस तथाकथित लेखक एस. दीपक ने अपनी कहानियों में वर्णित किए हैं. उपनाम रखना तो लेखकों का शग़ल होता है, लेकिन यह एस. कहीं शिव तो नहीं? एकाध पत्र-पत्रिका में फोटो भी छपी थी इस लेखक की, पर फ्रेंचकट दाढ़ी और चश्मेवाली उस प्रभावशाली शख़्सियत में कॉलेजवाले उस सीधे-सादे शिव से कोई साम्य वह नहीं खोज पाई थी. ख़ुद उसका चेहरा भी तो कितना बदल गया है. क्या शिव उसे आज देखे, तो पहचान पाएगा? शायद नहीं या शायद हां?       संगीता माथुर
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