Close

कहानी- नई किरण 4 (Story Series- Nai Kiran 4)

नई-नई प्रोफेसर बनी कावेरी के मन में समाज के प्रति संवेदनाएं भरी थी. वो घर आकर मां के सामने अपना ज्ञान बांटने लगी थी, “ये बूढ़े लोग भी ना... अपनी मनमानी करते हैं. क्यों नहीं जाते अपने बच्चों के पास... तकलीफ़ में रहेंगे, पर जाएंगे नहीं. बेचारे बच्चे बदनाम होंगे.” “हां जो भोगे वही जाने... तू क्या जाने...” मां गेहूं फटकती हुई बोली थी. ... “हां कावेरी, सब पूछ्ते हैं. ऐसा नहीं कि बेटा मुझे बुलाता नहीं है, वो बहुत अच्छा है. बहू भी बहुत अच्छी है. दो बार रह भी आई हूं कनाडा... देश भी अच्छा है, पर वो बात नहीं, जो सुख छज्जू के चौबारे... वो बलख ना बुखारे...” और कहकर झाईजी पोपले मुंह से हंस दी थीं. कावेरी बुझे मन से लौट आई थी. नई-नई प्रोफेसर बनी कावेरी के मन में समाज के प्रति संवेदनाएं भरी थी. वो घर आकर मां के सामने अपना ज्ञान बांटने लगी थी, “ये बूढ़े लोग भी ना... अपनी मनमानी करते हैं. क्यों नहीं जाते अपने बच्चों के पास... तकलीफ़ में रहेंगे, पर जाएंगे नहीं. बेचारे बच्चे बदनाम होंगे.” “हां जो भोगे वही जाने... तू क्या जाने...” मां गेहूं फटकती हुई बोली थी. दो-तीन साल बाद कावेरी के पास मां का फोन आया था कि झाईजी स्वर्गवासी हो गईं. तीन दिन तक तो मोहल्लेवालों को भी नहीं पता चला. बदबू आनी शुरू हुई, गेट नहीं खुला, तब जाकर लोग जाने. बेटा भी अग्नि नहीं दे पाया, क्योंकि लाश की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उसका इंतज़ार नहीं किया जा सकता था. कावेरी फोन का चोंगा लिए काफ़ी देर यूं ही खड़ी रह गई थी. बुखार में तपती कावेरी ने करवट बदली, तो दर्द से कराह उठी. बुखार में बड़बड़ा उठी, "बच्चों के पास रहो तो मुश्किल और बच्चों के पास नहीं जाओ, तो झाईजी जैसे अपनी देह भी कीड़ों के हवाले कर दो. मुक्ति तो कहीं भी नहीं है ना... ये बुढ़ापा है ही ऐसा भयावह...” युवावस्था में कावेरी सोचती थी लोगों के पास दर्शन नहीं है, अच्छे विचार नहीं है, उच्च मानसिकता नहीं है, इसलिए लोग बुढ़ापे में भोगते हैं. अरे, सब मोह-माया है, पैसा तो यहीं रह जाना है, फिर बच्चों को देकर उनके प्यार से वंचित क्यों रहा जाए... पर आज कावेरी ख़ुद बुढ़ापे के मुहाने पर खड़ी है, तो समझ नहीं पा रही कि कौन-सा रास्ता अपनाए. कावेरी की आंखों में नींद कहां थी. युवावस्था में काॅलेज में दिए गए सब भाषण याद आए, लेकिन उसने कभी वृद्ध लोगों की स्थिति पर कोई भाषण नहीं दिया. उसने वृद्ध-विमर्श पर कोई लेख भी नहीं लिखा. वो समाज में वृद्धों की समस्या को देखती रही और महसूस भी करती रही, पर उसने कभी नहीं सोचा कि ये स्थिति उसके साथ भी आएगी. वो तो सोचती रही कि वह तो पढ़ी-लिखी चिन्तक है, निपट लेगी उन परिस्थितियों से, पर वो नहीं जानती थी कि बुढ़ापा इतना भयावह होता है, जो इंसान को असहाय कर देता है. वो चाहे किसी भी परिस्थिति में रहे. बच्चों के साथ रहे या अकेले रहे, भरे-पूरे परिवार में रहे या एक ही बेटे के साथ... बुढ़ापा तो उसे ही भोगना पड़ेगा. यह भी पढ़ें: 85 साल के कोरोना पीड़ित RSS स्वयंसेवक ने युवक के लिए छोड़ा अपना बेड, कहा- मैंने अपनी ज़िंदगी जी ली, इसके बच्चे अनाथ न हों, तीन दिन बाद नहीं रहे...! ('I Have Lived My Life': 85-Year-Old Vacates His Hospital Bed For 40-Year-Old Patient, Dies At Home) कावेरी का बुखार उतरा था. उसने खिड़की की तरफ़ देखा. पौ फटने को थी. बाहर चिड़ियों का कलरव सुनाई देने लगा. उसने आसपास पड़ी तिपाई से मोबाइल उठाया और प्रांजल को फोन लगा दिया, "बेटा प्रांजल, मुझे आकर ले जा... मैं बुखार में हूं.” एक नई किरण उग आई थी कावेरी के आसपास! Sangeeta संगीता sethi संगीता सेठी अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article