प्रांजल को लगा पंछी की तरह इस ढलती शाम को वह भी कुछ पलों के लिए ही सही, अपने नीड़ को लौट आई है. स्नेहाशीषों से आंचल भर गया. कुछ ख़ुशी के मोती भी आंखों से छलक आए. न ख़त्म होनेवाली आत्मीय बातों से जी जुड़ गया. दूसरे दिन के निमंत्रण मिल गए. बेटी मायके आई है, बिना खाना खिलाए कैसे जाने दें. लिहाज़ा स्वीकार करना ही पड़ा.
“जैसी है वैसी ही अच्छी लग रही है, चल.” प्राजक्त ने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाया.
“कहां जा रहा है अचानक, क्या हुआ?”
मां-पिताजी दोनों अचकचाकर पूछने लगे. भाभी भी कौतूहल से देखने लगी.
“कुछ नहीं आते हैं थोड़ी देर में.” कहते हुए प्रांजल को लेकर वह घर से बाहर निकल गया. कॉलोनी के बाहर निकलकर वह जैसे ही पुरानी चिरपरिचित सड़क पर पहुंचे, प्राजक्त ने देखा, प्रांजल के चेहरे का रंग बदलने लगा है.
अपरिचितों की भीड़ में उकताए एकाकी मन को अचानक किसी अपने को देखकर जो ख़ुशी महसूस होती है, ख़ुशी के वही रंग एक-एक करके प्रांजल के चेहरे पर आते जा रहे थे. उसकी गाड़ी सीधे प्रांजल के स्कूल के सामने खड़ी थी.
अपना स्कूल देखते ही प्रांजल के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी. किशोरावस्था, सखियों, शिक्षकों की न जाने कितनी स्मृतियां ताज़ा हो गईं एक साथ. बहुत देर तक वह स्कूल के प्रांगण में, गेट, दरवाज़े-खिड़कियों को देखती रही. फिर कॉलेज की स्मृतियां ताज़ा कीं. गेट के बाहर चना-जोरवाला काका अब भी अपना खोमचा लेकर ख़ड़ा था. प्रांजल ने खिड़की का कांच खोला और काका को दो दोने बनाने को कहा. काका तत्परता से दो दोने चटपटे चना-जोर ले आए.
“अरे बिटिया, तू तो एही की पढ़ी है न? बड़े दिनों बाद आई रही. सादी हो गई का तोहार?” काका ने उसे पहचान लिया, कितना तो चना-जोर लेती थी वो काका से. ढेर सारा नींबू डलवाकर. आज भी काका झट से एक नींबू काटकर ले आए और उसके चने पर निचोड़ दिया.
“हमें याद है बिटिया, तोहे ख़ूब सारा नींबू डला हुआ चना पसंद है.”
“कैसन हो काका?” प्रांजल ने आत्मीयता से पूछा और बीस का नोट बढ़ा दिया उनकी ओर.
“नहीं-नहीं बिटिया, पीहर आई बिटिया से कोई पैसे लेते हैं क्या. जुग-जुग जियो, ख़ुश रहो.” काका ने हाथ पीछे कर लिए. “ख़ूब फूलो-फलो.”
“बेटी से नहीं, तो कमाऊ बेटे पर तो हक़ बनता है न काका.” कहते हुए प्राजक्त ने पचास का नोट काका की जेब में ज़बर्दस्ती रख दिया. बदले में काका ने ढेर सारी दुआओं से प्रांजल की झोली भर दी और अपनी छलक आई आंखें पोंछते हुए उसे विदा दी.
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चना-जोर ख़त्म होने तक दोनों न्यू मार्केट में थे. अपने उस फेवरेट आइस्क्रीम पार्लर के सामने, जहां बचपन में पिताजी के साथ आते थे स्ट्रॅाबेरी आइस्क्रीम खाने और बड़े होने पर प्राजक्त अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर लाता था और दोनों हर बार अलग-अलग फ्लेवर खाते थे. और हर बार प्रांजल प्राजक्त की आइस्क्रीम खाकर कहती, ‘तुम्हारी आइस्क्रीम ज़्यादा टेस्टी है.’ और प्राजक्त अपनी आइस्क्रीम भी उसे देता था. स्नेह की ऐसी मिठास थी उस आइस्क्रीम में, जो कभी भी अमेरिका के महंगे पार्लरों की महंगी आइस्क्रीमों में भी नहीं मिली. आइस्क्रीम का स्वाद लेते-लेते दोनों ने न्यू मार्केट की गली-गली घूम ली.
मन भरकर जब उन गलियों में घूम लिए, तो प्राजक्त ने देखा कि प्रांजल के चेहरे पर पांच साल पहलेवाली प्रांजल की झलक दिख रही थी. वह उसे शिवाजी नगर की चौपाटी पर ले गया, जहां दोनों अक्सर मामा-भांजे चाट-कॉर्नर पर आलू-टिक्की और पानीपूरी खाते थे. अमेरिका में तो वह इन दोनों का स्वाद भूल ही गई थी. उसके मुंह में पानी भर आया. भांजा तो नहीं पहचान पाया, लेकिन मामा दोनों को देखकर खूब ख़ुश हुआ. भरपेट टिक्की और पानीपूरी खाकर प्राजक्त उसे पुराने घर की पुलिया पर ले गया. शाम ढलने को थी. आसमान का रंग बदल रहा था. प्रांजल के चेहरे पर भी एक गुलाबी आभा छाने लगी थी. बचपन में दादाजी उसे गोद में लेकर इस पुलिया पर आ बैठते थे और घर लौटते पंछियों के झुंड दिखाते, फिर वह उनकी उंगली पकड़कर यहां आने लगी. पंछियों को घर लौटते देखकर उसे बड़ा आनंद आता. गोद से डोली तक का सफ़र कब तय हो गया, पता ही नहीं चला. प्रांजल ने पिछला पूरा जीवन यादों में जी लिया. दाएं हाथ की तरफ़ पुराना घर था. क्षणभर को वह भूल गई कि अब वह यहां नहीं रहती. उसे लगा वह बस पंछियों को देखने पुलिया पर बैठी है, थोड़ी देर में घर जाएगी, अपने घर.
आसपास के घरों के कुछ परिचितों ने देखा, तो पुलिया पर ही चौपाल जम गई. वहीं चाय आ गई. कुर्सियां आ गईं. चाची-ताई, मौसी, ताऊ सब आ गए. मिठाई और न जाने क्या-क्या आ गया. अमेरिका की एकाकी, संवेदनहीन संस्कृति की शुष्कता में इन पुलियाई रिश्तों की आत्मीय तरलता मन को भिगो गई. पॉश कॉलोनियां चाहे पश्चिमी संस्कृति में रंगी रुखी होती जा रही थीं, लेकिन इन ज़मीन से जुड़े मोहल्लों में अभी भी रिश्तों में नमी बची हुई है.
प्रांजल को लगा पंछी की तरह इस ढलती शाम को वह भी कुछ पलों के लिए ही सही, अपने नीड़ को लौट आई है. स्नेहाशीषों से आंचल भर गया. कुछ ख़ुशी के मोती भी आंखों से छलक आए. न ख़त्म होनेवाली आत्मीय बातों से जी जुड़ गया. दूसरे दिन के निमंत्रण मिल गए. बेटी मायके आई है, बिना खाना खिलाए कैसे जाने दें. लिहाज़ा स्वीकार करना ही पड़ा. भरे मन से सबसे विदा ले, जब वापस जा रही थी, तो प्राजक्त ने कहा, “मानता हूं बदलती परिस्थितियों में काफ़ी कुछ छूट गया, बदल गया, लेकिन फिर भी तेरा ब़ड़ा भाई तेरा पुराना एहसास, पुराना घर जितना संभव हो सके, तुझे लौटाने की कोशिश हमेशा करेगा. मेरे रहते तेरा मायका बना रहेगा.”
प्रांजल ने मुस्कुराकर भइया को देखा. भइया ने आज उसके आंचल में नैहर का सुख भर दिया था.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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