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कहानी- पछतावा 2 (Story Series- Pachhtava 2)
“अभी मैं कुछ नहीं कह सकती यह तो वक़्त ही बताएगा कि हमें भविष्य में मिलना चाहिए या नहीं.” श्लोका ने सपाट सा जवाब दिया. वापस लौटकर भी उसके दिमाग़ पर व्योमेष ही छाया रहा. उसके व्यक्तित्व में ऐसा जादू था, जिससे वह अपने को अलग नहीं कर पा रही थी.
... पर वक़्त इंसान से क्या कुछ नहीं करवा देता? जीवन की बदली परिस्थितियों ने श्लोका की जीवन शैली बदल दी. अब वह अपना अधिक से अधिक समय बच्चों को देने लगी. जल्दी ही वह सबकी चहेती मैडम बन गई. विद्यालय के अधिकांश कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए वह बच्चों के साथ इधर-उधर चली जाती.
ऐसे ही एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वह बच्चों के साथ लखनऊ आई थी. मंत्रीजी के आने में थोड़ा समय था. खचाखच भरे सभागार में श्लोका छात्रों के साथ आगे ही बैठी थी. बच्चों के साथ आए व्योमेष ने माइक थामा और अपनी मीठी आवाज़ में बच्चों को व्यस्त रखने के लिए गाना गाना शुरू कर दिया.
एक प्यार का नगमा है मौजों की रवानी है. ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है... शोर पिक्चर के इस गीत के साथ सभागार का शोर थम गया. सब इस गीत में डूब गए. श्लोका की आंखों से भी आंसू झरने लगे. वह बहुत कोशिश करने पर भी अपनी भावनाओं को रोक नही पाई और वह वहां से उठकर बाहर चली गई.
गाना ख़त्म हुआ, तो व्योमेष भी उसे ढूढ़ते हुए बाहर गैलरी में आ गया और बोला, “माफ़ करना शायद आपको मेरा गाना पसंद नहीं आया...”
“ऐसी बात नहीं है. दरअसल...”
“कोई बहाना बनाने की आवश्यकता नहीं मुझे पता है मैं एक अच्छा गायक नहीं हूं. वह तो बस यूं ही बच्चों का शोर कम करने और वक़्त काटने के लिए मैंने माइक थाम लिया.”
“सच में आप बहुत अच्छा गाते हैं. आपकी आवाज़ में जादू है. इसी वजह से आंखें भर आईं.”
“लगता है आपके अंदर बहुत दुख भरा हुआ है."
“नहीं तो.” श्लोका अचकचाकर बोली जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो.
“दुख छुपाने से नहीं बांटने से हल्का होता है. मेरा नाम व्योमेष है.”
“आपसे तो कुछ कहना ही बेकार है बगैर कहे सब कुछ जान लेते हैं. मैं श्लोका हूं.”
“चलिए, अंदर चलते हैं. वहीं बैठकर बातें होंगी.” श्लोका बोली और वे दोनो हॉल में आ गए. वे बड़ी देर तक बातें करते रहे. वर्षों बाद श्लोका ने किसी पुरुष के साथ ऐसे घुलमिल कर बातें की थी. आज का कार्यक्रम दोनों को बड़ा अच्छा लगा. यह साथ का असर था या कार्यक्रम ही इतना सुंदर था कहना मुश्किल था. समय जैसे खो सा गया था. फोन नंबर के आदान-प्रदान के साथ उन्होंने एक-दूसरे से विदा ली.
“हम दोनों एक की शहर में रहते हैं बुरा न माने, तो मैं तुम्हें वहां मिलने आ सकता हूं?” व्योमेष ने पूछा.
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“अभी मैं कुछ नहीं कह सकती यह तो वक़्त ही बताएगा कि हमें भविष्य में मिलना चाहिए या नहीं.” श्लोका ने सपाट सा जवाब दिया. वापस लौटकर भी उसके दिमाग़ पर व्योमेष ही छाया रहा. उसके व्यक्तित्व में ऐसा जादू था, जिससे वह अपने को अलग नहीं कर पा रही थी.
सुल्तानपुर पहुंचने पर स्त्री सुलभ लज्जा के कारण श्लोका ने व्योमेष को फोन नहीं किया. व्योमेष को उसके फोन का इंतज़ार था. जब इंतज़ार लंबा होने लगा, तो विवश होकर उसी ने श्लोका से बात की.
“कैसी हो श्लोका? मैं तब से तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा..."
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...
डॉ. के. रानी
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