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कहानी- पछतावा 3 (Story Series- Pachhtava 3)
व्योमेष के प्रति बढ़ते आकर्षण के कारण वह अंदर से भयभीत थी. जिस रिश्ते में एक बार बंधकर उसने सब कुछ लुटा दिया था, वही बंधन नए रूप में उसके सामने आ रहा था. बुद्धि के इनकार करने के बाद भी मन उसकी ओर खिंचता चला जा रहा था.
... "मेरे बारे में सोचना छोड दो व्योमेष. मैं यक़ीन से कह सकती हूं कि तुमने जो भी सोचा होगा उसका हक़ीक़त से कोई लेना-देना नहीं होगा.”
"मै तुम्हारे अतीत को कुरेदना नहीं चाहता. बस, इतनी सी गुज़ारिश है कि पुरानी यादों से बाहर निकलकर नई ज़िंदगी को स्वीकार करो. ज़िंदगी किसी घटना से ख़त्म नहीं हो जाती. वह तो चलती रहती है. उसके रास्ते में रोडे आने स्वाभाविक हैं.” व्योमेष की कही बातें श्लोका पर अपना प्रभाव छोड़ रही थी. व्योमेष ने बातों ही बातों मे श्लोका को मिलने के लिए मना लिया था. दो-चार मुलाक़ातों के बाद श्लोका उसके साथ सहज हो गई थी.
एक दिन व्योमेष उसे मां से मिलाने घर ले आया.
"मां, ये श्लोका है. यहीं एक स्कूल में टीचर है.” श्लोका ने आगे बढ़कर मां के पैर छू लिए थे. मां ने उसके ऊपर आशिर्वाद की झड़ी लगा दी.
"जुग-जुग जियो बेटी. सदा ख़ुश रहो. भगवान तुम्हारी झोली ख़ुशियों से भर दे.” मां का प्यार देखकर वह गदगद हो गई थी. वे दोनों घंटों बातें करते रहे, पर मां ने उसके अतीत के बारे में कुछ नहीं पूछा. व्योमेष के परिवार का अपनापन देखकर श्लोका बहुत प्रभावित हुई थी. काफ़ी देर तक बातें करने के बाद व्योमेष श्लोका को उसके हॅास्टल छोड़ गए थे. जाते समय व्योमेष ने फिर से मिलने का वादा भी ले लिया.
व्योमेष और श्लोका के बीच नज़दीकियां बढ़ रही थी. श्लोका उसके परिवार को ख़ुश करने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती थी. उधर व्योमेष श्लोका की दबी भावनाओं को उबारने की भरपूर कोशिश कर रहा था. इस बार व्योमेष के घर जाने के लिए श्लोका ने उसकी मां और बहन की पंसद के कपड़े ख़रीद लिए थे. पिछली मुलाक़ात में वह खाली हाथ ही वहां चली गई थी.
उसने मांजी को जब गिफ्ट थमाए, तो वे ख़ुश होकर बोलीं, "तुम्हारी पंसद बहुत अच्छी है बेटी, पर ये सब करने की क्या ज़रूरत थी?”
“आप मेरी मां समान है. सोचा आपके लिए कुछ ले चलूं.” व्योमेष की मां ने उसका माथा चूम लिया. व्योमेष के परिवार का प्यार उसे बड़ी तेज़ी से अपनी ओर खींच रहा था. काफ़ी देर तक बात करके वह वापस लौटी. रास्तेभर वह चुप रही. व्योमेष ने पूछा, "आज तुम बहुत उदास लग रही हो.”
"रिश्तों मे बंधने से मुझे दहशत होने लगती है. पता नहीं वक़्त कब मेरी ख़ुशी छीन ले.”
“देख लेना ऐसा कुछ नहीं होगा श्लोका.”
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व्योमेष के प्रति बढ़ते आकर्षण के कारण वह अंदर से भयभीत थी. जिस रिश्ते में एक बार बंधकर उसने सब कुछ लुटा दिया था, वही बंधन नए रूप में उसके सामने आ रहा था. बुद्धि के इनकार करने के बाद भी मन उसकी ओर खिंचता चला जा रहा था. नियति को स्वीकार कर कुछ साल पूर्व उसने इतना बड़ा धक्का सह लिया था. मात्र तैंतीस साल की उम्र में नारी सुलभ भावनाओं को दबा देने में वह अब अपने को असफल पा रही थी. मन की वर्तमान और भूतकाल की रस्सा-कस्सी में श्लोका फ़िलहाल कोई निर्णय लेने के स्थिति में न थी...
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...
डॉ. के. रानी
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