ख़ुशी की तरंग मेरे मन को, समूचे जिस्म को रोमांचित कर रही थी. मेरे जीवन की फिल्म का परिदृश्य यकायक ही बदल गया था. तभी मुझे पायल का ख़्याल आया. यह सब क्या चक्कर है? अभी पूछती हूं उससे. मैं उसके कमरे की ओर बढ़ी. दरवाज़े तक पहुंची ही थी कि कानों में पायल के स्वर टकराए.
अगले दिन संडे था. दोपहर में पायल को पूरे मनोयोग से तैयार होता देख मैंने पूछा, “कहीं जा रही हो क्या?”
“ओह, मैं तुम्हें बताना ही भूल गई काव्या. अभिनव पूना आए हुए हैं और आज मैं उनसे मिलने जा रही हूं.”
मेरे पांव तले ज़मीन खिसक गई. अभिनव पूना आए हुए हैं, किंतु मुझे बताना, मुझसे मिलना उन्हें ज़रूरी नहीं लगा और इस लड़की से... क्षोभ और पीड़ा से मेरी आंखें डबडबा गईं. तभी अंतरात्मा की आवाज़ एक बार पुन: मुझे कठघरे में खींच ले आई. चार माह होने को आए अभिनव से अलग हुए. क्या इस बीच मैंने कभी उनसे उनकी ख़ैरख़बर ली? फिर उनसे ऐसी अपेक्षा क्यों? जबकि भूल भी मेरी ही थी. यह सारा दुख और पछतावा इसलिए है न, क्योंकि वे अपने लिए एक नए क्षितिज की तलाश में निकल गए हैं.
नहीं-नहीं यह इल्ज़ाम सरासर ग़लत है. दुख और पछतावा तो उसी दिन से है, जब सारी बातें जानकर मम्मी ने कहा था, “शादी के पश्चात् बहुत-सी लड़कियों को ससुराल में स्नेह नहीं मिलता, किंतु वो अपना घर छोड़कर नहीं आ जातीं, बल्कि अपने मधुर व्यवहार और सेवाभावना से ससुराल में अपनी जगह बनाती हैं और तुम, जिसे अभिनव जैसा पति मिला, इतने स्नेहिल सास-ससुर मिले, फिर भी निभा नहीं पाईं. तुम्हारी जैसी सोच की सभी लड़कियां हो जाएं, तो गली-गली में वृद्धाश्रम खुल जाएं.” मम्मी की बातें मेरी आत्मा को झकझोर गई थीं और मैं पछतावे की अग्नि में जलने लगी थी. कुछ ही दिनों में मम्मी-पापा की उम्र मानो 10 वर्ष बढ़ गई थी. परिचितों और रिश्तेदारों के चुभते प्रश्नों ने दिल्ली में रहना कठिन कर दिया और मैंने पूना की कंपनी में जॉब जॉइन कर लिया. दिन तो ऑफिस में बीत जाता, किंतु तन्हा रातें आंसुओं के सैलाब में डूबी रहतीं. दिल चाहता, अभिनव से क्षमा मांगकर वापस लौट जाऊं अपने घर, किंतु क्या वह अब क्षमा करेंगे, इसी कश्मकश में दिन गुज़रते जा रहे थे.
विचारों के भंवर में डूबते-उतराते तीन घंटे कब गुज़र गए, पता ही नहीं चला. पायल लौट आई थी. बेहद प्रसन्न नज़र आ रही थी. क्या मुझे पूछना चाहिए, कैसी रही अभिनव के साथ मीटिंग. शायद नहीं. लिफ़ाफ़ा देखकर ही ख़त का मजमून समझ में आ रहा था. अपनी आंखों के सम्मुख अपनी ख़ुशियां दूसरे की झोली में जाते देखना ही क्या मेरी सज़ा है? अपनी विवशता पर मेरी रुलाई फूट पड़ी. भावनाओं की एक प्रचंड लहर ने मुझे अपने कमरे में पहुंचा दिया और बिना सोचे-विचारे मैं अभिनव को फोन मिला बैठी. दूसरी ओर से अभिनव की आवाज़ आते ही मैं बिफर पड़ी, “शर्म नहीं आती, पूना आए बैठे हो और मुझसे मिलना भी आवश्यक नहीं समझा. अभी हमारा डिवोर्स हुआ भी नहीं और लड़कियां देखना शुरू कर दिया. क्या इसी प्यार का दम भरते थे तुम? प्यार वह नहीं होता कि पार्टनर से ज़रा-सी भूल हुई और तुरंत डिवोर्स की एप्लीकेशन डाल दी. प्यार वह होता है कि एक से ग़लती हो जाए, तो दूसरा उसे संभाल ले.” भावावेश में बोलते-बोलते मैं यकायक रुक गई. दूसरी ओर से अभिनव ने एक गहरी सांस ली और बोले, “तुमसे किसने कह दिया कि मैं पूना में हूं. अभी वीडियो कॉल करके चेक कर लो. मैं न्यूयॉर्क में ही हूं और यह क्या अनाप-शनाप बोल रही हो कि मैं लड़कियां देख रहा हूं. कहीं सपना तो नहीं देख लिया.”
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“किंतु पायल तो कह रही थी...”
“अरे कौन पायल? मैं किसी पायल को नहीं जानता और हां सुनो काव्या, प्यार क्या होता है, यह मुझे मत समझाओ. मैंने तुम्हें लाख संभालना चाहा, किंतु तुम तो... ख़ैर, छोड़ो.”
मेरे मुंह से एक सिसकी निकली. रुंधे कंठ से मैं बोली, “अभि, मैं अपनी भूल सुधारना चाहती हूं. अपना प्यार वापस पाना चाहती हूं.”
“कैसे मान लूं कि तुम सच कह रही हो.”
“मेरा यक़ीन करो अभि, मुझे अपनी भूल का एहसास हो गया है. मुझे माफ़ कर दो. मैंने तुम्हारे प्यार की, मम्मी-पापा के स्नेह की कद्र नहीं की.”
“मैं टिकट का इंतज़ाम करता हूं.”
ख़ुशी में अभिनव की आवाज़ कांप रही थी. मैंने फोन रखा. कुछ क्षण मैं चुपचाप खड़ी रही. दिल की धड़कन बढ़ गई थी. सब कुछ नया-नया-सा प्रतीत हो रहा था. कहीं यह सपना तो नहीं? क्या सचमुच अभिनव ने मुझे माफ़ कर दिया? ख़ुशी की तरंग मेरे मन को, समूचे जिस्म को रोमांचित कर रही थी.
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मेरे जीवन की फिल्म का परिदृश्य यकायक ही बदल गया था. तभी मुझे पायल का ख़्याल आया. यह सब क्या चक्कर है? अभी पूछती हूं उससे. मैं उसके कमरे की ओर बढ़ी. दरवाज़े तक पहुंची ही थी कि कानों में पायल के स्वर टकराए. वह फोन पर कह रही थी, “तुम्हारा प्लान कामयाब रहा प्रीशा. हमारी काव्या को अपनी भूल समझ आ गई है और वह जीजू के पास जा रही है.” मेरी आंखों में ख़ुशी के आंसू आ गए. मेरी सोई हुई भावनाओं को जगाने के लिए, यह सब प्रीशा का प्लान था, ताकि मैं संकोच त्यागकर अभिनव के सम्मुख अपनी भूल स्वीकार कर लूं और पायल इस प्लान की कर्ताधर्ता थी. अब मुझे समझ आया, क्यों प्रीशा बार-बार कहती थी कि अपनी सहेली पायल से बात करवा दो. अपनी दोनों सहेलियों के अपनत्व से अभिभूत मैं आगे बढ़ी और पायल के गले लग गई.
रेनू मंडल