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कहानी- पतन 3 (Story Series- Patan 3)

रात है. सन्नाटा है. पीड़ा, भय, लज्जा, ग्लानि है.  लेकिन मनोरथ की आंखों में नींद नहीं है. पिटता हुआ कप्तान बेबस, बल्कि घिनौना लग रहा था. प्यारेलाल निकम्मे की तरह भाग आया. इन जैसा बनने की बेवकूफ़ी में मैं क्या से क्या बन गया? कौन मानेगा मैं भले घर का ख़ूब पढ़नेवाला भला लड़का था? परीक्षा नज़दीक है, मेरा कोई पेपर तैयार नहीं है. अम्मा ने अलग समझाया, “आलीशान रेस्टोरेंट बनेगा मनोरथ. काका मिष्ठान में देखी मिठाइयां बनती रहेंगी. रेस्टोरेंट में पिज़्ज़ा, चाउमीन... क्या-क्या तो चला है आजकल.” मनोरथ ऊब गया, “मैं हलवाई नहीं बनूंगा.” बुलाकी हंसी, “छोटे थे तब कहते थे, बड़ा होकर दुकान में बैठूंगा. ख़ूब इमरती खाऊंगा.” “नो वे जी. इस थियेटरलेस स्मॉल टाउन में कुछ नहीं रखा. लोग एक मूवी देखने को तरस जाते हैं. कस्बे से निकलो और देखो लड़के कितना एंबीशियस हो रहे हैं. ओवरसीज़ जॉब में फ्यूचर देख रहे हैं.” अम्मा ओवरसीज़ जॉब का अर्थ नहीं समझीं, “तुम एक ही बेटे हो.” “इकलौता होने की सज़ा मिलेगी? अम्मा, नर्वस मत करो. मेरा दोस्त चंद्रमणि सऊदी अरब चला गया. उसके पैरेंट्स ने तो नहीं रोका. लाखों कमा रहा है.” “बेकार बातें प्यारे और कप्तान ने सिखाईं?” “जीना सिखाया है, वरना पप्पू बना रहता.” मनोरथ ने 20 दिन बोरियत में बिताए. प्यारेलाल और कप्तान सिंह के साथ फ्लैट में कदम रखा, तो लगा दिनों बाद प्राण बहुरे हैं. इस बीच तीन मूवीज़ रिलीज़ हो गई थीं. रिलीज़िंग डेट पर मूवी न देखें, तो तीनों को अपने शरीर से कस्बाई बू आने लगती है. मनोरथ ने अपने गृह प्रवास का सार कहा, “बाबूजी हुक्का-पानी बंद करने की धमकी दे रहे हैं.” कप्तान सिंह ने उसे दया से देखा, “मेरा भी यही हाल है. मैंने कहा पापा पेट्रोल से लेकर प्याज़ तक हर चीज़ के दाम बढ़ गए हैं. हज़ार-दो हज़ार बग्स अधिक दिया करो, तो कहते हैं मूवी देखने के लिए मैं एक पाई नहीं दूंगा. पढ़ने गए हो, नायक बनने नहीं.” प्यारेलाल ने मनोबल न गिरने दिया, “बाप लोग हमसे बड़े चालबाज़ हैं. न जाने कैसे जान लेते हैं कि हम बहुत मूवी देखते हैं.” मनोरथ बोला, “मूवी में हम बहुत पैसा बर्बाद करते हैं. टिफिन न आए, तो फांके करने पड़ेंगे.” प्यारेलाल ने ब्लास्ट किया, “फ्री में देखेंगे.” “कैसे?” दोनों एक साथ बोले. “ब्लैक में टिकट ख़रीदते हुए मैंने ब्लैक करना सीख लिया है. टिकट ब्लैक करेंगे. जो एक्स्ट्रा मनी मिलेगी, उससे मूवी देखेंगे. एकदम फ्री.” सबसे पहले प्यारेलाल ने मैदान मारा था, “आठ टिकट ख़रीदे थे. तीन अपने, पांच एक्स्ट्रा. वो स़फेद शर्टवाला आदमी, जिसके साथ दो औरतें और दो बच्चे खड़े हैं उसे बेच दिए. तीन सौ कमा लिए.” “चालू है बे.” कप्तान पराजित-सा दिखा. “जीनियस.” यह भी पढ़ेबढ़ते बच्चे बिगड़ते रिश्ते (How Parent-Child Relations Have Changed) “डर नहीं लगा?” मनोरथ सिरपिटाया-सा. “लोगों के पास पैसा है. फेंकते हैं. मैंने ज़बर्दस्ती टिकट नहीं बेचे.” प्यारेलाल की पुलक दोनों की प्रेरणा. पहली बार टिकट ब्लैक करते हुए मनोरथ साहस खो रहा था. टिकट नहीं मिलने से चार उदास लड़कियांएक ओर खड़ी थीं. मनोरथ समीप जाकर फुसफुसाया, “गर्ल्स टिकिट... बालकनी.” “चार चाहिए. एक्स्ट्रा कितना?” “टू फिफ्टी.” लड़कियां आपस में मशगूल हुईं... रोज़-रोज़ मम्मी परमिशन नहीं देंगी... आने-जाने में ऑटो के ढाई-तीन सौ लगते हैं. आज लगेंगे, अगले किसी दिन आते हैं, तो फिर लगेंगे... आज कोचिंग मिस कर दी, रोज़ नहीं कर सकते. मूवी देखते हैं. ठीक तो है. “ओके.” अतिरिक्त दो सौ पचास रुपए. मनोरथ की मांसपेशियां मद से फूल गईं. फिर तो वह, प्यारेलाल और कप्तान सिंह की तरह पेशेवर दबी आवाज़ में सर टिकट... एक्स्ट्रा... मैम... टिकट... कहते हुए ब्लैक करने लगा. नहीं सोचा अशुभ इसी धरा पर घटता है और लपेटे में मनुष्य ही आते हैं. ब्लैक में टिकट ख़रीदनेवाला व्यक्ति रसूखवाला निकला. प्रति टिकट 50 रुपया अतिरिक्त दे रहा था, कप्तान 70 पर अड़ा था. रसूखवालेे ने सहसा कप्तान सिंह की कॉलर पकड़ ली. उसके साथ खड़ी स्त्री डर गई “कॉलर छोड़ो, क्या करते हो?” रसूखवाला वहशी हो रहा था, “लोग लाइन में लगकर समय ख़राब करते हैं और पता चलता है टिकट ख़त्म... लड़कों ने धंधा बना लिया है... एक्स्ट्रा टिकट ख़रीद लेते हैं, फिर ब्लैक करते हैं.” कप्तान कुछ कहने लगा कि रसूखवाले ने उसे थप्पड़ मार दिया. आसपास मंडरा रहा प्यारेलाल भाग निकला. पिटते हुए कप्तान पर मनोरथ को दया आ गई. बीच-बचाव करने आ गया, “सर, सॉरी... कप्तान चल निकल.” “पूरा गैंग है.” रसूखवाले ने मनोरथ के गाल पर झन्नाता हुआ तमाचा मारा. मनोरथ की पतलून गीली. मजमा लग गया. थियेटर के सुरक्षा गार्ड ने रसूखवाले को शांत किया, “माहौल ख़राब होगा सर. थियेटर की बदनामी होगी.” “कंट्रोल करना चाहिए न. ब्लैक हो रहा है, बदनामी होगी ही. पुलिस को कॉल करो.” “मैं इन्हें देखता हूं सर.” सुरक्षा गार्ड ने दोनों को नियंत्रण में ले लिया. शो शुरू होनेवाला था. लोग थियेटर के अंदर चले गए. परिसर प्राय: खाली हो गया. सुरक्षा गार्ड  के हाथ-पैर जोड़, बार-बार माफ़ी मांगकर कप्तान और मनोरथ किसी तरह छूट सके. प्यारेलाल कहीं नहीं दिखा. सेल फोन पर कॉल किया. उसने रिसीव नहीं किया. यह भी पढ़ेपैरेंट्स के लिए गाइड (Parenting Guide) रात है. सन्नाटा है. पीड़ा, भय, लज्जा, ग्लानि है.  लेकिन मनोरथ की आंखों में नींद नहीं है. पिटता हुआ कप्तान बेबस, बल्कि घिनौना लग रहा था. प्यारेलाल निकम्मे की तरह भाग आया. इन जैसा बनने की बेवकूफ़ी में मैं क्या से क्या बन गया? कौन मानेगा मैं भले घर का ख़ूब पढ़नेवाला भला लड़का था? परीक्षा नज़दीक है, मेरा कोई पेपर तैयार नहीं है. ओह! ख़ुद के प्रति ईमानदार बन जाओ, तो ग़लत काम करते हुए झिझक होगी. लगेगा ख़ुद को धोखा दे रहे हो. ‘बेटा, बीता हुआ समय नहीं लौटता और हर काम का एक निश्‍चित समय होता है...’ बाबूजी के शब्द बेतरह याद आ रहे हैं. ओह! मनोरथ ने छटपटाकर पहलू बदला... फिर बदला... फिर... बदलता रहा... जैसे ख़ुद से दूर भाग जाना चाहता हो.     सुषमा मुनीन्द्र

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