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कहानी- पतंग 4 (Story Series- Patang 4)

“… मैं तुझे रोते हुए नहीं देख सकता. दिल की दुनिया में कुछ भी सही-ग़लत, नैतिक-अनैतिक नहीं होता. मेरी ओर से तू पतंग की तरह उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने को स्वतंत्र है. मुझे तुझसे कभी कोई शिकायत नहीं होगी. बस, तू ख़ुश रह.” निवेदन की उंगलियां बहुत हौले से उसके आंसू पोंछने के लिए उसके गालों पर सरक रही थीं और वो ऐसे अभिभूत हुई जा रही थी जैसे उनकी पहली रात का प्रथम स्पर्श हो. वो इन लम्हों को और जीना चाहती थी...जीते रहना चहती थी... हिचकियों के बीच बोली, “मुझे नहीं चाहिए तेरे ये बचकाने गिफ्ट.” मांझा निकाले बिना वो आकाश छू नहीं सकती. वो परेशान हो जाती है, तभी मांझा उसे मुक्त कर देता है. पतंग ऊंचे जाती है और ऊंचे. तब उसे पता चलता है कि आकाश छुआ नहीं जा सकता. वो एक दृष्टि भ्रम है. अचानक उसे एहसास होता है कि जिसे वो सबसे बड़ा बंधन समझ रही थी, वो मांझा ही तो उसका सबसे बड़ा सहारा था. उस पर सवार होकर ही तो वो तनावमुक्त, सुरक्षित महसूस कर उड़ान भर सकती थी. वो सिहर उठती है. मांझा पकड़ने की कोशिश करती है. तब आकाश की ऊंचाइयों से मांझा थामे ज़मीन पर खड़ा बौना-सा दिखनेवाला इंसान अचानक आकाश जितना बड़ा हो जाता है. हाथ बढ़ाकर मांझा दोबारा उसके गले में बांध देता है और पतंग निश्‍चिंत हो जाती है. निपुणा इतनी रम गई इस बिंब में कि बुत-सी खड़ी रही. उसकी आंखों से आंसू झर-झर बह रहे थे. सहसा उसे ध्यान आया. निवेदन एक अरसे से उसके क़रीब नहीं आया था. शायद उसका मन पढ़ने के बाद से. किसी तरह अस्फुट शब्दों में ये भाव ढले, “तुम किस मिट्टी के बने हो निवेदन? तुम्हारी अपनी ख़्वाहिशें? उनका कोई मोल नहीं?” अब निवेदन जैसे डगमगा गया. निपुणा से थोड़ी दूरी बनाकर खड़ा था, लेकिन अब क़रीब आ गया. उसका चेहरा बड़ी कोमलता से अपने हाथों में पकड़कर उसकी आंखों में आंखें डालकर बोला, “मोल क्यों नहीं? बचपन से आज तक दो ही तो ख़्वाहिशें रही हैं मेरी- एक तुम्हें कुछ ऐसा दे पाने की, जिससे तुम ख़ुश हो जाओ और दूसरी तुम्हारी आंखों में अपने लिए तड़प देखने की. आज तुम्हें मुक्ति देकर अपनी ही तो पहली ख़्वाहिश पूरी कर रहा हूं और क्या पता मुझसे दूर और आकाश से नज़दीक होने पर यही टीस तुम्हारे मन में मेरे लिए जग जाए और मेरी दूसरी ख़्वाहिश भी पूरी हो जाए.” यह भी पढ़ें: दिशा वाकाणी, सरगुन मेहता, अनूप सोनी, रवि दुबे की तरह आप भी साकार करें अपने सपने (Disha Vakani, Sargun Mehta, Ravi Dubey, Anup Soni: TV Celebrities Share Their Success Mantras) इतना कहकर उसने निपुणा के माथे पर बहुत हौले से एक चुंबन अंकित कर दिया, जो मन से होता हुआ सीधा दिल के उस कुंवारे कोने में पहुंचा, जहां आकाश रहने लगा था और वहां खलबली-सी मच गई. आज निवेदन के स्पर्श में ऐसा रोमांच था, उसके चुंबन से ऐसे पुलकित हुई थी वो, जैसे पहली बार छू रहा हो. उसका प्यार तो हमेशा से ऐसा ही रहा होगा, पर इससे पहले वो इसे कभी महसूस नहीं कर पाई, क्योंकि अपने बड़प्पन का, ज्ञान का, अभिमान का आवरण होता था शायद. एक पल में सारे आवरण तार-तार हो गए. अभिमान का काला चश्मा उतरा तो प्यार का सुर्ख़ रंग नज़र आने लगा, जो वो अब तक देखकर भी अनदेखा करती आई थी, जिसे वो लंपट और अपरिपक्व समझती आई थी, वो इतनी परिपक्वता से सोच सकता था, इतनी समझदारी और धैर्य से अपने जीवन की इस विकराल समस्या का सामना कर सकता था. और वो? वो उसे अपने लायक नहीं समझती थी. क्या नहीं था निवेदन में? थोड़ा-सा किताबी ज्ञान या वो जीवन दर्शन और अभिरुचि जिसे वो एलीट का नाम देकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझती आई थी? किस समझदारी का घमंड था उसे? कौन-सी परिपक्वता दिखाई थी उसने विवेक से चिढ़कर शादी के लिए हां करके? मनपसंद जीवनसाथी मिलने तक इंतज़ार करने से किसने रोका था उसे? समझदारी से तो निवेदन ने काम लिया था उसे व़क्त देकर. बचपन से उसकी हर व्यावहारिक समस्या का समाधान निवेदन ने किया. शादी के बाद भी उसकी उड़ान स़िर्फ इसलिए पूरी हो सकी, क्योंकि निवेदन हर पल उसके साथ था. कितनी गहरी जगह बना चुका था निवेदन दिल में? क्या इस प्यार को भुला पाएगी वो कभी? जिसे वो अयोग्य समझती थी उसने हमेशा दिया ही था, फिर भी और देने की ही ख़्वाहिश थी उसकी. और ख़ुद को बड़ी योग्य समझनेवाली वो फिर भी तृप्त नहीं थी. निवेदन उसे किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी खड़ी कुछ देर तक देखता रहा, फिर धीरे से बोला, “ड्राइवर का फोन है. कैब आ गई है. अब आंसू पोछ ले. मैं तुझे रोते हुए नहीं देख सकता. दिल की दुनिया में कुछ भी सही-ग़लत, नैतिक-अनैतिक नहीं होता. मेरी ओर से तू पतंग की तरह उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने को स्वतंत्र है. मुझे तुझसे कभी कोई शिकायत नहीं होगी. बस, तू ख़ुश रह.” निवेदन की उंगलियां बहुत हौले से उसके आंसू पोंछने के लिए उसके गालों पर सरक रही थीं और वो ऐसे अभिभूत हुई जा रही थी जैसे उनकी पहली रात का प्रथम स्पर्श हो. वो इन लम्हों को और जीना चाहती थी...जीते रहना चहती थी... हिचकियों के बीच बोली, “मुझे नहीं चाहिए तेरे ये बचकाने गिफ्ट. शादी क्या गुड़ियों का खेल है, बुद्धू कद्दू.” इतना कहते-कहते सारा गुमान पलकों के रास्ते बह चला और उसने अपना सिर निवेदन के सीने पर रख दिया, तो निवेदन की बांहों का घेरा कसने लगा. ड्राइवर के, बॉस के, आकाश के फोन बजते रहे, पर एक-दूसरे की कसमसाती आगोश और चुंबनों की बारिश में खोए आलिंगनबद्ध युगल को आज क्या सुनाई देनेवाला था. bhavana prakash भावना प्रकाश

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