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कहानी- प्रभाती 3 (Story Series- Prabhati 3)

तेरी यादों की ख़ुशबू से भीगा मेरा तकिया आज भी तेरी सांसों की राह तकता है तू जो सपने टांग आई थी मेरे कमरे की खूंटी पर आज भी हर आहट पर हिलता है. वो तू ही थी या कोई और थी आज भी क्या वह तुझमें ज़िंदा है... आ... आ... मैं मंत्रमुग्ध होकर अपनी रचना को उसके मुख से सुन रही थी. स्वयं के लिखे शब्द जैसे अपरिचित बन उससे मित्रता निभा रहे थे. उसके सुरों ने जैसे मेरे शब्दों को रूह प्रदान कर दी थी. मुझे यूं निहारता देखकर वह रुक गया था. “क्या बात है, संगीत अच्छा नहीं लगा क्या?” “तुमने मुझे आश्‍चर्यचकित कर दिया. ऐसा लग रहा था, जैसे- मेरी देह को रूह मिल गई हो.” कहना नहीं होगा कि कमरे की सज्जा मुझे पसंद आई थी. मेरे अंदरूनी उत्साह को मैंने तनिक भी छिपाया नहीं था. “शशि, तुम्हारा यह कमरा, मकान तो नहीं लगता.” “फिर?” उसने मुस्कुराते हुए पूछा था. “घर लगता है, यहां की नीरवता में सुंदरता है.” शशि की दोनों आंखों में चमक थी. मेरे लिए इस चमक का अर्थ अंजाना नहीं था. मैंने इसके पहले भी यह चमक देखी थी. कई वर्षों पहले अपनी आंखों में. उन आंखों की चमक का सामना कर पाने में मैं असमर्थ हो गई थी, इसलिए बातों का रुख दूसरी तरफ़ करने की चेष्टा की थी. “चलो चाय पिलाओ और गाना सुनाओ.” “आपकी आज्ञा को ठुकरा नहीं सकता, परंतु यदि आप साथ दें, तो आनंद आ जाएगा.” “तुम शुरू तो करो...” शशि ने इंडक्शन कुकर पर केतली चढ़ाई और भरी आवाज़ में गाना शुरू किया- तेरी यादों की ख़ुशबू से भीगा मेरा तकिया आज भी तेरी सांसों की राह तकता है तू जो सपने टांग आई थी मेरे कमरे की खूंटी पर आज भी हर आहट पर हिलता है. वो तू ही थी या कोई और थी आज भी क्या वह तुझमें ज़िंदा है... आ... आ... मैं मंत्रमुग्ध होकर अपनी रचना को उसके मुख से सुन रही थी. स्वयं के लिखे शब्द जैसे अपरिचित बन उससे मित्रता निभा रहे थे. उसके सुरों ने जैसे मेरे शब्दों को रूह प्रदान कर दी थी. मुझे यूं निहारता देखकर वह रुक गया था. यह भी पढ़ेये 7 राशियां होती हैं मोस्ट रोमांटिक (7 Most Romantic Zodiac Signs) “क्या बात है, संगीत अच्छा नहीं लगा क्या?” “तुमने मुझे आश्‍चर्यचकित कर दिया. ऐसा लग रहा था, जैसे- मेरी देह को रूह मिल गई हो.” बड़ी नम्रता से उसने गर्दन झुका ली थी और फिर चाय का कप मेरी तरफ़ बढ़ाता हुआ बोला था. “जब लोग आपकी इस रचना को पढ़ेंगे, तो प्रथम दृष्टि में उन्हें यह विरह में डूबी हुई रोमानी कविता प्रतीत होगी, परंतु वास्तविकता भिन्न है.” उसकी आवाज़ में पता नहीं ऐसा क्या था कि मैं मुग्ध होकर उसे अपलक देखती रह गई थी. “बोलो शशि, अब मौन मत रहो.” मैंने उसका नाम लिया और वह मुझे एकटक देखता रह गया था. “आरोही, यह एक रोमानी कविता है, जो स्वयं से स्वयं को प्रेम करने को कह रही है.” यह अलौकिक प्रेम था. मेरी इस कविता को न कोई समझ पाया था और न कभी मैंने समझाने का प्रयत्न ही किया था. यथार्थ में प्रियतम भी मैं थी और प्रेयसी भी मैं. प्रियतम मेरा अतीत था और प्रेयसी मेरा वर्तमान. अतीत मुझे मेरे वास्तविक रूप, मेरे सपनों और मेरी भावनाओं से पुनः समागम कराना चाहता है और मेरा वर्तमान उन्हें मस्तिष्क के किसी अंधे कोने में बंद कर चुका था. आप कभी दर्पण के सम्मुख मैं के साथ खड़े हुए हैं. कभी मैं को निहारा है. कभी अपनी आंखों से मैं को देखा है. कभी मैं के साथ समय व्यतीत किया है. मेरे साथ उस पल यही सब हो रहा था. मैं उस क्षण को खोना नहीं चाहती थी, हाथ बढ़ाकर थाम लेना चाहती थी. मैंने वही किया भी था. उसके होठों से अपना नाम सुनना कानों को मधुरता प्रदान कर रहा था. कब चाय का कप नीचे गिरकर बिखर गया, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तो स्वयं को समेटने में व्यस्त थी. आगे बढ़कर मैंने उसके गर्म कपोलों को अपनी ठंडी हथेलियों में भर लिया था. वह मेरा प्रथम पुरुष स्पर्श अथवा प्रथम परपुरुष स्पर्श नहीं था. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मेरे अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों से भी संबंध थे, किंतु पुरुष सहकर्मियों के साथ कभी-कभी तो हाथ मिलाने अथवा किसी भी वस्तु के आदान-प्रदान के दौरान आंशिक रूप से स्पर्श तो हो ही जाता था, परंतु आज के इस स्पर्श ने जैसे मुझे वास्तव में छू लिया था. कभी खिलते हुए फूल की पंखुड़ियों को देखा है. जब वे खिल रहे होते हैं, तो अपनी सभी पंखुड़ियों को फैला देते हैं, जैसे सूर्य की किरणों को अपने अंदर समेट लेना चाहते हों. यह भी पढ़ेआख़िर क्यों बनते हैं अमर्यादित रिश्ते? (Why Do We Have Immoral Relationships In Our Society?) मैं भी वही चाहती थी. उसके सीने से लगकर आंखें बंद किए हुए मैंने उसकी गर्माहट का आनंद लिया था. जब उसकी उंगलियां मेरे केशों का स्पर्श करतीं, तो मैं सिहर उठती थी. कमरे में और कोई नहीं. स़िर्फ हम दोनों थे. उसने मुझे और सघनता के साथ जकड़ रखा था. मेरी काया की अभियाचना को मैं आज स्पष्ट सुन पा रही थी. अभी बहुत कुछ कहना शेष था, परंतु इसी बीच वे आ गए थे. ‘ठक-ठक-ठक-ठक...’ Pallavi Pundir    पल्लवी पुंडीर

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