पूरा मकान अंधकार में डूबा हुआ था. केवल मेरे कमरे में टेबल लैम्प जल रहा था, जिसकी रोशनी में विभोर के प्यार भरे पत्र को मैं कई बार पढ़ चुकी थी. लिखा था- मेरी जीवनसंगिनी सोनिया, कल रात ठीक तीन बजे प्लेटफॉर्म नंबर चार पर मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा. घबराना मत. मैं तुम्हारे साथ हूं और सदा रहूंगा...और भी बहुत कुछ लिखा था, जो मुझे रोमांचित करने के लिए काफ़ी था. कल दोपहर की ही तो बात है, जब हम दोनों कॉफी हाउस में बैठे उस संसार को सजाने की बात कर रहे थे, जो हमारे लिए एक सुंदर स्वप्न की अनुभूति जैसा था. सारी योजना बन चुकी थी. केवल अब उसे मूर्तरूप देना ही शेष था. विभोर की ही सलाह पर मैंने मेरे दहेज के लिए संभालकर रखे गए रुपयों और जेवरों को सूटकेस में रख लिया था.
दिसंबर माह की तीस तारीख़ की बेहद ठंडी रात. डेढ़ बज रहे थे. समय काटना बहुत ही कठिन लग रहा था. एक-एक पल, एक-एक सदी की तरह कट रहा था. मैं सोच रही थी कि आज मैं ज़िंदगी के उस चौराहे पर खड़ी हूं, जहां से मुझे अपने लिए नई राह चुननी है. एक तरफ़ प्यार भरे जीवन का अनंत आकाश था, तो दूसरी तरफ़ मां का ममता से भरा हृदय. मुझे ही यह तय करना था कि अपना सारा जीवन विभोर को सौंप दूं या मां की इच्छाओं का सम्मान कर उनके बताए युवक से शादी कर लूं.
यूं तो अक्सर बेटियां मां-बाप के कहने से अपना जीवन एक अनजान युवक को सौंप देती हैं. लेकिन कुछ ही साहसी युवतियां होती हैं, जो स्वयं अपना जीवनसाथी चुनती हैं. मैं विचारों के संसार में विचर रही थी.
मेरी हथेलियां पसीने से भीगी हुई थीं. दिल धड़क रहा था. घबराहट-सी हो रही थी. यह ़फैसले की घड़ी थी. यदि आज विभोर के साथ न जा सकी, तो फिर कभी भी नहीं जा सकूंगी. इस घड़ी का महीनों से मुझे और विभोर को इंतज़ार था. आज तो जाना ही होगा. एक तरफ़ मां का मोह, तो दूसरी ओर विभोर का प्यार भरे सुखद जीवन का आश्वासन. विभोर की ज़िद पर ही मैं घर छोड़कर जा रही हूं. ऐसे फैसले में किसी और की राय भी तो नहीं ली जा सकती थी. मुझे मालूम है कि मेरी भोली मां शायद ही यह सदमा सहन कर पाए. लेकिन मैं क्या करूं? मैं अपने दिल के हाथों मजबूर थी.
पूरा मकान अंधकार में डूबा हुआ था. केवल मेरे कमरे में टेबल लैम्प जल रहा था, जिसकी रोशनी में विभोर के प्यार भरे पत्र को मैं कई बार पढ़ चुकी थी. लिखा था- मेरी जीवनसंगिनी सोनिया, कल रात ठीक तीन बजे प्लेटफॉर्म नंबर चार पर मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा. घबराना मत. मैं तुम्हारे साथ हूं और सदा रहूंगा...
और भी बहुत कुछ लिखा था, जो मुझे रोमांचित करने के लिए काफ़ी था.
कल दोपहर की ही तो बात है, जब हम दोनों कॉफी हाउस में बैठे उस संसार को सजाने की बात कर रहे थे, जो हमारे लिए एक सुंदर स्वप्न की अनुभूति जैसा था.
सारी योजना बन चुकी थी. केवल अब उसे मूर्तरूप देना ही शेष था. विभोर की ही सलाह पर मैंने मेरे दहेज के लिए संभालकर रखे गए रुपयों और जेवरों को सूटकेस में रख लिया था.
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विभोर के कहे हुए शब्द कानों में गूंज रहे थे, “ताक़तवर होने के लिए अपनी शक्ति पर भरोसा रखना ज़रूरी है. उन व्यक्तियों से कमज़ोर और कोई नहीं होता, जिन्हें अपने सामर्थ्य पर भरोसा नहीं होता.”
मैंने पूछा था, “विभोर, कहां जाएंगे?”
बड़े आत्मविश्वास से उसने कहा था, “तुम मुझ पर विश्वास करो.” और मेरा मन उसकी बातों पर विश्वास कर रहा था.
मैंने आज शाम को अपने निर्णय से मां को अवगत कराते हुए बताया था, “मां, तुम विभोर को तो जानती ही हो. वह कई बार आया है हमारे घर. मैं उसी के साथ घर बसाना चाहती हूं, इसलिए मैं आज यह घर छोड़कर जा रही हूं.”
“बेटी, तुम्हारे मामा एक लड़के को देख आए हैं. वह हर दृष्टि से तुम्हारे योग्य है और वह इसी रविवार को आ भी रहा है तुम से मिलने के लिए. हम सभी तुम्हारे विवाह के लिए चिंतित और प्रयत्नशील हैं. थोड़ा-सा हमें व़क़्त दो. सुखद समय की प्रतीक्षा करो. थोड़े-से धैर्य की ज़रूरत है. बस, फिर सब अच्छा ही होगा.” मां एक ही सांस में सब कुछ कह गईं.
पर मैं विभोर के सम्मोहन में इस कदर जकड़ी हुई थी कि मां की हर बात मेरी समझ से परे थी और मैं अपनी ज़िद पर अड़ी रही. इस विषय पर हमारी काफ़ी तीखी बहस हुई. आख़िरकार मां समझ गईं कि मुझ पर एक नासमझ ज़िद सवार है और यह ज़िद किसी अन्य बात को अपने आगे टिकने नहीं देगी.
मां ने फिर कहा, “जिसके भरोसे तुम यह घर और मुझे छोड़कर जा रही हो, कम से कम उसे और उसके प्यार को एक बार जांच-परख ज़रूर लेना. यह मेरी अंतिम सलाह है बेटी.”
मां के स्वर नम पड़ गए थे. मैंने लापरवाही से कहा, “मैं अब बड़ी हो चुकी हूं. विभोर को अच्छी तरह से जानती हूं और मुझे उस पर पूरा भरोसा भी है.”
“धोखा वही खाते हैं, जो विश्वास करते हैं.” यह कहते हुए मां रोते हुए अपने कमरे की ओर चली गईं.
प्रभात दुबे
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