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कहानी- प्रतिध्वनि 1 (Story Series- Pratidhwani 1)

“आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई सर.” “तुम मुझे अंकल कह सकते हो.” “जी अंकल.” “मुझे तुमसे मिलकर ख़ुशी नहीं हुई... क्योंकि तुमने मेरे अतीत को कुरेद दिया है.” मेहराजी ने अपने सत्यवादी होने का परिचय दिया. “माफ़ कीजिएगा अंकल, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. फिर भी यदि आपका दिल दुखा है, तो मैं क्षमा चाहता हूं.” हतप्रभ-सा विवेक बोला. “विवेक, बिन मांगे ही सलाह दे रहा हूं. जानता हूं आजकल की युवापीढ़ी को बुज़ुर्गों की सलाह भाती नहीं है. फिर भी तुम्हें सचेत करना चाहता हूं, क्योंकि तुम्हारे अंदर मुझे अपना अतीत दिखाई दे रहा है... बेटा, अपनी पत्नी को ज्वालामुखी बनने से बचा लो.” नित्य की भांति वे थके क़दमों से धीरे-धीरे चलते हुए अपनी चिरपरिचित पत्थर की बेंच पर आकर बैठ गए. इस पार्क में आनेवाले लोग क्या, अब तो यहां के पेड़-पौधे, पक्षी यहां तक कि हवा भी उन्हें पहचानने लगी थी. और जानते थे कि सूर्योदय के साथ ही वे पार्क के दाहिने फाटक से प्रविष्ट होंगे और बिना दाएं-बाएं देखे सीधा इसी हरसिंगार के नीचेवाली पत्थर की बेंच पर आकर बैठ जाएंगे. एक घंटा यूं ही बिताकर बिना कुछ बोले, बिना घूमे-टहले सीधा उठकर दाहिने फाटक से बाहर निकल जाएंगे. इधर एक सप्ताह से उनकी इस दिनचर्या में थोड़ा-सा परिवर्तन आया है. अब उनके आने के आधे घंटे बाद, 35-36 की उम्र का एक युवक उन्हीं की बेंच पर बैठ कर अख़बार पढ़ने लगा है. आज उनको बेंच पर बैठे अभी पांच मिनट ही हुए थे कि वह दंपत्ति पार्क के गेट के अंदर आता दिखाई दिया. उन्होंने एक नज़र अपनी घड़ी पर डाली, फिर पार्क में चारों ओर देखा. अभी इक्का-दुक्का लोग ही पार्क में दिखाई दे रहे थे. उन्हें पास आता देखकर वे विपरीत दिशा में देखने लगे. यह भी पढ़े: हम योगी नहीं बन सकते, पर समाज के लिए उपयोगी तो बन सकते हैं… भारती त्रिवेदी!  “चलिए न, थोड़ा-सा टहल लीजिए.” अनुरोध भरा नारी स्वर उभरा. “क्यों फ़ालतू में सुबह-सुबह मूड ख़राब कर रही हो!... यहां तक आ जाता हूं, यही बहुत है. डॉक्टर ने टहलने के लिए तुम्हें कहा है, मुझे नहीं... अब जाओ जल्दी टहलकर आओ. आज अख़बार भी नहीं मिला है.” पुरुष के स्वर में खीझ थी. “आज हम शायद जल्दी आ गए हैं. पार्क खाली-खाली-सा लग रहा है, इसीलिए...” उसने बात अधूरी छोड़ दी. पुरुष बेंच पर बैठता हुआ इत्मीनान से बोला, “चिन्ता की कोई बात नहीं है. मैं हूं न यहीं.” सांवली-सी, तीखे नयन-नक्श व गोल-मटोल शरीरवाली वह स्त्री बिना बात आगे बढ़ाए स्वयं आगे बढ़ गई. घुंघराले बालोंवाला वह श्यामवर्णी पुरुष बेचैनी से बेंच पर बैठ, पहलू बदलने लगा. “अख़बार के बिना मन नहीं लग रहा क्या?” “जी... जी हां.” उसने चौंककर उनकी ओर देखा. “क्या शुभ नाम है आपका?” “मुझे विवेक सिंह कहते हैं. वैसे आप मुझे ‘तुम’ कहकर ही संबोधित करें, तो मुझे ख़ुशी होगी. आप मेरे बुज़ुर्ग जैसे हैं.” “अरे! कैसा संयोग है! मेरा नाम भी विवेक ही है... विवेक मेहरा.” “आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई सर.” “तुम मुझे अंकल कह सकते हो.” “जी अंकल.” “मुझे तुमसे मिलकर ख़ुशी नहीं हुई... क्योंकि तुमने मेरे अतीत को कुरेद दिया है.” मेहराजी ने अपने सत्यवादी होने का परिचय दिया. “माफ़ कीजिएगा अंकल, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. फिर भी यदि आपका दिल दुखा है, तो मैं क्षमा चाहता हूं.” हतप्रभ-सा विवेक बोला. “विवेक, बिन मांगे ही सलाह दे रहा हूं. जानता हूं आजकल की युवापीढ़ी को बुज़ुर्गों की सलाह भाती नहीं है. फिर भी तुम्हें सचेत करना चाहता हूं, क्योंकि तुम्हारे अंदर मुझे अपना अतीत दिखाई दे रहा है... बेटा, अपनी पत्नी को ज्वालामुखी बनने से बचा लो.” “जीऽऽऽ! ...!” आश्‍चर्य, असमंजस और नाराज़गी एक साथ विवेक के चेहरे पर उभर आई.          नीलम राकेश
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