कहानी- प्रीत के रंग हज़ार 2 (Story Series- Preet Ke Rang Hazar 2)
विगत के दर्द के फिर से उभरने के डर से वह भारत जाना नहीं चाहती थी. प्रीत के हज़ारों रंग में रंगकर अपने वेद की परिणीता बनने की चाहत को वह इसी दूसरे देश की ज़मीं पर जीना चाहती थी, जिसमें दुख-दर्द का एक नन्हा झरोखा भी उसे स्वीकार नहीं.
उसे क्या पता था कि एक बार फिर से नियति अपनी कुटिल चाल से उसके बन रहे घरौंदे को तहस-नहस करने का कुचक्र रच रही है. उसके लिए तो कोई बंधन नहीं था, लेकिन वेद को अपने परिवार की सहमति लेने भारत जाना था. फिर ऋचा की ज़िद कि शादी वह न्यूयॉर्क में ही करेगी. विगत के दर्द के फिर से उभरने के डर से वह भारत जाना नहीं चाहती थी. प्रीत के हज़ारों रंग में रंगकर अपने वेद की परिणीता बनने की चाहत को वह इसी दूसरे देश की ज़मीं पर जीना चाहती थी, जिसमें दुख-दर्द का एक नन्हा झरोखा भी उसे स्वीकार नहीं. वेद ने भी उसके कहने का मान रखा और अपनी मां को मनाने के लिए अकेले ही भारत जाने के लिए निकल पड़ा. भावुक मन से ऋचा ने वेद को विदाई दी.
मात्र एक हफ़्ते के लिए भारत गया वेद जब हफ़्तों नहीं लौटा, तो वह बुरी तरह तड़प उठी. भावावेश में आकर हडसन नदी में कूदकर प्राणांत कर लेना चाहा, लेकिन पुलिस की नज़रों में आ जाने के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी. बाद में न्यूयॉर्क में रह रहे उसी के समाज के द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि अपनी मां की अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए वेद को उनके बचपन की सहेली की बेटी रत्ना से शादी करनी पड़ी. कुछ कहने-सुनने का समय ही नहीं बचा था. इधर उसने रत्ना के गले में मंगलसूत्र बांधा और उधर उसकी मां ने अंतिम सांस ले ली. ऋचा को खोकर वेद भी कहां जीवित रह गया था. ऋचा का सामना वह किसी भी हालत में नहीं करना चाहता था. न्यूयॉर्क की नौकरी छोड़ने की सारी औपचारिकता को उसने भारत से ही निभाया.
वेद भारत से ही ऋचा की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी लेता रहा. समय के साथ ज़ख़्म कुछ हल्के हुए, तो ऋचा को नियति और अपनी मजबूरियों का वास्ता देते हुए समझाकर नए सिरे से जीवन शुरू करने के लिए प्रेरित करता. उसके बिखरे जीवन को अपनी बेशुमार चाहतों की संजीवनी बूटी से संवारता. उसकी मृत जीजिविषा को जीवित रखने की कोशिश करता. “अपनी पत्नी को लेकर आ जाओ. इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, हम साथ जी लेंगे. किसी भी हालात में मुझे अपना वेद चाहिए. नहीं जी सकती तुम्हारे बिना मैं वेद.” ऋचा की ज़िद वेद को पिघलाकर रख देती. वह अपनी असमर्थता पर रोकर रह जाता. घबराकर उसने ऋचा से बात करना बंद कर दिया.
समय के साथ ऋचा भी अपनी कठोर नियति से समझौता कर जीने का प्रयास करती रही, लेकिन प्यार में मिला दर्द और अकेलापन उसे टीसता रहा. जिस बैंक में श्लोक काम करता था, उस बैंक में कंपनी के काम से ऋचा को लगातार हफ़्तों जाना पड़ा. श्लोक की शैक्षणिक योग्यता और कार्य कुशलता पर वह मुग्ध हो गई. एक बार फिर से उसका दिल धड़क उठा किसी की चाहत में और वह उसे पाने के लिए बेक़रार हो उठी. श्लोक के कदम आगे क्या बढ़े कि ऋचा ने उसके प्यार को समेट लिया. ऋचा के इस निर्णय पर वेद बहुत ख़ुश हुआ. ऋचा के प्रति स्वयं से हुए अन्याय की आत्मग्लानि से अब वह मुक्त था. श्लोक भी उससे कहीं छिन न जाए, ऐसा सोचते ही ऋचा का सर्वांग कांप उठा. घबराकर उसने श्लोक को बांहों में भर लिया.
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अतीत के झरोखे खुलकर ऋचा को और संतप्त करते, उसके पहले ही श्लोक उसे बांहों में लिए उठ खड़ा हुआ. झटपट तैयार होकर वे दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे निकल गए. यूं तो न्यूयॉर्क उसके लिए कोई नया शहर नहीं था. वेद के साथ उसके चप्पे-चप्पे को वह देख चुकी थी. पर आज श्लोक के साथ इस जादुई नगरी का लुत्फ़ उठाने की बात कुछ और ही थी.
दोनों एक-दूसरे में समाए हडसन नदी के किनारे चलते रहे. टाइम स्न्वायर के रंगीन नज़ारों को निहारते हुए वे रॉक फेलर सेंटर पहुंच गए. वहां से खुली बस में सवार होकर न्यूयॉर्क के दर्शनीय स्थानों के लिए निकल पड़े. ऋचा मस्त होकर सभी को निहार रही थी. सारे दर्शनीय स्थल आज उसे अतिरेक आनंद की अनुभूति दे रहे थे. श्लोक भी अपनी नवपरिणीता के इस नए रूप पर मुग्ध था. एक पल के लिए भी वह ऋचा को अपनी नज़रों से ओझल होने नहीं दे रहा था. सारे दिन अपनी बांहों में उसे बांधे घूमता रहा.
घूमकर जब वे दोनों रॉक फेलर सेंटर में उतरे, तो शाम का रेशमी अंधेरा, रौशनी में नहा रहा था. इधर-उधर घूमने के बाद डिनर के लिए वे उत्सव रेस्टॉरेंट की ओर जा ही रहे थे कि ऋचा का बोस्टन का सहपाठी सैम टकरा गया, जिसके चंद बोल उसकी ख़ुशियों पर उल्कापात ही कर गए.
“हाय हनी! व्हेयर इज़ वेद?” फिर श्लोक की ओर देखते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “न्यू फ्रेंड...” आगे सैम कुछ और कहता कि उसके पहले ही वह बोल पड़ी, “माय हसबैंड श्लोक.” और सैम को वहीं हतप्रभ छोड़कर श्लोक का हाथ थामे वह आगे बढ़ गई.
श्लोक को अनमना-सा देख ऋचा का दिनभर का उत्साह जाता रहा. रेस्टॉरेंट में पहुंचने के बाद भी श्लोक की उदासियां कम नहीं हुईं. सारा खाना उसी के पसंद का था, लेकिन खाने में उसकी कोई रुचि नहीं थी. खोया-खोया-सा वह रेस्टॉरेंट की खिड़की से नीचे थिएटर से निकलते लोगों को देखता रहा, तो ऋचा तड़प उठी. उसकी व्याकुलता सिसकियां बनकर उसके व्यथित होंठ पर तैर गई.
किस फेरे में तुमने मुझे डाल दिया वेद? कहां मेरे चेहरे पर मामूली-से शिकन तुम्हें गवारा नहीं थी. पलभर में सोख लेते थे मेरे अंतर के सारे गीलेपन को. श्लोक को संदेह के भंवर से मैं कैसे बाहर निकालूं. आज फिर एक बार उलझन से घिर गई हूं. मैं तो तुम्हारी यादों के साथ ही ख़ुश थी... मन-ही-मन बुदबुदाते हुए ऋचा टूटकर बिखर रही थी.
रेणु श्रीवास्तव