कहानी- श्रवण कुमार 1 (Story Series- Shravan Kumar 1)
“अरे! आप तो बस... जतिन भइया और सुरेखा भाभी का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. दो दिन से घूम-घूमकर देख रहे हैं कि पापा-मम्मी कैसे रह रहे हैं. बात-बात पर टोका-टाकी, नसीहत बर्दाश्त से बाहर है.” “बड़े हैं, कुछ कह दिया तो क्या हुआ.”“कहने का बुरा नहीं लगता, बात-बात पर नीचा दिखाने की कोशिश बुरी लगती है. कल कह रहे थे एक डायट प्लान बनाओ, मम्मी-पापा कमज़ोर लग रहे हैं. वह आरोप भी हम पर है.” “बड़े भइया ने मुझे भी कहा कि मैं पहले से कमज़ोर हो गया हूं, तो क्या यह आरोप भी तुम पर आया? अब मम्मी-पापा की सेहत के लिए बोला, तो बुरा मान गई. सच भी है कि पहले से सेहत गिरी है.”
''अंकजा जानती है कि गुलाब जामुन पापा की कमज़ोरी है. एक दे देती तो क्या हो जाता. सनी को कह रही थी कि दादाजी के सामने मत खाना. क्या संस्कार पड़ेंगे बच्चे पर?” सुरेखा की बात सुन जतिन आहत और दमयंतीजी मौन थीं. जतिन-सुरेखा और दमयंतीजी के चेहरे से झलकी अप्रसन्नता देख सूर्यकांतजी निंदारस से बचते कमरे से बाहर निकले, तो दंग रह गए. छोटी बहू अंकजा दरवाज़े की ओट में खड़ी भीतर की फुसफुसाहट सुनने का प्रयास कर रही थी. सूर्यकांतजी से नज़र मिलते ही वो शर्मिंदगी के भाव लिए चली गई.
अटपटा-सा महसूस करते बरामदे की ओर गए, तो छोटे बेटे अभय और बहू अंकजा के वार्तालाप के कुछ हिस्से कानों में पड़े, “मैं तो पापा के डायबिटीज़ के कारण सनी को उनके सामने गुलाब जामुन खाने से रोक रही थी, पर यहां तो अर्थ का अनर्थ बना दिया सुरेखा भाभी ने.”
“छोटे बच्चे के सामने कहना ठीक नहीं था. सनी का नन्हा मन नहीं समझेगा तुम्हारे कंसर्न को.”
“हां, ये ग़लती हुई. मैं समझाती कि दादाजी के लिए मीठा नुक़सानदेह है, पर भाभी ने तो बीच में ही बात पकड़ ली, कितना कुछ सुना दिया. अब मम्मी-पापा से चुगली करेंगी, क्या सोचेंगे वो?”
“सोचेंगे तुम कितना ख़्याल रखती हो.”
“अरे! आप तो बस... जतिन भइया और सुरेखा भाभी का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. दो दिन से घूम-घूमकर देख रहे हैं कि पापा-मम्मी कैसे रह रहे हैं. बात-बात पर टोका-टाकी, नसीहत बर्दाश्त से बाहर है.”
“बड़े हैं, कुछ कह दिया तो क्या हुआ.”
“कहने का बुरा नहीं लगता, बात-बात पर नीचा दिखाने की कोशिश बुरी लगती है. कल कह रहे थे एक डायट प्लान बनाओ, मम्मी-पापा कमज़ोर लग रहे हैं. वह आरोप भी हम पर है.”
“बड़े भइया ने मुझे भी कहा कि मैं पहले से कमज़ोर हो गया हूं, तो क्या यह आरोप भी तुम पर आया? अब मम्मी-पापा की सेहत के लिए बोला, तो बुरा मान गई. सच भी है कि पहले से सेहत गिरी है, इस उम्र में साल दर साल तेज़ी से अंतर आता है. हम रोज़ देखते हैं, तो पता नहीं चलता. वो सालों बाद मिले हैं, ज़ाहिर है कि परिवर्तन के बारे में बात करेंगे.”
सूर्यकांतजी बाहर आती धीमी आवाज़ों से व्यथित खुली हवा में चले गए. हर तरह के आराम व सुविधा के बावजूद सुरेखा-जतिन का अंकजा-अभय में कमी निकालना और दमयंतीजी का अप्रत्यक्ष रूप से उसमें शामिल होना हमेशा ही अखरा है. सोच में डूबे सूर्यकांतजी सामने बने पार्क में अपनी मित्र-मंडली तक पहुंच गए. मित्र सुधाकर हंसकर बोले, “बहू-बेटे से ख़ूब सेवा करवाई है, तभी ईद का चांद हो गए हो. भई, इनके ‘श्रवण कुमार’ के क्या कहने. मेरी मिसेज़ बड़ी तारीफ़ करती हैं.”
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“कौन, अभय?”
“अरे नहीं, बड़ा बेटा जतिन. कब तक रुकेगा यहां? दमयंती भाभी उसकी बहुत तारीफ़ करती हैं.” बातचीत का मुद्दा बदलने के लिए सूर्यकांतजी ने उनके कुर्ते की तारीफ़ की, तो वो गौरवान्वित होकर बोले, “मेरे इंदौरवाले बेटे ने भेजा है.” उनके इंदौरवाले बेटे के गुणों को सुनने के बाद सुबोधजी को अपने दानवीर सहृदय कनाडावाले बेटे की याद आई, साथ ही अपनी बहू की भी, जो कनाडा में रहते हुए भी संस्कारशील है. बाकायदा उनके चरण पखारती है, कहती है, “बुज़ुर्गों के आशीर्वाद ज़रूरी हैं.” दूर निवास करते बच्चों की चर्चा में अब सब शामिल थे. मित्रगण में कोई अमुक बहू के हाथों के बने पकवान के स्वाद में, तो कोई अपने बेटे के स्वभाव में डूबा था, कोई किसी बेटे के घुमाने-फिराने के शौक़ का मुरीद था, तो कोई पूजा-पाठवाले स्वभाव पर फ़िदा था. दूर रहती संतानों के गुणानुवाद में सब यूं डूबे मानो निरानंद-निस्पृह-सा जीवन उन आनंदमई क्षणों के सहारे ही बीत रहा हो. गोया जिस बेटे-बहू के घर रहा जा रहा है, उसे छोड़कर दूसरी संतानों में सारी ख़ूबियां टनों भरी हुई हों.
भूले-बिसरे गीतों की मधुर तान में डूबे लंबी उसांस भरते मित्रों से सूर्यकांतजी पूछना चाहते थे कि आप सब उन संतानों के पास क्यों नहीं चले जाते, पर कुछ सोचकर चुप रहे. सबके हुलसित आत्ममुग्ध मन पर इस प्रश्न के बोझ से उनको उदासीन करना नहीं चाहते थे. इस बीच जतिन अपने पापा को लेने आया, तो सुधाकर बोले, “लो भई, आ गए आपके ‘श्रवण कुमार’, सुख-दुख बांटिए... कल मिलते हैं.” अपने लिए ऐसा संबोधन सुनकर जतिन गदगद हो गया. रास्ते में भावुकता से बोला, “कितना लकी है अभय, आप लोग उसके साथ रह रहे हैं. पापा कोई द़िक्क़त तो नहीं है यहां. अभय और अंकजा आप लोगों को वक़्त देते हैं या नहीं?”
“हां, जितना बन पड़ता है. सुबह-शाम की चाय, रात का खाना साथ खाते हैं.”
“सुना है, ये लोग अपनी शादी की सालगिरह पर हिल स्टेशन गए थे. आप लोगों को नहीं ले गए, क्यों...? क्या आप परिवार का हिस्सा नहीं हैं? हम तो कभी अकेले ना छोड़ते, एक बात और, अपने कमरे में एक टेलीविज़न लगवा लीजिए.”
“किसलिए, घर पर है तो...”
मीनू त्रिपाठी
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