कहानी- श्रवण कुमार 3 (Story Series- Shravan Kumar 3)
“तुम मेरे कल के स्वांग को सच समझ बैठी क्या?” “स्वांग! मतलब... पर किसलिए?” दमयंतीजी हैरान थीं, सूर्यकांतजी गंभीर मुद्रा में बोल रहे थे, “हर बच्चा अपने माता-पिता को सुखी देखना चाहता है, पर ज़िम्मेदारी लेने से बचता है. बूढ़े माता-पिता के सुख-आराम के लिए अपने सुख को दांव पर लगाए बिना दूसरे भाई-बहनों का मुंह देखकर, उनको नसीहतें देकर कर्त्तव्य पूर्ति की इतिश्री समझता है. ऐसे में कुछ माता-पिता एक बेटे के घर रहते हुए अपने मन को दूसरे में लगाकर उस बेटे के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं, जो उनको सहारा दे रहा है. दूर रहनेवाले के प्रेम में डूबकर हम साथ रहनेवाले की सेवा-प्रेम को नज़रअंदाज़ करके उसकी उपेक्षा कर बैठते हैं.”
छोटी-छोटी बातों का जो बतंगड़ उसने बनाया था, सब सूर्यकांतजी के मुंह से निकल रहा था. सुरेखा, जतिन को खा जानेवाली नज़रों से देखते हुए बोली,
“क्यों ज़रा-सी बात का बतंगड़ बनाकर पापा का ग़ुस्सा बढ़ाया?”
“अरे! घर-परिवार में हज़ार बातें होती हैं. कुछ हमने भी कर लीं. क्या जानते नहीं अंकजा-अभय कितना ख़्याल रखते हैं,
घूमने का शौक़ चढ़ा है. थोड़ी दूर चलकर तो हांफने लग जाते हैं.” दमयंतीजी पति की हरक़त पर हैरान बड़बड़ा रही थीं. जतिन समझा रहा था, “अभय आपकी सेवा में कोई कसर नहीं रखता है. अंकजा मन की साफ़ है,
मलाल मत रखिए. साथ ले जाने को ले चलूं, पर आपको असुविधा होगी. मैंने तो बस यूं ही कह दिया, पर जानता हूं यहां जैसा आराम आपको कहीं नहीं मिलेगा.” बेसाख़्ता मुंह से निकला, कड़ी मश़क्क़त के बाद सुरेखा और जतिन अभय और अंकजा का सेवाभाव बखानकर सूर्यकांतजी के क्रोध के उफ़ान पर छींटें मारकर शांत करने में कामयाब हुए. अंकजा-अभय आए, तो सुरेखा और जतिन के स्वर बदले से लगे.
सुरेखा को अंकजा से कहते सुना, “तुझे मेरी किसी बात का बुरा तो नहीं लगा और हां सबके साथ अपना भी ख़्याल रखा करो.” जेठानी की आत्मीयता और छोटे-बड़े भाई का दोस्ताना अंकजा को भा गया. डायनिंग टेबल पर अभय और जतिन के ठहाके के साथ सुरेखा और अंकजा की गुफ़्तगू भी जारी थी.
पापा-मम्मी के डायट और स्वास्थ्य को लेकर कुछ नहीं कहा गया.
मम्मी-पापा के मौन का कारण अभय-अंकजा ने यही निकाला कि वो जतिन भइया और भाभी के जाने से दुखी हैं. दूसरे दिन सैर के समय जतिन यहां के हवा-पानी और अंकजा-अभय के प्रबंधन की तारीफ़ कर रहा था. भावुक माहौल में विदा होते सुरेखा और जतिन के साथ बाकी सभी थोड़े दुखी थे.
“आप लोगों का ख़्याल इतने अच्छे से रखा जा रहा है, बहुत तसल्ली है. बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर.” जतिन के भावपूर्ण शब्दों पर सूर्यकांतजी ने कहा, “अपना ख़्याल रखना और आते रहना.” इतना कहकर जतिन को गले लगा लिया. अभय और अंकजा बड़े भाई के मुंह से तारीफ़ सुनकर खिल उठे.
जतिन-सुरेखा के जाने के बाद दुख और ग़ुस्से के मिले-जुले भाव में दमयंती को चुपचाप कमरे में बैठा देखकर सूर्यकांतजी बोले, “कुछ पूछोगी नहीं?”
“क्या पूछूं, जाते-जाते बेटे-बहू को दुखी कर दिया.”
“कहां दुखी थे? आज जतिन अपने भाई और उसकी पत्नी की प्रशंसा करता नज़र आया. तुम्हारा दिमाग़ बेवजह के प्रदूषण से दूषित होते बचा. जेठ-जेठानी के प्रति सम्मान तो देवर-देवरानी के प्रति स्नेह दिखा. जतिन और सुरेखा बेवजह परेशान नहीं दिखे और सबसे बड़ी बात, दोनों हमारी देखरेख के प्रति आश्वस्त होकर गए और क्या चाहिए.”
“पर आपने ऐसा क्यों किया? कौन-सा भूत सवार हुआ, जो एकदम बिगड़ गए और अब शांत.”
“तुम मेरे कल के स्वांग को सच समझ बैठी क्या?”
“स्वांग! मतलब... पर किसलिए?” दमयंतीजी हैरान थीं, सूर्यकांतजी गंभीर मुद्रा में बोल रहे थे, “हर बच्चा अपने माता-पिता को सुखी देखना चाहता है, पर ज़िम्मेदारी लेने से बचता है. बूढ़े माता-पिता के सुख-आराम के लिए अपने सुख को दांव पर लगाए बिना दूसरे भाई-बहनों का मुंह देखकर, उनको नसीहतें देकर कर्त्तव्य पूर्ति की इतिश्री समझता है. ऐसे में कुछ माता-पिता एक बेटे के घर रहते हुए अपने मन को दूसरे में लगाकर उस बेटे के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं, जो उनको सहारा दे रहा है. दूर रहनेवाले के प्रेम में डूबकर हम साथ रहनेवाले की सेवा-प्रेम को नज़रअंदाज़ करके उसकी उपेक्षा कर बैठते हैं.”
“आप क्या चाहते हैं, जिस बेटे के साथ रहें, बस उसे ही स्नेह-आशीर्वाद का पात्र बनाएं.”
“स्नेह-आशीर्वाद के दोनों हक़दार हैं, पर जहां तक प्रशंसा का सवाल है, तो उसका एक अतिरिक्त निवाला अपने हाथों से उसे खिलाना चाहिए, जो पास है. प्रेमपूर्वक खिलाया वो निवाला उनको आत्मतृप्त कर देगा, परिणाम भी सुंदर निकलेगा. अपना जतिन बहुत प्रेम करता है माना, पर उसका प्रेम प्रदर्शन है,
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ज़िम्मेदारी से इतर दूसरों के कामों में कमी निकालनेवाला है. बचपन में उसकी चुगलियां सुन तुम हंस देती थीं, अब ये आदत रिश्तों में दरार डालेगी. आज के बाद जतिन निरर्थक नसीहतें देने से बाज़ आएगा. अव्यावहारिक नसीहतों का भार उठाने में वो कितना सक्षम है, ये एहसास करवाना ज़रूरी था. हमें भी स्वयं के
सोचने-समझने और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ानी होगी. ग़लत के चश्मे से सही बात ग़लत ही दिखेगी. जब हम अकेले थे, तब टेलीविज़न तीसरे की मौजूदगी का एहसास कराता था, यहां तीसरे की मौजूदगी अभय-अंकजा और सनी पूरी करते हैं. गुलाब जामुन ना देना मेरे स्वास्थ्य की चिंता के तहत है. ये विश्वास होना चाहिए. दोनों अपने बच्चे हैं, हमसे जुड़ाव होना स्वाभाविक है. एक सहारा देकर प्रतिबद्धता निभाता है, दूसरा नसीहतों, हिदायतों द्वारा कर्त्तव्यपूर्ति करता है. बोलो, किसकी प्रतिबद्धता को सही मायनों में पूरे नंबर दोगी?” दमयंतीजी मौन थीं? तभी अंकजा और अभय भीतर आए. अंकजा उत्साह में हाथों में पकड़ी साड़ी दिखाते हुए बोली, “भाभी ने दी है. सुंदर है ना. मैं तो भइया-भाभी को कुछ दे ही नहीं पाई.”
“इतने दिनों से सबका ख़्याल रखा, वो क्या कम था. जाओ अब थोड़ा आराम कर लो.” दमयंतीजी के स्नेहपूर्ण शब्दों से लबरेज़ तारीफ़ से अंकजा के चेहरे पर छाया उल्लास अभय के चेहरे पर संतुष्टि के भाव ले आया, जिसे देख सूर्यकांतजी मुस्कुरा दिए.
मीनू त्रिपाठी
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