आख़िर मैं सुज़ैन तक पहुंच ही गई. “सुज़ैन...” युवती भी अपना नाम सुनकर पीछे पलटकर मुझे घूरने लगी और एकाएक पहचान की मीठी मुस्कुराहट से उसका चेहरा दमकने लगा.“यू... रैमा...?” वह रमा की बजाय मुझे रैमा ही कहती थी.“येस. आई एम रैमा. यू रिमैंबर मी?”जवाब में सुज़ैन मुझसे लिपट गई और मैंने भी उसे बांहों में भींच लिया. मैं पति के साथ एक महीने के लिए दुबई आई थी बेटे-बहू के पास. सोचा भी न था कि सुज़ैन से यहां मुलाकात हो जाएगी. दोनों की आंखें नम थीं. हिंदुस्तानी तो भावुकता के लिए प्रसिद्ध होते ही हैं, पर वह जर्मन लड़की कैसे इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भी मुझसे मिलकर अपनी गीली हो आई आंखों को पोंछ रही थी.
बच्चों व पति के साथ दुबई के इब्नबतूता मॉल के अंदर घुसी ही थी कि सामने से आती एक गोरी युवती को देखकर मैं चौंक गई. ‘इतनी जानी-पहचानी सूरत? कहां देखा है इसे? पर यह गोरी लड़की और मैं खालिस हिंदुस्तानी. सारा जीवन भारत में काट दिया. भला इस लड़की से मैं कहां मिल सकती हूं?’
तभी क्षणों में स्मृतिपटल के कपाट खुल गए. यादों के झरोखों से एक नाम दिमाग़ को झंकृत कर गया, ‘सुज़ैन. हां, यह तो सुज़ैन ही है...’ मैं पलभर में ही पीछे पलट गई.
“कहां जा रही हो मम्मी?”
“एक मिनट... अभी आई...” बेटा भी मेरे पीछे दौड़ गया. कहीं मॉल में टूरिस्ट की असीमित भीड़ में उसकी मम्मी खो न जाए.
आख़िर मैं सुज़ैन तक पहुंच ही गई. “सुज़ैन...” युवती भी अपना नाम सुनकर पीछे पलटकर मुझे घूरने लगी और एकाएक पहचान की मीठी मुस्कुराहट से उसका चेहरा दमकने लगा.
“यू... रैमा...?” वह रमा की बजाय मुझे रैमा ही कहती थी.
“येस. आई एम रैमा. यू रिमैंबर मी?”
जवाब में सुज़ैन मुझसे लिपट गई और मैंने भी उसे बांहों में भींच लिया. मैं पति के साथ एक महीने के लिए दुबई आई थी बेटे-बहू के पास. सोचा भी न था कि सुज़ैन से यहां मुलाकात हो जाएगी.
दोनों की आंखें नम थीं. हिंदुस्तानी तो भावुकता के लिए प्रसिद्ध होते ही हैं, पर वह जर्मन लड़की कैसे इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भी मुझसे मिलकर अपनी गीली हो आई आंखों को पोंछ रही थी.
“तुम यहां कैसे?”
“घूमने आई हूं. ऊली भी आया है. सामनेवाली शॉप में है.” इतने में संकल्प भी उसे पहचान गया था.
“हैलो सुज़ैन.”
“इज़ ही सैंकी?” उसने मुझसे पूछा. संकल्प बोलना जर्मन लड़की के लिए शायद कठिन था, इसलिए वह उसे सैंकी ही कहती थी.
“येस. आई एम सैंकी.” संकल्प ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. सुज़ैन ने उससे हाथ मिलाया.
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तब तक मेरे पति व बहू भी वहीं पहुंच गए और ऊली भी आ गया. वह भी हम सबसे मिलकर बहुत ख़ुश हुआ. हमने कुछ समय उनके साथ बिताया. कॉफी पी. फोन नंबर लिए-दिए और घर आ गए.
घर वापस आते हुए कार में मैं ख़ामोश बैठी थी. सुज़ैन किसी भी तरह दिल-दिमाग़ से नहीं उतर पा रही थी. जो यादें दिल में समय की अंधेरी गलियों में दफ़न हो चुकी थीं, वे एकाएक जैसे समय की गर्त झाड़कर चमत्कृत हो उठी थीं. घर पहुंची, तो डिनर बनाने में व्यस्त हो गई. डिनर के बाद बच्चे भी सोने चले गए और पति भी. पर मुझे आज नींद नहीं आ रही थी. लॉबी में बैठकर मैं पुरानी यादों में खो गई.
यह विदेशी जोड़ा, जर्मनी के फ्रेंकफर्ट शहर से भारत मेरी चचेरी ननद शिखा की बेटी के विवाह में शामिल होने आया था. फ्रेंकफर्ट में वे मेरी ननद पारुल व ननदोई के मित्रों में एक थे. सुज़ैन की कई यादें, उसकी भाव-भंगिमाएं, शादी में भारतीय परिधान ही पहनने की ज़िद, बिंदी-चूड़ी पहनने की ज़िद, मेहंदी लगवाना जैसे कई मासूम लम्हे मेरे मानसपटल पर साकार हो उठे, लेकिन उन ख़ूबसूरत यादों के बीच एक स्याह याद भी थी, जिसे मैं इतने सालों में कभी नहीं भुला पाई.
आज से लगभग सात-आठ साल पहले की बात है. शिखा की बेटी के विवाह में जब पति व बेटे के साथ मैं कानपुर पहुंची, तो घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था. जर्मनी से पारुल भी परिवारसहित पहुंच गई थी. सभी परिवारजनों के पहुंचने से घर में उत्सव का माहौल बन गया था.
“भाभी, पता है जर्मनी से मेरी एक मित्र भी आनेवाली है, आज दोपहर को पहुंचेगी.” पारुल बोली.
“अच्छा?” मुझे उत्सुकता हुई, “अकेली आ रही है क्या?”
“नहीं नहीं... उसके साथ एक लड़का भी है.”
“लड़का? मतलब... उसका बॉयफ्रेंड या हसबैंड? कौन है?”
“मुझे नहीं पता...” पारुल हंसते हुए बोली, “वहां पर यह सब नहीं पूछा जाता.”
“क्यों?” मैं आश्चर्य से बोली. पारुल हंसने लगी, “क्योंकि उनके साथ ज़िंदगीभर एक पुरुष या एक महिला नहीं दिखाई देती.” पारुल ने रहस्योद्घाटन किया और किसी काम में लग गई.
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शाम के समय सभी परिवारजन विवाह के माहौल में बैठे हंसी-मज़ाक कर आनंदित हो रहे थे कि मुझे गेट से एक गोरा जोड़ा आता दिखाई दिया. मैं समझ गई कि यही है पारुल के आनेवाले विदेशी मित्र. तभी पारुल अंदर से आई और उनसे हाथ मिलाने लगी. थोड़ी देर में पारुल उन दोनों को लेकर हमारे सामने आ गई, “यह सुज़ैन है और यह ऊली.” पारुल हमसे बोली. फिर उनसे अंग्रेज़ी में बोली, “ये मेरी भाभी यानी मेरे भाई की पत्नी... ये फलां... ये फलां...
वगैरह-वगैरह.” सुज़ैन और ऊली मुस्कुराकर सबको गर्दन झुका-झुकाकर ‘हैलो-हैलो’ कहते रहे.
पहली मुलाक़ात में सुज़ैन हमें अच्छी तो लगी, लेकिन फिर भी परिचय महज़ रस्मी तौर पर रहा. हां, मेरे दिल में सुज़ैन को लेकर एक अजीब-सी उत्सुकता जाग गई थी. शाम को घर में महिला संगीत का कार्यक्रम था. तभी पारुल होंठोंे ही होंठों में कुछ बुदबुदाते हुए आई.
“अब क्या हुआ?” मैंने पूछा.
“कुछ नहीं.” पारुल परेशान-सी बोली, “सुज़ैन कह रही है कि वह शादी के सभी मौक़ों पर स़िर्फ भारतीय परिधान ही पहनेगी. अब मैं इतनी जल्दी इसके नाप के ड्रेसेस कहां से लाऊं?” मुझे बहुत अच्छा लगा सुनकर. जहां हमारी युवा पीढ़ी पश्चिमी परिधान के पीछे पागल है. विदेशी हमारे रंग-बिरंगे ख़ूबसूरत परिधानों में दिलचस्पी रखते हैं.
सुधा जुगरान
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