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कहानी- वर्जनाएं 3 (Story Series- Varjanaye 3)

“राजीव, पति-पत्नी का रिश्ता कांच की तरह होता है. एक बार चटक जाए, तो उसका निशान कभी नहीं जाता.” “तुम ग़लत कह रही हो अनु. यह इंसान के व्यक्तिगत प्रयासों पर निर्भर करता है कि वह किस रिश्ते को क्या रूप देता है, कांच की तरह कमज़ोर या पानी जैसा समतल, जिसमें कितनी भी लकीर खींचो, वह कभी दो हिस्सों में बंट नहीं सकता. यही तो होता है पति-पत्नी का रिश्ता, एक रास्ता भटक जाए, तो दूसरा उसे सम्भाल लेता है.” कातर दृष्टि से देखती रही वह मुझे. फिर गंभीर स्वर में बोली, “नहीं राजीव, अब रहने दो. मैं नहीं चाहती, मेरी मां किसी की दया का पात्र बनें.” कुछ क्षण की प्रतीक्षा के बाद मैं पुन: बोला, “अनु, तुमसे एक फेवर चाहता हूं. आज हमारी मैरिज एनीवर्सरी है और मेरे मित्र डिनर पर आना चाहते हैं. तुम घर आ जाओगी, तो मेरी इ़ज़्ज़त बच जाएगी.” वह कुछ नहीं बोली. मैंने कहा, “प्लीज़ अनु, इंकार मत करना.” “कितने बजे आना है?” उसने पूछा. “मैं अभी तुम्हें लेने आ रहा हूं.” मैं उत्साह से भर उठा. किंतु वह ठंडे स्वर में बोली, “मैं स्वयं आ जाऊंगी.” एक घंटे बाद अनु आई. वह पहले से काफ़ी कमज़ोर लग रही थी. उसकी आंखों में एक तटस्थ-सी उदासी थी, जिसे देख मेरा हृदय द्रवित हो उठा. अपनी एनीवर्सरी के दिन उसे हृदय से लगाकर प्यार करना तो दूर, मैं उसे शुभकामनाएं भी न दे सका. कभी-कभी चाहकर भी इंसान अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं कर पाता. कहीं न कहीं उसके आगे स्वयं को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. जब अपनी इ़ज़्ज़त पर आई, तो अपने अहम् को दरकिनार कर उसे बुला लिया. अनु की दी हुई लिस्ट के अनुसार मैं मार्केट से सामान ले आया और उसने खाना बनाना प्रारंभ कर दिया. सारा दिन मैं किचन के आसपास ही मंडराता रहा, शायद अनु कुछ बोले. किंतु हम दोनों के बीच पड़ी दरार में शब्द कहीं गुम हो गए थे. क्या यह दरार पाटना अब संभव था? शाम सात बजे मेरे मित्र अपनी-अपनी पत्नियों के साथ घर पर आ गए. मैं यह देखकर अचंभित रह गया कि सुबह से जिस अनु के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला था, मेरे मित्रों के आते ही उसके व्यवहार में आश्‍चर्यजनक रूप से परिवर्तन आ गया था. अचानक ही वह बेहद प्रसन्न नज़र आने लगी थी और दूसरों के साथ-साथ मुझसे भी बहुत हंस-हंसकर बात कर रही थी. उसने एक ख़ूबसूरत-सी साड़ी चेंज कर ली थी, जिसमें वह बेहद सुंदर नज़र आ रही थी. उसकी समझदारी और व्यवहारिकता का मैं क़ायल हो गया. किसी को तनिक भी संदेह नहीं हो पाया था कि हम दोनों के बीच झगड़ा था. जब तक मेहमान घर से रुख़सत हुए, रात्रि के दस बज चुके थे. बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई थी. उसने जल्दी-जल्दी किचन समेटा और पर्स उठाकर घर जाने के लिए दरवाज़े की ओर बढ़ी. मेरे हृदय में हूक-सी उठी. मैंने तुरंत आगे बढ़कर उसकी बांहों को थाम लिया और भर्राए कंठ से बोला, “मुझे क्षमा कर दो अनु. मुझे छोड़कर मत जाओ. मुझे अपनी भूल का एहसास हो गया है. मैं बेहद शर्मिंदा हूं यह सोचकर कि मैंने तुम्हें कितना दुख पहुंचाया. तुम्हारी सेवा और कर्त्तव्य को मैंने अपना अधिकार समझा. किंतु बात जब मेरे कर्त्तव्य की आई, तो उससे किनारा कर तुम्हारे विश्‍वास को खंडित किया. सच-सच बताना, तुमने क्या मम्मी को सब कुछ बता दिया?” “नहीं, उन्हें बताकर मैं उनके हृदय को आघात पहुंचाना नहीं चाहती थी.” “ओह! तुम कितनी अच्छी हो अनु. तुमने मेरे हृदय पर से बहुत बड़ा बोझ हटा दिया. अब हम कल सुबह ही उन्हें यहां ले आएंगे.” कहते हुए भावावेश में मैंने उसके दोनों हाथ थाम लिए. अनु ने अपने हाथ छुड़ा लिए और बोली, “राजीव, पति-पत्नी का रिश्ता कांच की तरह होता है. एक बार चटक जाए, तो उसका निशान कभी नहीं जाता.” “तुम ग़लत कह रही हो अनु. यह इंसान के व्यक्तिगत प्रयासों पर निर्भर करता है कि वह किस रिश्ते को क्या रूप देता है, कांच की तरह कमज़ोर या पानी जैसा समतल, जिसमें कितनी भी लकीर खींचो, वह कभी दो हिस्सों में बंट नहीं सकता. यही तो होता है पति-पत्नी का रिश्ता, एक रास्ता भटक जाए, तो दूसरा उसे सम्भाल लेता है.” कातर दृष्टि से देखती रही वह मुझे. फिर गंभीर स्वर में बोली, “नहीं राजीव, अब रहने दो. मैं नहीं चाहती, मेरी मां किसी की दया का पात्र बनें.” यह भी पढ़ें: मरीज़ जानें अपने अधिकार  उसके शब्द मेरे हृदय को बींध गए. रुंधे कंठ से मैं बोला, “मेरे पश्‍चाताप को दया का नाम देकर मुझे मेरी ही नज़र में मत गिराओ अनु. मैं सच कह रहा हूं कि...” मैं तलाश रहा था उन शब्दों को जो मेरे पश्‍चाताप को बयां कर पाते. किंतु मेरी आवाज़ की कंपकंपाहट मेरे अंतस के दर्द को बयां कर रही थी. भावनाएं सच्ची हों, तो उनकी अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की बैसाखी की आवश्यकता नहीं पड़ती. वे जीवनसाथी के हृदय तक पहुंचने की राह स्वयं बना लेती हैं. ऐसा ही कुछ हुआ था हमारे साथ भी, तभी तो अनु की आंखें सावन के मेघों जैसी बरस पड़ी थीं. व्याकुल होकर वह मेरी ओर बढ़ी. मैंने उसे कसकर अपने सीने से लगा लिया. वर्जनाओं की बेड़ियों से स्वयं की ऊंचाई पर जा पहुंचा था, जहां पति-पत्नी स़िर्फ शरीर से ही नहीं, वरन मन से भी एकाकार होते हैं. कहने को यह हमारी तीसरी एनीवर्सरी थी, किंतु वास्तविक मिलन तो हमारा आज ही हुआ था. Renu Mandal          रेनू मंडल

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