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कहानी- विजय-यात्रा 3 (Story Series- Vijay-Yatra 3)

‘यही तो! यही तो सबसे तकलीफ़देह है...’ मेरा मन चीखा और मैंने संवेदनाभरे हाथों से उसका हाथ थाम लिया, “दिल छोटा न कर...” पर मेरी संवेदना तपते तवे पर पड़ी पानी की बूंदों की तरह छनछना उठी. “हम ज़िंदगीभर की मेहनत से उस घर के लोन की किस्ते चुकाते रहेंगे, जो हमारा कभी होगा ही नहीं...”

       

... “मुश्किल तो है,” सुजाता मेरा हाथ थामकर बोली, “रोहन की तकलीफ़ ही ऐसी है कि ध्यान आते ही हमारी रूह कांप जाती है, तो ज़रा सोच उसका हाल क्या होगा. पांच वर्ष बाद अपने शहर लौट रहा है और उसने सबसे पहले दोस्तों को याद किया. मरहम तो हमें बनना ही होगा.” “अच्छा ये बता, तेरा चेहरा इतना बुझा क्यों है?” मैंने कुरेदा, तो वो सिसक पड़ी, “हामारा बिल्डर शायद गायब हो गया है, सबके पैसे लेकर!" “क्या?” मैं हतप्रभ रह गई. “... दस साल पहले कहा गया था तीन साल में पज़ेशन मिल जाएगा. कुछ महीने बाद से काम बंद सा हो गया. जब घर देखने जाते हैं, तो बुकिंगवाले दिन का घटनाक्रम मेरी आंखों के सामने वीडियो की तरह चलने लगता है. बेटी उछल रही थी, मैं अपने कमरे में बंक बेड डलवाऊंगी. बेटे की फ़रमाइश अपने कमरे में बॉस्केट बॉल की बॉस्केट लगवाने की थी और मेरे सपने? हुंह, सपने!.. मॉडुलर किचन, बालकनी, गार्डेन और...

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एक ओर पेशगी जमा करवा ली गई रकम के लोन की ईएमआई भरने के लिए किए जानेवाले आर्थिक समझौते, दूसरी ओर जगह की कमी की भावनात्मक समस्याएं और तीसरी ओर बिल्डर की ठगी का क्रोध... एक जीवन मिलता है जीने के लिए और वो संघर्ष में बीता जा रहा है. दो घरों के मालिक होते हुए भी खानाबदोश की ज़िंदगी जी रहे हैं. बेटा अपनी शिकायतें लेकर ड्रॉइंगरूम के सोफे पर सोता है और बेटी अपनी कुंठाओं के साथ हमारे कमरे में. और हम! न खुलकर इस घर पर इतना ख़र्च कर सकते हैं कि सबके पास प्राइवेसी हो जाए, न दूसरा घर ख़रीद सकते हैं. और इन सबसे बढ़कर ये कि जब कुछ लोग संगठित होकर प्रदर्शन करने गए, तो पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया. उसके बाद सबने समझाना शुरू कर दिया है कि भूल जाओ. तू ही बता क्या भूल जाएं और कैसे? ये जो बेचारगी का दर्द होता है न..." ‘यही तो! यही तो सबसे तकलीफ़देह है...’ मेरा मन चीखा और मैंने संवेदनाभरे हाथों से उसका हाथ थाम लिया, “दिल छोटा न कर...” पर मेरी संवेदना तपते तवे पर पड़ी पानी की बूंदों की तरह छनछना उठी. “हम ज़िंदगीभर की मेहनत से उस घर के लोन की किस्ते चुकाते रहेंगे, जो हमारा कभी होगा ही नहीं...”

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एक एक करके बाकी दोस्त भी आ गए. चाय-नाश्ते, असहज से हंसी-मज़ाकों के बीच पसरी अजीब-सी ख़ामोशी जब असह्य हो गई, तो अनंत ने रोहन के कंधे पर हाथ रखकर उसे अपनी ओर समेट ही लिया, “कैसा है तू यार? अब तो वापस आ गया है न स्थाई रूप से?.."

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...

भावना प्रकाश

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