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कहानी- विजय-यात्रा 5 (Story Series- Vijay-Yatra 5)

“हां, और हमें बताओ हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं.” सबने मेरी बात का ज़ोरदार समर्थन किया, पर रोहन के स्वर में व्यंग्य आ गया. “यही तो दिक़्क़त है. तेरी-मेरी समस्या, छोटी-बड़ी समस्या! यही तो समझाना चाहता हूं कि जब तक ये विभाजन है, हम अकेले हैं, तब तक हम कुछ भी नहीं सुलझा सकते. मेरी लड़ाई अब किसी समस्या यहां तक कि किसी व्यक्ति से है ही नहीं."

"ये सारे समूह मैंने लोगों की अलग-अलग समस्याओं के बनाए हैं, ताकि पीड़ित लोग आपस में समाधानों पर विचार-विमर्श कर सकें. मुझे वही व्यक्ति फॉलो कर सकता है, जो किसी की समस्या सुनकर उस पर विचार करने का, अपनी सामर्थ्य के अनुसार धन, समय या साहस से सहयोग करने का जज़्बा रखता हो. तुम्हारी समस्या के बारे में...” वो मेरी ओर मुख़ातिब हुआ, तो मैंने उसे टोक दिया, “नहीं रोहन, तुमसे कोई मदद नहीं ली जाएगी मुझसे. मेरी समस्या तुम्हारी समस्या के आगे कुछ नहीं. तुम अपनी समस्या पर ध्यान केंद्रित करो. ईश्वर करे तुम्हें न्याय मिले और जल्द मिले.” “हां, और हमें बताओ हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं.” सबने मेरी बात का ज़ोरदार समर्थन किया, पर रोहन के स्वर में व्यंग्य आ गया. “यही तो दिक़्क़त है. तेरी-मेरी समस्या, छोटी-बड़ी समस्या! यही तो समझाना चाहता हूं कि जब तक ये विभाजन है, हम अकेले हैं, तब तक हम कुछ भी नहीं सुलझा सकते. मेरी लड़ाई अब किसी समस्या यहां तक कि किसी व्यक्ति से है ही नहीं." हमारे चेहरों पर उग आए प्रश्नों के उत्तर में उसने एक प्रश्न दाग़ दिया, “अच्छा बताओ, जब तुम्हें लगने लगता है कि तुम ठगे जा रहे हो, तो तुम्हारी समस्या पर तुम्हारे अपनों की पहली प्रतिक्रिया क्या होती है?”

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“ग़म खाओ”, “मिट्टी पाओ”, “कुछ नहीं होगा”, “कहीं न्याय नहीं मिलता”, “ग़लती तुम्हारी ही है, जो विश्वास किया...” हम जोड़ते गए. “बिल्कुल”, वो आत्मविश्वास से बोला. “राजा बालि के बारे में सुना ही होगा, जिससे लड़नेवाले का आधा बल उसमें चला जाता था, इसीलिए उसे कोई हरा नहीं पाता था. ये जो किसी भी छोटे-बड़े अन्याय का शिकार होने पर हमारे मन में आनेवाला या कहो समाज द्वारा डाला जानेवाला पहला भाव है न कि हम घोर अकेले हैं, हम कुछ नहीं कर सकते, आम इंसान को कहीं न्याय नहीं मिलता... यही वो मनोवृत्ति है, जो हमारा मनोबल तोड़ देती है, आत्मविश्वास चूर कर देती है और अन्यायी के घमंड को दुगुना कर देती है  या कह लो कि हमारा आधा बल छीनकर अन्यायी में डाल देती है. और मेरी लड़ाई इसी मनोवृत्ति के ख़िलाफ़ है.” उसका स्वर दरकने लगा, “तुम लोगों को अपने हिंदी और नैतिक शिक्षा पढ़ानेवाले सर याद हैं, जो इतना धीरे बोलते थे कि हम सब उनका मज़ाक बनाते थे? मैं पागल सा भटकता रहता था, जब वो एक दिन मुझे अपने घर ले गए. उन्होंने संवेदना से मेरे कंधे पर हाथ रखा ही था कि मैं भड़क उठा, “मुझे उपदेश देने लाए हों, तो मैं जाऊं. मेरे भीतर आग जल रही है. मुझे इसे शांत नहीं करना या तो ख़ुद मर जाना है या उन लोगों को मार डालना है.” वो कुछ नहीं बोले. मुझे चाय बनाने के बहाने रसोई में ले गए और गैस जलाकर उस पर बरतन की बजाय अपना हाथ रख दिया. मैंने झटके से उनका हाथ हटाते हुए कहा कि ये क्या कर रहे हैं, तो वे बोले, "अरे, मैं तो भूल गया था कि आंच खाना पकाने के लिए होती है, हाथ जलाने के लिए नहीं.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...

bhaavana prakaash

भावना प्रकाश

 

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